हिन्दी साहित्य के इतिहास दर्शन, अर्थ, स्वरुप, रूपरेखा

शाब्दिक दृष्टि से 'इतिहास' का अर्थ है 'ऐसा हो या' या 'ऐसा ही हुआ'। इससे दो बातें स्पष्ट है एक तो यह कि इतिहास का सम्बन्ध अतीत से है; दूसरे यह कि उसके अन्तर्गत केवल वास्तविक या यथार्थ घटनाओं का समावेश किया जाता है। उसमें उन सभी लिखित या मौखिक वृत्तों को सम्मिलित किया जाता है जिनका सम्बन्ध अतीत की यथार्थ परिस्थितियों व घटनाओं से है और साथ ही उसका सम्बन्ध केवल प्रसिद्ध घटनाओं से नहीं, अपितु उन घटनाओं से भी है जो प्रसिद्ध न होते हुए भी यथार्थ में घटित हुई हो।

वस्तुतः आज 'इतिहास' शब्द को इतने व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है कि उसके अन्तर्गत, अतीत की प्रत्येक स्थिति, परिस्थिति, घटना, प्रक्रिया एवं प्रवृत्ति की व्याख्या का समावेश हो जाता है। अतः संक्षेप में अतीत के किसी भी तथ्य, तत्त्व एवं प्रवृत्ति के वर्णन, विवरण, विवेचन व विश्लेषण को-जो कि कालविशेष या काले क्रम की दृष्टि से किया गया हो इतिहास कहा जा सकता है।

लाक्षणिक अर्थ में, 'इतिहास' का प्रयोग अती की घटनाओं के विवण के स्थान पर स्वयं अतीतकालीन घटनाओं और व्यक्तियों के लिए भी होता है, जैसे- 'महात्मा गाँधी ने भारत के नये इतिहास का निर्माण किया' या 'सम्राट अशोक भारत के इतिहास निर्माता थे' आदि वाक्यों में किन्तु शास्त्रीय या वैज्ञानिक विवेचन में लाक्षणिक प्रयोग अग्राह्य या त्याज्य ही समझे जाते हैं।

प्राचीन काल से ही इतिहास को अध्ययन के एक स्वतन्त्र विषय के रूप में मान्यता प्राप्त है, किन्तु अध्येताओं के दृष्टिकोण एवं पद्धति के अनुसार उसका स्वरूप बदल रहा है इसलिए कभी उसे कला के क्षेत्र में और कभी विज्ञान के क्षेत्र में स्थान दिया जाता रहा। वस्तुतः इतिहास करता है या विज्ञान, यह प्रश्न आज भी विवाद का विषय बना हुआ है। इस विवाद के मूल में यह भ्रान्ति विद्यमान है कि कोई भी वस्तु या विषय अपने आप में कला या विज्ञान की कोटि में आ सकता है जबकि वास्तविकता यह है कि कला या विज्ञान का निर्णय विषय-वस्तु के आधार पर नहीं, अपितु उसकी अध्ययन पद्धति या रचना-पद्धति पर निर्भर है। 

इतिहास हमें अतीत का इतिवृत प्रदान करता है, किन्तु यह हम पर निर्भर है कि उस इतिवृत्त का उपयोग किस प्रकार करते हैं। यह अतीत के इतिवृत्त को हम आत्मपरक दृष्टिकोण, वैयक्तिक अनुभूति एवं ललित शैली में प्रस्तुत करते हैं तो वह 'कला' की संज्ञा से विभूषित हो सकता है जबकि वस्तुपरक दृष्टिकोण, तर्कपूर्ण शैली एवं गवेषणात्मक पद्धति से प्रस्तुत किया गया अतीत का विवरण 'विज्ञान' की विशेषताओं से युक्त माना जा सकता है। वस्तुतः इतिहास से कवि, साहित्यकार, उपदेशक, शोधकर्ता आदि विभिन्न वर्गों के लोग प्रेरणा ग्रहण करते रहे हैं  तथा उनकी दृष्टि व पद्धति के अनुसार उसका स्वरूप भी बदलता रहा है—ऐसी स्थिति में इतिहास के भी विभिन्न रूप उपलब्ध हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

फिर भी, आधुनिक युग में इतिहास को कला की अपेक्षा विज्ञान के ही अधिक निकट माना जाता है। अतः प्रत्येक इतिहासकार से दृष्टिकोण की तटस्थता या वस्तुपरकता, तथ्यों की यथार्थता और निष्कर्षो की प्रामाणिकता की अपेक्षा की जाती है; यह दूसरी बात है कि विषयवस्तु की अविद्यमानता व अप्रत्यक्षता के कारण 'भौतिक विज्ञान' की-सी वैज्ञानिकता का आविर्भाव उसमें शायद ही सम्भव हो।

 वास्तव में विषय-भेद से स्वयं विज्ञान भी अनेक श्रेणियों एवं कोटियों में विभक्त हो जाता है; उदाहरण के लिए मनोविज्ञान, समाजविज्ञान व भाषाविज्ञान को हम विज्ञान की उसी श्रेणी में स्थान नहीं दे सकते जिस श्रेणी में भौतिकविज्ञान, रसायनशास्त्र और जीव विज्ञान को देते हैं। अत: इतिहास को भी हम उसी श्रेणी के विज्ञान में स्थान दे सकते हैं, जिस श्रेणी में भाषाविज्ञान व समाजविज्ञान (Sociology) को देते हैं। '

इतिहास-दर्शन' की रूपरेखा

जैसा कि पीछे संकेत दिया जा चुका है, इतिहास के अध्ययन में विभिन्न विद्वान् विभिन्न प्रकार के दृष्टिकोणों का प्रयोग करते रहे हैं तथा ये दृष्टिकोण भी समय-समय पर बदलते रहे। हैं- इसी तथ्य के आधार पर 'इतिहास-दर्शन' विषय की स्थापना हुई है जिसमें इतिहास के सम्बन्ध में प्रयुक्त व प्रचलित विभिन्न दृष्टिकोणों, धारणाओं व विचारों का अध्ययन किया जाता है। अस्तु, इतिहास सम्बन्धी इन्हीं विचारों या धारणाओं को समूह रूप में 'इतिहास-दर्शन' की संज्ञा दी जाती है। 

वैसे, पश्चिम के कुछ विद्वानों ने 'इतिहास-दर्शन' (Philosophy of History) का प्रयोग संकीर्ण व सीमित अर्थ में करते हुए अपने-अपने दृष्टिकोणों को ही उस पर आरोपित करने का प्रयास किया है। सर्वप्रथम वोल्तेर ने इस संज्ञा का प्रयोग करते हुए इसके अर्थ को केवल 'आलोचनात्मक या वैज्ञानिक इतिहास' तक सीमित रखने का प्रयास किया। हीगल ने इसका प्रयोग विश्व इतिहास के अर्थ में तथा परवर्ती युग के कुछ विद्वानों ने केवल परीक्षणात्मक यथार्थवादी दृष्टिकोण के लिए किया। 

किन्तु, आज 'इतिहास-दर्शन' के नाम से उपलब्ध पुस्तकों में पूर्व से पश्चिम तक तथा प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के उन सभी दृष्टिकोणों व विचारों का प्रतिपादन किया जाता है जो इतिहास के अध्ययन से प्रयुक्त हुए हैं। ऐसी स्थिति में, यदि हम एकांगी और एकपक्षीय धारणाओं से बचते हुए 'इतिहास-दर्शन' का सर्वांगीण व सर्वपक्षीय बोध प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें उसे उसी व्यापक एवं समन्वित अर्थ में ग्रहण करना होगा जिसके अनुसार 'इतिहास-दर्शन' 'उन दृष्टिकोणों, विचारों व अध्ययन-पद्धतियों के समूह का सूचक है, जिनका प्रयोग इतिहास के अध्ययन से सम्भव है।

 हिन्दी साहित्य का इतिहास-दर्शन

सामान्यतः 'इतिहास' शब्द से राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास का ही बोध होता है, किन्तु वास्तविकता यह है कि सृष्टि की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसका इतिहास से सम्बन्ध न हो। अतः साहित्य भी इतिहास से असम्बद्ध नहीं है। 

साहित्य के इतिहास में हम प्राकृतिक घटनाओं व मानवीय क्रिया-कलापों के स्थान पर साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से करते हैं। वैसे, देखा जाये तो साहित्यिक रचनाएँ भी मानवीय क्रिया-कलापों से भिन्न नहीं है; अपितु वे विशेष वर्ग के मनुष्यों की विशिष्ट क्रियाओं की सूचक हैं। दूसरे शब्दों में, साहित्यिक रचनाएँ साहित्यकारों की सर्जनात्मक क्रियाओं और प्रवृत्तियों की सूचक होती हैं |

अतः उनके इतिहास को समझने के लिए उनके रचयिताओं तथा उनसे सम्बन्धित स्थितियों, परिस्थितियों और परम्पराओं को समझना भी आवश्यक है। प्रारम्भ में जिस प्रकार रजनीतिक इतिहास में राजाओ के जीवन चरित्र एवं राजनीतिक घटनाओं को संकलित कर देना पर्याप्त समझा जाता था, उसी प्रकार साहित्य के इतिहास में भी रचनाओं व रचयिताओं का स्थूल परिचय त्यों- ही पर्याप्त होता था, किन्तु ज्यों-ज्यों इतिहास के सामान्य दृष्टिकोण का विकास होता गया, त्यों साहित्येतिहास के दृष्टिकोण में भी तद्नुसार सूक्ष्मता व गम्भीरता आती गयी। यद्यपि इतिहास के अन्य क्षेत्रों की तुलना में साहित्य का इतिहास दर्शन एवं उसकी पद्धति अब भी बहुत पिछड़ी हुई है, किन्तु फिर भी समय-समय पर इस प्रकार के अनेक प्रयास हुए हैं जिनका लक्ष्य साहित्येतिहास को भी समान्य इतिहास के स्तर पर पहुँचाने का रहा है।

यद्यपि अंग्रेजी साहित्य के विभिन्न इतिहासकारों द्वारा यह धारणा बहुत पहले प्रचलित हो चुकी थी कि किसी भी जाति के साहित्य का इतिहास उस जाति के सामाजिक एवं राजनीतिक वातावरण को ही प्रतिबिम्बित करता है या साहित्य की प्रवृत्तियाँ सम्बन्धित समाज की प्रवृत्तियों की सूचक होती हैं, फिर भी इस धारणा को एक सुव्यवस्थित सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय फ्रेंच विद्वान् तेन (Taine) को है जिन्होंने अपने अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में प्रतिपादित किया कि साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों के मूल में मुख्यतः तीन प्रकार के तत्त्व सक्रिय रहते है-जाति (race), वातावरण (milieu), क्षण-विशेष (moment ) । 

तेन ने अपनी व्याख्या के द्वारा यह भलीभांति स्पष्ट किया कि किसी भी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए उससे सम्बन्धित जातीय परम्पराओं, राष्ट्रीय और सामाजिक वातावरण एवं सामयिक परिस्थितियों का अध्ययन विश्लेषण आवश्यक है। तेन के इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए हडसन ने आक्षेप किया कि उन्होंने साहित्य की विकास प्रक्रिया का सारा महत्त्व उपर्युक्त तीन तत्त्वों को ही दे दिया, जबकि साहित्यकार या काव्य रचयिता के व्यक्तित्व एवं उसकी प्रतिभा को सर्वधा उपेक्षा कर दी। निश्चय ही हडसन का यह आक्षेप तेन के सिद्धान्त की एक महत्त्वपूर्ण न्यूनता या त्रुटि की ओर संकेत करता है, किन्तु फिर भी हम इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सकते कि पूर्ववर्ती इतिहासकारों की तुलना में तेन ने अपेक्षाकृत अधिक व्यापक, स्पष्ट एवं विकसित सिद्धांत प्रस्तुत  किया था, जिसके आधार पर साहित्य की विकास प्रक्रिया को बहुत कुछ स्पष्ट किया जा सकता है।

साहित्येतिहास की व्यवस्था में जर्मन चिन्तकों का भी कम योगदान नहीं है। वैसे तो उनके द्वारा कई सिद्धान्त स्थापित हुए, किन्तु उनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण 'युग चेतना' (spirit of age) का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार, साहित्य के इतिहास की व्याख्या तयुगीन चेतना के आधार पर की जानी चाहिए। ए. एच. कॉफे ने महान कवि गेटे की साहित्यिक प्रवृत्तियों की व्याख्या युगीन चेतना के आधार पर करके इस सिद्धान्त की महत्ता को प्रमाणित किया है। किन्तु हमारे विचार में यह सिद्धान्त भी एकांगी ही है, क्योंकि साहित्य के विकास में युगीन चेतना का ही नहीं, पूर्ववर्ती परम्पराओं का भी न्यूनाधिक योगदान रहता है; अतः उनकी उपेक्षा करके सारा श्रेय युगीन चेतना को ही दे देना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।

इधर मार्क्सवाद से प्रभावित आलोचकों ने द्वन्द्वात्मक भौतिक विकासवाद, वर्ग संघर्ष और आर्थिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में साहित्य की विकास प्रक्रिया को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उदाहरण के लिए सैक्युलिन ने रूसी साहित्य के इतिहास में व्याख्या करते हुए साहित्य की विभिन्न प्रक्रियाओं व प्रवृतियों का सम्बन्ध आर्थिक परिस्थितियों एवं वर्ग संघर्ष की  प्रतिक्रिया से स्थापित किया है। किन्तु कई बार मार्क्सवादी आलोचक साहित्य की सभी प्रवृत्तियों के मूल में अर्थ को ही स्थापित करके एक ऐसा अनर्थ कर देते हैं जो एकांगिता व अतिवादिता का प्रमाण होता है।

साहित्य-विकास के उपर्युक्त सामान्य सिद्धान्त के अतिरिक्त कुछ ऐसे सिद्धान्त भी प्रतिपादित किये गये हैं जिनसे साहित्य के रूपात्मक, प्रवृत्यात्मक तथा गुणात्मक विकास के अध्ययन में सहायता मिल सकती है, किन्तु यहाँ इनका विस्तृत परिचय न देकर इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जिस प्रकार सामान्य इतिहास का वैज्ञानिक अध्ययन विकासवाद के आधार पर ही सम्भव है, उसी प्रकार साहित्य के इतिहास की भी वैज्ञानिक व्याख्या के लिए विकासवादी सिद्धान्तों का आधार ग्रहण करना आवश्यक है, यह दूसरी बात है कि जो लोग इतिहास को भी कल्पना- विकास और भाव- सौन्दर्य का क्षेत्र मानते हुए उसे कला की श्रेणी में स्थान देते हैं, वे विकासवादी दृष्टिकोण और वैज्ञानिक पद्धति- दोनों को ही व्यर्थ समझें ।

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