सूरदास का जीवन परिचय (Sooradaas Ka Jeevan Parichay)

सूरदास का जीवन परिचय  (Sooradaas Ka Jeevan Parichay)

स्मरणीय तथ्य

जन्म- 1498 ई०।

मृत्यु- 1583 0 के लगभग ।

पिता- रामदास ।

गुरु- बल्लभाचार्य।

रचनाएँ- सूरसागर, सूर सारावली तथा साहित्य लहरी ।

काव्यगत विशेषताएँ

भक्ति- भावना-भगवान् कृष्ण की सखा भाव से उपासना ।

भाषा- ब्रज की चलती हुई ब्रजभाषा, मुहावरों तथा कहावतों का यत्र-तत्र प्रयोग ।

शैली- 1. भावपूर्ण शैली, 2. कथात्मक मधुर शैली, 3. अस्पष्ट तथा दुरूह शैली ।

छन्द- गाने योग्य पद ।

जीवन परिचय 

सूरदास का जन्म आगरा से मथुरा जानेवाली सड़क पर रुनकता नामक ग्राम में सन् 1498 में हुआ था। विद्वानों में इनके जन्मान्ध होने के सम्बन्ध में मतभेद हैं। कुछ लोगों का विचार है कि सूर के काव्य में जैसा सजीव एवं स्वाभाविक चित्रण मिलता है वैसा किसी जन्मान्ध से कदापि सम्भव नहीं हो सकता है। जनश्रुति के आधार पर वे इन्हें बाद में अन्धा हुआ मानते हैं।

सूरदास सारस्वत ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। 18 वर्ष तक निकटवर्ती ग्राम में रहकर संगीत का अध्ययन "किये। सत्संग के प्रभाव से उन्हें धर्मशास्त्रों का ज्ञान हो गया। बचपन से ही विरक्त हो ये गऊघाट पर रहने लगे। बल्लभाचार्य को इन्होंने एक स्वरचित पद सुनाया जिस पर प्रसन्न होकर उन्होंने इनसे कृष्ण लीला को छन्दबद करने का सुझाव दिया। ये बल्लभाचार्य के शिष्य बन गये और वहीं गोवर्द्धन पर्वत पर बने श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करने के लिए रख लिये गये। सूरदास जी अष्टछाप के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इनकी मृत्यु पारसौली ग्राम में सन् 1583 ई0 के आस-पास हुई थी।

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रचनाएँ

सूरदास के पदों का संकलन 'सूरसागर' है जिसमें विनय भक्ति, विष्णु के अवतारों एवं पौराणिक कथाओं का निरूपण 12 अध्यायों में हुआ है। इसके अतिरिक्त 'सूर सारावली' और 'साहित्य लहरी' दो और रचनाएँ सूर की लिखी बतायी जाती हैं किन्तु सूरसागर के ही पदों को छाँटकर 'सूर सारावली' और 'साहित्य लहरी' में संकलित किया गया है। 'साहित्य लहरी' में दृष्टिकूट के पदों का संकलन है। 'सूर-सागर' में सवा लाख पद होने की सम्भावना है किन्तु अभी तक पाँच हजार पद ही प्राप्त हो सके हैं। 

काव्यगत विशेषताएँ

(क) भाव पक्ष 

सूरदास हिन्दी के कृष्णभक्ति शाखा के सर्वश्रेष्ठ सगुणोपासक भक्त कवि हैं जिन्होंने श्रीमद्भागवत् के दशम स्कन्ध से श्रीकृष्ण लीलाओं को पद्यबद्ध किया है। 

अतः सूर की रचनाएँ तीन प्रकार की हैं -

(1) भक्ति भावना सम्बन्धी पद :  सूर की भक्तिभावना सखा कोटि की है जिसके चित्रण में कृष्णः की बाल लीलाओं को बड़ी ही सजीवता एवं सहजता प्रदान की गयी है। सखा-भक्ति का दूसरा रूप राधा कृष्ण अथवा गोपीकृष्ण के रूप में चित्रित हुआ है जिसे 'कान्ता भक्ति' भी कहा जा सकता है। सूर ने 'गति के आगे ज्ञान को तुच्छ माना है। सखा भाव के अतिरिक्त ईश्वर के प्रति इनकी भक्ति दासभाव की भी है। ये ईश्वर को अलौकिक पुरुष मानते हैं और जाकी कृपा पगु गिरि लघु, अन्धे को सब कुछ दरसाई' कहकर उनकी शक्ति पर भरोसा रखते हैं। 

(2) बाल चरित्र चित्रण सम्बन्धी पद (वात्सल्य प्रेम) : भक्ति सम्बन्धी पदों के अतिरिक्त सूर ने श्रीकृष्ण जी के बाल सुलभ चरित्र का जो सजीव और स्वाभाविक चित्रण अपने पदों में किया है वह अपने ढंग का अकेला है। पालने में झूलने से लेकर गौओं को चराने और माखन चोरी की लीलाओं को सूर ने चित्रित करने में कमाल हासिल किया है।

(3) गोपी-प्रेम और श्रृंगार चित्रण (कान्ता भक्ति) : श्रीकृष्ण और गोपियों के परस्पर प्रेम का चित्रण सूर ने कान्ता भक्ति के अन्तर्गत किया है। इसमें शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सांगोपांग चित्रण हुआ है। सूर ने राधा और कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का जो वर्णन किया है, वह शारीरिक नहीं मानसिक है, उसमें आध्यात्म और भक्ति का पुट है। 

व्यक्ति की दृष्टि से सूर के तीन रूप हमारे समक्ष आते हैं-  भक्त, प्रेमीगायक तथा कवि। भक्त के रूप में उन्होंने विनय पद तथा कृष्ण की बाल लीलाओं का चित्रण, प्रेमी-गायक के रूप में 'अमरगीत' और कवि के रूप में काव्यगत चमत्कारों और भावों का प्रदर्शन कर अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है। सूर की कविता का क्षेत्र यद्यपि अत्यन्त ही सीमित है फिर भी उन्होंने अपनी काव्यगत क्षमता का स्पष्टतम प्रदर्शन किया है। सूर के सम्पूर्ण काव्य में विनय दाम्पत्य और माधुर्य भाव का सम्मिश्रण है। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं का ही वर्णन किया है। महाभारत के राजनीतिक योगिराज श्रीकृष्ण के वर्णन में इनकी मनोवृत्ति अधिक नहीं जम सकी है।

(ख) कला पक्ष 

(1) भाषा :  सूर की भाषा शुद्ध साहित्यिक ब्रज भाषा है जिसमें यत्र-तत्र संस्कृत और फारसी के शब्दों का भी समावेश है। ब्रजभाषा के काव्य को साहित्यिक भाषा का रूप प्रदान करने का श्रेय सूर को ही है। सूर की भाषा में सरलता, माधुर्यता और मार्मिकता है। मुहावरे एक पैर पर खड़ा होना, हारिल की लकड़ी होना आदि।

(2) शैली : सूर की शैली गीति काव्य की शैली है जिसके तीन रूप है- 

1. विनय तथा भक्ति सम्बन्धी पदों की सरल शैली। 

2. बाल लीला तथा गोपी वर्णन सम्बन्धी पदों की मधुर शैली।

3. दृष्ट सम्बन्धी अस्पष्ट और दुरूह शैली।

(3) रस-छन्द-अलंकार : सूर की रचनाओं में वातसल्य, श्रृंगार (संयोग और वियोग ) तथा शान्त रस का विशेष वर्णन हुआ है। कहीं-कहीं हास्य, करुण, बीर और रौद्र रस के भी वर्णन मिल जाते हैं।

अलंकारों की दृष्टि से सूर की रचनाओं में अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, स्मरण आदि अलंकारों का वर्णन हुआ है। सूर का काव्य अलंकार को दृष्टि में रखकर नहीं किया गया है। उसमें अलंकार स्वाभाविक ढंग से आ गये हैं, अतः काव्य में अलंकार बोझिल नहीं प्रतीत होते।

सूर ने अपनी रचनाओं में मुक्तक गेय पदों का प्रयोग किया है जो विभिन्न राग-रागिनियों में बंधे हुए हैं जिन्हें गेय पद शैली का गीतिकाव्य कहा जा सकता है। 

साहित्य में स्थान : वात्सल्य और श्रृंगार में महाकवि सूर हिन्दी के श्रेष्ठ कवि हैं। ब्रज़ भाषा को हिन्दी काव्य साहित्यिक रूप प्रदान करने का श्रेय सूर को ही है; जैसे-

सूर सूर तुलसी ससी, उद्गन केशवदास। 

अब के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करत प्रकाश ।।

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