निर्धनता क्या है भारत में निर्धनता के कारण और निवारण

भारत को अंग्रेजों ने 'सोने की चिड़िया' कहा है क्योंकि इसके पास प्राकृतिक संसाधनों के साथ-साथ उर्वर भूमि एवं पर्याप्त अन्य साधन भी हैं। इसके बाद भी आज स्वतन्त्र भारत के 56 वर्ष बीत जाने के बाद यहाँ निर्धनता बरकरार ही नहीं है बल्कि दिनों दिन भयावह होती जा रही है। आज वैश्वीकरण में संचार क्रान्ति वैज्ञानिक तकनीक ने हर कुछ सम्भव बना दिया है परन्तु सम्भव साबित होने वाली 'निर्धनता निवारण' को इसने असम्भव बना दिया है। एक विषमयकारी तथ्य है कि भारत में इतना उत्पादन हो रहा है कि तमाम नागरिकों को उत्तम भोजन एवं वस्त्र उपलब्ध कराया जा सकता है लेकिन ऐसा क्यों नहीं होता है ? आज भारत की अधिकांश जनसंख्या को दोनों वक्त की सूखी रोटी नसीब क्यों नहीं होती है? इन सभी प्रश्नों की जानकारी 'निर्धनता निवारण' के निष्पक्ष अवलोकन के बाद ही सम्भव है।

निर्धनता की अवधारणा एवं परिभाषा

निर्धनता या गरीबी का सम्बन्ध जीवन स्तर या रहन-सहन से है। वह व्यक्ति निर्धन है जिसकी न्यूनतम आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं होती हैं जिसे पौष्टिक भोजन, साधारण वस्त्र के साथ-साथ आवास की समस्या से जूझना पड़ता है। उसे रहने के लिए मकान तो है ही नहीं, उसके लिए पानी, बिजली, शिक्षा एवं अस्पताल जैसी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। उसे दोहरी मार झेलनी पड़ती है- एक गरीबी की तो दूसरी समाज की। गरीबी के चलते वह पूरे परिवार के साथ अलगाव से पीड़ित रहता है तो दूसरी ओर सामाजिक उत्पीड़न एवं शोषण का शिकार होता है।

निर्धनता केवल भारत की ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की समस्या है तथा निर्धनता निवारण की चुनौती ऐसे सभी देशों के समक्ष है जो निर्धन हैं। जहाँ तक निर्धनता को परिभाषित करने का प्रश्न है तो भारत के सन्दर्भ में इसे सापेक्षिक रूप में परिभाषित करने का प्रयास किया जाता रहा है।

खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) जो संयुक्त राष्ट्र संघ के विशिष्ट अभिकरण हैं, के प्रथम निदेशक लॉर्ड बॉयड ओर (Lord Boyad Orr) ने कहा है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन 2,300 कैलोरी से कम उपभोग करता है, वह गरीबी रेखा के अन्तर्गत आता है।

भारत में योजना आयोग के द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति उपभोग 2.400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्रों में 2,100 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के आधार पर दरिद्रता रेखा को निर्धारित किया गया है। योजना आयोग के द्वारा निर्धनता को आय से भी जोड़ा है। योजना आयोग के आंकलन को वर्तमान मूल्य स्तर पर आधारित करते हुए 13,260 रु. मामीण क्षेत्रों में तथा 14,800 रु. शहरी क्षेत्रों में कम से कम वार्षिक पारिवारिक व्यय होने चाहिए। जिस परिवार में इनसे कम होता है, उसे गरीबी रेखा से नीचे का परिवार (Below the Poverty Line Family) माना जाता है।

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भारत में गरीबी का अध्ययन

भारत में गरीबी की तस्वीर को पूर्णतः वास्तविक रूप में प्रस्तुत करना मुश्किल है। फिर भी विद्वानों के विचारों एवं नवीन शोधों से एक अनुमान तो लगाया ही जा सकता है। इस सम्बन्ध में ऐसे विचार देने वाले पी. डी. ओझा, डाकोस्टा, दाण्डेकर एवं दथ और प्रो. बी. एस. मिन्हास आदि प्रमुख हैं। इनमें डी. टी. लकड़ावाला का अनुमान सर्वाधिक सही मालूम पड़ता है। लकड़वाला फार्मूला के अनुसार देश में गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों की संख्या 30 करोड़ के आस-पास है।

भारत में निर्धनता के कारण 

भारत में निर्धनता निवारण के लिए किये गये प्रयास के अवलोकन से पूर्व निर्धनता के कारण का अवलोकन आवश्यक है। आखिर वे कौन से कारण हैं जिनके कारण भारत में आज भी गरीबी बनी हुई है और आने वाले दिनों में और भयावह रूप धारण करने वाली है।

(1) निर्धनता निवारण के राजनीतिक एवं आर्थिक प्रतिमान गलत 

1947 में भारत के स्वतन्त्र होने के बाद व्यापक गरीबी, बेकारी और विषमताएँ कायम थीं जिनके निवारण के लिए वैज्ञानिक, आर्थिक एवं राजनीतिक प्रतिमान की आवश्यकता थी परन्तु नेहरू के नेतृत्व में उदारवादी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था एवं मिश्रित आर्थिक व्यवस्था को अपनाया गया जिससे सही रूप में निर्धनता निवारण सम्भव नहीं हो पाया। स्पष्टतः निर्धनता निवारण के लिए जिस राजनीतिक एवं आर्थिक प्रतिमान की आवश्यकता थी, उसको नजरगन्दाज करने से हो भारत में गरीबी ने और भयावह रूप में अपनी जड़ जमा ली।

(2) राजनीतिक निष्क्रियता 

किसी भी देश में विकास के लिए राजनीतिक नेतृत्व को उत्तरदायी ठहराया जाता रहा है। भारत में निर्धनता निवारण सफल न होने के पीछे भी राजनीतिक नेतृत्व को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। अब तक भारत को जितने भी नेतृत्व मिले हैं, वैसा व्यक्तित्व नहीं मिल पाया है जिसके द्वारा सही रूप में निर्धनता निवारण का प्रयास किया गया हो। ऐसे इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा निर्धनता-निवारण हेतु प्रयास ही नहीं किये गये हैं। इन्दिरा गाँधी के द्वारा 1972 के चुनाव में गरीबी को मुख्य मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा गया और अपार जीत के बन्द भी निर्धनता निवारण के खास प्रयास नहीं किये गये।

(3) राजनीतिक आधुनिकीकरण एवं विकास का अभाव 

जब तक किसी भी देश में राजनीतिक आधुनिकीकरण एवं राजनीतिक विकास को प्राप्त नहीं किया जाता, तब तक पूर्णतः गरीबी निवारण असम्भव है। दूसरी ओर, जब तक गरीबी को कम नहीं किया जाता, तब तक राजनीतिक आधुनिकीकरण एवं राजनीतिक विकास को पाना असम्भव है। स्पष्ट है कि राजनीतिक आधुनिकीकरण और राजनीतिक विकास की अवधारणा गरीबी समाप्ति से जुड़ी हुई अवधारणा है। भारत में हमेशा ही राजनीतिक आधुनिकीकरण और राजनीतिक विकास के लक्षण निर्धारित किये जाते रहे हैं लेकिन उन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण सोपान निर्धनतः निवारण को ही ध्यान में नहीं लाया जाता। राजनीतिक आधुनिकीकरण एवं विकास के लिए शिक्षा एवं उससे जुड़ी अवधारणा जनजागरूकता का भी अभाव रहा है। इसके प्रति सरकारी निष्क्रियता को ज्यादा दोषी ठहराया जा सकता है।

(4) जनजागरूकता में कमी 

भारत में शिक्षा की कमी है और इस कमी ने जनता के बीच निष्क्रियता को बढ़ाया है अर्थात् जनजागरूकता में कमी आयी है। भारत में निर्धनता निवारण अगर सफल नहीं हुआ है तो इसके लिए गरीबी भी कम दोषी नहीं है। भारत के गरीबों के बीच अपने तक के लिए लड़ने की प्रवृत्ति नहीं है। ये गरीबी को ईश्वरीय देन समझते हुए अपनी नियति मान बैठे हैं और इसी का परिणाम होता है कि निर्धनता जस की तस बनी रह जाती है। जनजागरूकता की कमी ही कहीं जायेगी कि एक गरीब शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के बाद भी काम करना नहीं चाहता। भीख माँगकर जीवन-यापन करना ज्यादा बेहतर समझता है। उसे लड़ने की बात सिखाने के बाद भी वह लड़ता नहीं है।

(5) जनसंख्या विस्फोट

भारत में निर्धनता निवारण के मार्ग में जनसंख्या विस्फोट को एक महत्वपूर्ण बाधा के रूप में रखा जा सकता है। भारत में जिस गति से निर्धनता निवारण के प्रयास किये गये हैं, उससे ज्यादा जनसंख्या ने अपना विस्फोटक रूप बनाया है। भारत में शिक्षा की कमी, बेरोजगारी, धार्मिक अन्धविश्वास, गर्म जलवायु, कम उम्र में विवाह जैसे कारकों ने जनसंख्या को विस्फोटक रूप दिया है और सरकार के द्वारा इस विस्फोट को रोकने के लिए कठोर प्रयास नहीं किये गये हैं। इन्दिरा गाँधी के समय में निश्चित रूप से इस विस्फोट को रोकने के लिए कठोर प्रयास किये गये लेकिन तानाशाही के नाम पर इन्दिरा गाँधी के इस कार्यक्रम का जबर्दस्त विरोध किया गया। भारत में समुदाय विशेष के लोग अनावश्यक भय से बचने के लिए एवं अन्ध विश्वास पर भी जनसंख्या नियन्त्रण के उपायों से बचते रहते हैं। भला, ऐसे देश में पूर्णतः निर्धनता को समाप्त कैसे किया जा सकता है।

(6) पूँजी का अभाव 

निर्धनता निवारण के सफल न होने का एक कारण यहाँ पूँजी का अभाव होना है। पूँजी के बगैर किसी भी योजना को सफल नहीं बनाया जा सकता। स्वतन्त्र भारत को आज तक पूँजी के अभाव से जूझना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में गरीबी को दूर करना असम्भव जान पड़ता है। भारत में पूँजी का अभाव तो है ही, साथ ही पूँजी काले धन के रूप में व्यक्ति विशेष एवं वर्ग विशेष के पास कैद है। इस कारण भी भारत में गरीबी बरकरार है।

(7) सामाजिक गतिरोध की स्थिति 

भारत में जाति, भाषा, क्षेत्र एवं धर्म के नाम पर सामाजिक गतिरोध की स्थिति कमोबेश हमेशा ही कायम रही है। इस सामाजिक गतिरोध की स्थिति में प्रशासन के लिए निर्धनता निवारण जैसे विकासात्मक कार्य को स्थगित कर कानून एवं व्यवस्था की बहाली को अनिवार्य बनाना पड़ता है। भारत में मिश्रित संस्कृति है जिनके बीच सांस्कृतिक सौहार्द्र की कमी देखी जा रही है। लोगों के बीच परम्परागत तत्वों की भूमिका ने प्रेम की जगह घृणा को बढ़ाया है जिससे गरीबी के मूल में देखा जा सकता है। जब तक सामाजिक सौहार्द्र की स्थापना नहीं हो पाती, तब तक निर्धनता निवारण को सफल बनाना असफल जान पड़ता है। कहना न होगा कि भारत में सामाजिक गतिरोध की दरार को राजनीतिक दलों ने बढ़ाया है, अपने दलीय खर्च के लिए। जब तक राजनीतिक दलों की यह प्रवृत्ति बनी रहेगी, तब तक निर्धनता-निवारण को सफल बनाना असम्भव है।

(8) प्राकृतिक प्रकोप और अकाल 

भारत की अर्थव्यवस्था कृषि-प्रधान है। कृषि से जुड़े लोग जो गाँव में रहते हैं, बहुत हद तक कृषि पर ही आश्रित होते हैं। आज भी भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर रहती है। यह इतना अधिकांशतः सत्य है कि "भारतीय अर्थव्यवस्था मानसून के साथ खेला गया जुआ है।" भारतीय कृषि को प्राकृतिक प्रकोप का सामना करना पड़ता है। कभी बाढ़, कभी सूखा तो कभी तूफान केवल भारतीय कृषि को ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय जनजीवन को विपरीत रूप से प्रभावित करता है। भारत में गरीबी को बढ़ाने में सन् 1943, सन् 1946 एवं बाद की बहुत-सी प्राकृतिक आपदा ने नकारात्मक भूमिका निभायी है।

(9) नवीन तकनीकों का अभाव 

आज भी भारत में उत्पादन की परम्परागत तकनीकों का इस्तेमाल हो रहा है जिससे उत्पादन की गति काफी धीमी है। यह भी गरीबी के लिए काफी हद तक उत्तरदायी है। नवीन तकनीकों के अभाव का एक प्रमुख कारण पूँजी विनियोग में कमी, श्रमिकों द्वारा उत्पन्न की गयी बाधाओं के साथ-साथ कुशल एवं प्रशिक्षित श्रम की कमी इसकी प्रमुख बाधाओं में शामिल हैं। जब तक भारतीय उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र में नवीन तकनीकों का अभाव बना रहेगा, तब तक निर्धनता निवारण असम्भव है।

भारत के द्वारा निर्धनता निवारण के लिए नवीन तकनीक के विकास पर बहुत ही कम ध्यान दिया जा रहा है। इसका परिणाम है कि भारत में गरीबी घटने के बजाय बढ़ती जा रही है।

(10) उदारीकरण एवं वैश्वीकरण

भारत में निर्धनता 1990 के पहले भी राष्ट्र-निर्माण के मार्ग में एक महत्वपूर्ण बाधा थी लेकिन 1990 के बाद इसे उदारीकरण एवं वैश्वीकरण ने और ही बढ़ा दिया है। उदारीकरण एवं वैश्वीकरण एक पूँजीवादी पद्धति एवं हथियार है जिसके द्वारा प्राइवेट प्रोपर्टी को ही किसी न किसी रूप में बढ़ावा दिया जाता है। जब तक प्राइवेट प्रोपर्टी को बढ़ावा दिया जाता रहेगा, तब तक गरीबी जैसी भयावह समस्या से मुक्ति मिल ही नहीं सकती। आज भारत के द्वारा अमरीका के नेतृत्व में उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की प्रक्रिया एवं प्रतियोगिता में जोरदार रूप में भाग लिया जा रहा है जो गरीबी निवारण के मार्ग में पूर्णतः प्रतिकूल कदम है।

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भारत में निर्धनता निवारण के सरकारी प्रयास

भारत में गरीबी के निदान के लिए नियोजन पद्धति का सहारा लिया गया है तथा सरकारी स्तर पर अन्य कई प्रयास भी किये गये हैं। भारत में पंचवर्षीय योजनाओं का मुख्य उद्देश्य आर्थिक विकास की गति तेज कर आम लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाना रहा है। छठी पंचवर्षीय योजना में विकास की दर 5.4 प्रतिशत और सातवीं पंचवर्षीय योजना में विकास की दर 5.6 प्रतिशत रही। जहाँ तक इन योजनाओं में कृषि के विकास दर का सवाल है तो यह 4 प्रतिशत रहा है, जबकि औद्योगिक विकास दर 8 प्रतिशत रही है। आठवीं पंचवर्षीय योजना में औसत विकास दर 6.8 प्रतिशत वार्षिक रही। नवीं पंचवर्षीय योजना में आर्थिक विकास दर 7 प्रतिशत रखी गयी थी। दसवीं पंचवर्षीय योजना में 8 प्रतिशत आर्थिक विकास दर को लक्ष्य बनाया है।

भारत में निर्धनता निवारण के लिए धन एवं आय के वितरण में समानता स्थापित करने का प्रयास किया गया है। इसके लिए जहाँ एक तरफ प्रगतिशील करारोपण से वितरण के क्षेत्र में समानता का प्रयास किया गया है, वहीं दूसरी ओर, शहरी सम्पत्ति की अधिकतम सीमा निर्धारण कर अतिरिक्त को जनता के हित में व्यय किया जाता है। आय में समानता के लिए रोजगार में वृद्धि की नीति को अपनाया जाता रहा है।

भारत में निर्धनता निवारण के जनसंख्या पर प्रभावी नियन्त्रण स्थापित करने का असफल प्रयास किया है। भारत के ग्रामीण जीवन में व्याप्त निर्धनता को दूर करने के लिए भारत सरकार तथा राज्य सरकारों द्वारा भूमि विवाद को दूर करने का आंशिक प्रयास किया गया है। सरकार के द्वारा कृषकों को भू-स्वामित्व अधिकार ही नहीं दिये गये बल्कि काश्तकारी अधिनियमों के द्वारा भू-धारण की सुरक्षा, बेदखली और ऊंचे लगान पर नियन्त्रण लगाया गया है। कुछ राज्य सरकारों द्वारा गौरमजुरुआ जमीन को गरीबों के बीच बाँटकर निर्धनता-निवारण के मार्ग में महत्वपूर्ण कदम उठाया गया है।

भारत में गरीबों को राहत पहुँचाने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अपनाया गया है। इस प्रणाली के माध्यम से आवश्यक वस्तुओं को उचित मूल्यों पर गरीबों को उपलब्ध कराया जाता है।

भारत में निर्धनता निवारण के लिए कुछ विशिष्ट कार्यक्रम प्रारम्भ किये गये हैं-

  1. समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम (Integrated Rural Development Programme IRDP),
  2. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम (National Rural Employment Programme-NREP),
  3. ग्रामीण भूमिहीन मजदूर रोजगार गारण्टी कार्यक्रम (Rural Landless Employment Guarantee Programme-RLEGP) तथा
  4. जवाहर रोजगार योजना (Jawahar Rozgar Yojana-JRY)।

1970 के दशक में सरकार द्वारा गरीबों की सहायता के लिए अनेक कार्यक्रम प्रारम्भ किये गये, जैसे-

  • लघु किसान विकास एजेंसी (Small Farmer Development Agency),
  • सीमान्त किसान व खेतिहर मजदूर विकास एजेंसी (Marginal Farmers and Agriculturai Labourer Development Agency),
  • सूखा सम्भाव्यता क्षेत्र कार्यक्रम (Drought Prone Area Programme),
  • ग्रामीण रोजगार का पुरजोर कार्यक्रम (Crash Scheme for Rural Employment), 
  • आरम्भिक गहन ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम (Pilot Intensive Rural Employment Project),
  • काम के बदले अनाज कार्यक्रम (Food for Work Programme)।

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