संयुक्त परिवार का अर्थ, परिभाषा, विशेषतायें, तथा लाभ एवं हानि

    संयुक्त परिवार का अर्थ

    संयुक्त परिवार की प्रथा हमारे देश में युगों-युगों से चली आ रही है। यह भारतीय सामाजिक जीवन का केन्द्र भी है। पश्चिमी सभ्यता और औद्योगिकीकरण के कारण अब संयुक्त परिवार कम होते जा रहे हैं। इसके बाद भी आज भी समाज में कुछ संयुक्त परिवार आज भी दिखायी देते हैं। संयुक्त परिवार का शाब्दिक अर्थ है, "ऐसा परिवार जिसमें कई एकाकी परिवार संयुक्त रूप से जीवन व्यतीत करते हैं अथवा वे सम्मिलित रूप से उत्पादन व उपभोग के समान उत्तरदायी व अधिकारी हो।" 

    संयुक्त परिवार की परिभाषा 

    श्रीमती इरावती कर्वे (Smt. Irawati Karve) के अनुसार, “संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो साधारणतया एक- छत के नीचे रहते हैं, एक ही चूल्हे पर बना भोजन करते हैं, जो सामान्य सम्पत्ति के अधिकारी होते हैं, जो सामान्य पूजा में भाग लेते है तथा किसी-न-किसी प्रकार से रक्त सम्बन्धी होते हैं।'' 

    डॉ० आई०पी० देसाई (Dr. I.P. Desai) के अनुसार,  "हम उस घर को संयुक्त परिवार कहते हैं जिसमें कम-से-कम तीन या इससे अधिक पीढ़ी के सदस्य सम्मिलित हो तथा उनके सदस्य एक-दूसरे से सम्मति, आय, पारस्परिक अधिकारों व कर्तव्यों द्वारा सम्बन्धित हो।"

    चन्द्रशेखर (Chandrashekhar)के अनुसार,  "संक्षेप में संयुक्त परिवार केवल उत्पादनों के साधनों का सामान्य स्वामित्व तथा श्रम के फल का सामान्य उपभोग है।"

    इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाएँ संयुक्त परिवार का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं। कानूनी दृष्टिकोण से यह आवश्यक नहीं है कि संयुक्त परिवार के सदस्य सदैव एक ही मकान में रहें, एक ही रसोई का पका भोजन करें, पूजा-उपासना में संयुक्त रूप से भाग लें। भारतीय कानून के अनुसार एक संयुक्त परिवार में वे सब सदस्य आते हैं जो एक सामान्य पूर्वज के वंशज हैं, उन्हें संयुक्त रूप से तब तक संयुक्त परिवार माना जायगा जब तक यह सिद्ध न हो कि परिवार के सदस्य विभाजित हो गये हैं। यदि परिवार की सम्पत्ति संयुक्त है तो अलग-अलग नगरों में काम करते हुए भी वह परिवार संयुक्त ही माना जायगा। वास्तव में संयुक्त परिवार सम्पत्ति, आमदनी, अधिकार व कर्तव्यों की संयुक्त व सहयोगी व्यवस्था है।

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    संयुक्त परिवार की विशेषताएँ

    एक संयुक्त परिवार की निम्न विशेषताएं होती हैं-

    1. बड़ा आकार 

    चूँकि संयुक्त परिवार में कई मूल परिवार एक साथ रहते हैं, अतः स्वाभाविक है कि संयुक्त परिवार आकार में बड़ा ही होगा। परम्परात्मक रूप से संयुक्त परिवार में माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन, पुत्र- वधुएँ, पौत्र-वधुएँ, चाचा-चाची, भतीजे- भतीजियों तथा इनसे सम्बन्धित अन्य रिश्तेदारों का समावेश होता है। 

    2. समाजवादी संगठन 

    व्यावहारिक रूप से संयुक्त परिवार समाजवाद का एक लघु रूप होते हैं क्योंकि इसकी व्यवस्था समानसा व सहयोग पर आधारित होती है। इसका प्रत्येक सदस्य एक-दूसरे के लिए पूर्ण उत्तरदायी होता है। इसकी एक मुख्य विशेषता यह है कि प्रत्येक सदस्य के लिए 'उसकी क्षमतानुसार तथा आवश्यकतानुसार' सिद्धान्त का पालन किया जाता है। सभी सदस्य मिल-जुलकर उत्पादन कार्य में सहयोग करते हैं यहाँ तक कि स्त्री, पुरुष व बच्चे सभी अपनी-अपनी क्षमतानुसार उत्पादन में हाथ बटाते हैं। फलस्वरूप उत्पादन का परिणाम भी संयुक्त ही होता है।

    3. सामान्य सम्पत्ति 

    सामान्य सम्पत्ति का होना संयुक्त परिवार की अनिवार्य विशेषता है क्योंकि व्यावहारिक रूप में कोई परिवार जब तक संयुक्त परिवार नहीं होता जब तक कि उसकी सम्पत्ति पर सबका सामान्य अधिकार न हो। यह धारणा संयुक्त परिवार प्रथा को दृढ़ता प्रदान करती है तथा एक विस्तृत आकार भी परिवार के सभी सदस्यों की आय सम्मिलित कोष में एकत्र होती है तथा परिवार का कर्ता ही प्रत्येक सदस्य की आवश्यकतानुसार इसी में से धन व्यय करता है।

    4. सामान्य निवास स्थान

    सामान्य तथा 2-3 या इससे अधिक पीढ़ी के लोग संयुक्त रूप में एक ही घर में रहते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे कभी कहीं बाहर रह ही नहीं सकते। यदि उनकी सम्पत्ति संयुक्त है तो उनके अलग-अलग जाकर कार्य करने पर भी वे संयुक्त परिवार का ही निर्माण करते हैं। डॉ० देसाई ने स्पष्ट किया है कि, "सदैव एक ही स्थान पर संयुक्त परिवार के सदस्यों का रहना आवश्यक नहीं है।" यद्यपि कुछ विद्वान् देसाई के इस विचार से सहमत नहीं हैं। वास्तव में संयुक्त परिवार के लिए सामान्य निवास और सामान्य चूल्हा भी आवश्यक विशेषताएँ माना गया है।

    5. कर्त्ता का सर्वोच्च स्थान

    संयुक्त परिवार में सर्वाधिक आयु का व्यक्ति ही परिवार का कर्ता या मुखिया माना जाता है। कर्ता का परिवार में सर्वोच्च स्थान होना संयुक्त परिवार की मुख्य विशेषता है। परिवार की नीति निर्धारण तथा कार्यों का विभाजन करना कर्ता के ही अधिकार में होता है। परिवार के सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यों का दायित्व भी उसी पर होता है यहाँ तक कि पारिवारिक नियमों को भंग करनेवाले को वह उचित दण्ड भी देता है। वह प्रायः सामूहिक कल्याण को ध्यान में रखते हुए अपने पद का दुरुपयोग करने का साहस नहीं कर पाता। वास्तव में कर्त्ता के सद्गुणों पर ही संयुक्त परिवार का संगठन, सफलता तथा कल्याण निर्भर करता है। 

    6. सामान्य सामाजिक कर्तव्य 

    संयुक्त परिवार के सभी सदस्य पारस्परिक अधिकारों व कर्तव्यों की भावना से एक-दूसरे से बंधे होते हैं। वे सभी सामाजिक उत्सवों को सम्मिलित रूप से सहयोग व कर्तव्य की भावना से मनाते हैं। जैसे विवाह, जन्म तथा मृत्यु के समय ऐसे समय पर दूर रह रहे सदस्य भी आकर सम्मिलित होना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। यही सामाजिक कर्तव्य-बोध सभी सदस्यों को एक सूत्र में बांधे रहता है।

    7. सामान्य धार्मिक कर्त्तव्य

    संयुक्त परिवार को एक धार्मिक विचारों की इकाई भी कहा जा सकता है जहाँ सभी कार्य धर्म से सम्बन्धित होते हैं। इसके अन्तर्गत न केवल धार्मिक उत्सव या त्योहारों, उपवास, पूजा-पाठ आदि आते हैं, बल्कि वे अपनी सभी परम्पराओं, रीति-रिवाज आदि का भी धार्मिक भावना से पालन करते हैं। जैसे विवाह करना, बड़ों का सम्मान करना, स्त्रियों का पर्दे में रहना, ज्येष्ठ के चरण-स्पर्श करना व बड़ों की सेवा करना आदि। इन सभी कार्यों को करना सभी व्यक्ति अपना धर्म या कर्तव्य समझते हैं।  

    8. आर्थिक स्थिरता

    संयुक्त परिवार में सभी सदस्यों को अर्जित धनराशि एक ही कोष में एकत्र होती है तथा आवश्यकतानुसार सभी के लिए उसी कोष में व्यय की जाती है। कर्ता का यह दायित्व होता है कि वह वर्तमान के साथ भविष्य की सुरक्षा का भी ध्यान रखे इसलिए वह कभी भी फिजूलखर्ची में धन का अपव्यय न तो स्वयं करता है न ही किसी को करने देता है। इसका परिणाम यह होता है, कि प्रायः परिवार की आर्थिक स्थिति स्थिर रहती है, जल्दी बिगड़ने की सम्भावना नहीं होती।

    9. सांस्कृतिक निरन्तरता 

    एक संयुक्त परिवार में कई पीढ़ी के लोग एक साथ रहते हैं। वे पारम्परिक ढंग से अपनी प्रथाओं व रीति-रिवाजों का सामूहिक रूप से पालन करते हैं। घर के बड़े-बड़े, किस्से कहानियों द्वारा अपने जीवन के अनुभवों को सुनाकर तथा व्यवहारों द्वारा अपनी संस्कृति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित करते रहते हैं, जिससे संस्कृति की निरन्तरता बनी रहती है। संयुक्त परिवार की यह विशेषता है कि हमारी सदियों पुरानी परम्पराओं, प्रथाओं, विचारों व धर्म-कर्म व्यवहार आदि का प्रत्यक्षीकरण कराती है।

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    संयुक्त परिवार से लाभ (गुण)

    संयुक्त परिवार प्रथा के लाभों का विवरण निम्न प्रकार दिया जा रहा है-

    1. सभी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति। 

    2. व्यक्ति का समाजीकरण।

    3. सुरक्षात्मक व्यवस्था। 

    4. सामाजिक बीमा।

    5. नव वर-वधू पर हल्का भार।

    6. खर्च में बचत। 

    7. कृषि भूमि का विभाजन से बचाव।

    8. समान अधिकार व कर्तव्य। 

    9 संस्कृति का हस्तान्तरण ।

    10. विधवाओं, अनाथों व वृद्धों की सुरक्षा ।

    11. सामुदायिक जीवन को प्रोत्साहन।

    12 पारिवारिक एकता से व्यक्ति की प्रतिष्ठा।

    13. सामाजिक सहयोग की भावना।

    14. सामाजिक नियंत्रण आदि।

    संयुक्त परिवार से हानियाँ (दोष)

    संयुक्त परिवार से निम्न हानियाँ हैं- 

    1. द्वेष व कलह का केन्द्र

    आज के भारतीय आधुनिक समाज में व्यक्ति पुरानी रूढ़ियों से निकलकर समय के साथ चलना चाहता है। परिवार के वृद्धजन अपनी परम्पराओं को छोड़ना नहीं चाहते। अतः नयी और पुरानी पीढ़ी के विचारों का आपस में ताल- मेल नहीं बैठता तथा घर का वातावरण कलह व द्वेषपूर्ण हो जाता है। माता-पिता अपनी सन्तान को स्वतन्त्रता देते हैं, बहुएँ पर्दे से बाहर आना चाहती हैं, किन्तु पुराने लोग इसमें बाधा डालते हैं, झगड़े यहीं से आरम्भ होते हैं। यदि घर का मुखिया थोड़ा कमजोर पड़ता है। तो स्थिति और भी खराब हो जाती है। सास, बहू, देवर, भाभी, ननद, भौजाई के झगड़े संयुक्त परिवार की परिपाटी रही है। अपने पराये का भी भेदभाव दिलों में भड़कता रहता है, कभी-कभी यह बहुत उग्र रूप भी धारण कर लेता है। 

    2. व्यक्तित्व विकास में बाधक 

    संयुक्त परिवार में कर्ता का निरंकुश शासन होता है। उसके कठोर नियन्त्रण के कारण किसी को स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने की आशा नहीं मिलती जिससे होनहार तथा महत्त्वाकांक्षी बच्चों के व्यक्तित्व का उचित विकास होने में बाधा पहुंचती है। 

    3. सामान्य निर्धनता 

    यह निश्चित है कि इतने बड़े आकारवाले संयुक्त परिवार में विधवाओं, अपाहिजों, रोगियों व कामचोरों की कमी नहीं होती जिन्हें बिना काम किये हुए अन्य सदस्यों के समान ही सभी सुविधाएँ प्राप्त होती रहती है। दूसरी ओर कमानेवाले व्यक्तियों पर इनका अतिरिक्त दायित्व आ जाता है तथा धन का वितरण इस प्रकार होता है कि सभी की स्थिति सामान्य रूप से निर्धनता की स्थिति हो जाती है। यदि यहीं कमाने वाले व्यक्ति को अपने एकाकी परिवार का ही दायित्व निभाना हो तो उनकी आर्थिक स्थिति कहाँ अधिक बेहतर हो सकती है। कम-से-कम वे निर्धनता के स्तर से ऊपर उठेंगे।

    4. आर्थिक निर्भरता 

    संयुक्त परिवार में परिवार के संचालन का पूरा दायित्व कर्ता पर होता है तथा सभी की आमदनी कर्ता के पास से ही व्यय की जाती है। अतः सभी व्यक्ति यहाँ तक कि अन्य कमाने वाले सदस्य भी कर्ता पर पूरी तरह निर्भर रहते हैं। अपनी हर आवश्यकता के लिए उन्हें कर्ता के आगे हाथ पसारना पड़ता है जिससे उनके अन्दर कभी-कभी आत्मग्लानि की भावना प हो जाती है। विशेष रूप से स्त्रियों व बालिकाएं तो किसी मद में अपनी इच्छानुसार न तो खर्च कर सकती है और न ही किसी को कुछ दे सकती हैं।

    5. स्त्रियों की दयनीय स्थिति 

    संयुक्त परिवार में स्त्रियों की स्थिति अत्यन्त दयनीय होती है। बाल विवाह संयुक्त परिवार की उपज है। छोटी-छोटी बालिकाएँ 'यह' बनकर ससुराल पहुँच जाती हैं जहाँ उन्हें अत्यधिक शारीरिक परिश्रम, कम से कम आराम तथा रुचिहीन भोजन पर मुँह बन्द करके जीवन गुजारना पड़ता है। उस पर भी जरा सी चूक हो जाने पर सास-नन्द के कोप का भोजन बनना पड़ता है। कभी-कभी उसकी कोई त्रुटि न होने पर भी कोप का शिकार होकर वह एकान्त में आँसू बहाने पर विवश हो जाती है। संयुक्त परिवार में बड़ों के इस आशीर्वाद दूधो नहाओ पूता फलों के कारण ही उसके स्वास्थ्य पर भी पर्याप्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. क्योंकि वह चाहे दूधो न नहाये लेकिन पूतों वह खूब फलती है।

    6. बाल-विवाहों को प्रोत्साहन 

    संयुक्त परिवार में छोटी-छोटी कन्याओं का इतनी कम अवस्था में विवाह हो जाता है, जबकि उन्हें शादी-विवाह के मर्म का कोई ज्ञान ही नहीं होता। किन्तु कोई तो कन्यादान का पुण्य लूटता है तो कोई सोने की सीढ़ी चढ़ने का स्वप्न देखता है और बलि का बकरा बनायी जाती हैं बेचारी अबोध बालिकाएँ।

    7. अधिक सन्तानें

    एकाकी परिवारों की अपेक्षा संयुक्त परिवारों के दम्पतियों की सन्तानें अधिक होती है। वे दूसरों का दायित्व  समझने के कारण सन्तानोत्पत्ति पर रोक लगाना आवश्यक ही नहीं समझते। वास्तविकता यह है कि घर के बड़े-बूढ़े परिवार की वंशवृद्धि से अपने को धन्य मानते हैं तथा बच्चों पर खर्च का दायित्व भी उन्हीं पर रहता है। कहना न होगा कि पहले 14-14 व 16-16 बच्चे होना एक साधारण-सी बात थी। उनमें से कुछ की मृत्यु हो जाय यह अलग बात थी। किन्तु आज एकाकी परिवार इस बात का प्रयत्न करता है कि बच्चे इतने न हो जायें कि उनकी चादर छोटी हो जाय और बच्चों का लालन-पालन व शिक्षा-दीक्षा ठीक से न हो सके। 

    8. गोपनीयता का अभाव

    संयुक्त परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण पति-पत्नी और विशेष रूप से नव दम्पतियों को स्वतन्त्रतापूर्वक दाम्पत्य जीवन व्यतीत करने के लिए अवसर व स्थान का नितान्त अभाव होता था। उन्हें प्रायः अपनी इक्षाओं का दमन करना पड़ता था, जिससे कभी-कभी उन पर मनोवैज्ञानिक रूप से भी हानिकारक प्रभाव पड़ता था।

    9. गतिशीलता में बाधक 

    संयुक्त परिवार की एक विशेषता है 'सामान्य निवास स्थान।' अतः परिवार का कर्ता हर सम्भव प्रयत्न करके सभी सदस्यों को उसी परिवार में रहने के लिए बाध्य करता रहता है इच्छा होने पर भी अथवा जीवनयापन की अच्छी सुविधा मिलने पर भी किसी को स्थान से दूर जाने की अनुमति प्राप्त नहीं होती, बल्कि वह इच्छानुसार अपने परम्परागत व्यवसाय के अतिरिक्त दूसरा व्यवसाय या नौकरी पेशा भी नहीं अपना सकता। अतः गतिशीलता के अभाव में उसकी प्रतिभा और विकास का हनन होता है, फलस्वरूप उनमें कुण्ठित भावनाएँ विकसित होती हैं। 


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