लेखांकन सिद्धांत का अर्थ, परिभाषा, विशेषतायें, प्रकृति तथा महत्व

लेखांकन व्यवसाय की भाषा है। व्यवसाय से सम्बन्धित सूचनाएँ वित्तीय विवरणों के माध्यम से ही व्यवसाय के स्वामी, प्रबन्धक, विनियोजक, लेनदार, अंकेक्षक, स्कन्ध-विपणि सरकारी अभिकरणों आदि को प्रदान की जाती है. अत: व्यावसायिक लेनदेनों के अभिलेखन, वर्गीकरण, संक्षेपीकरण, व्याख्या एवं निर्वचन के लिए लेखापाल के पास सिद्धान्तों का एक समूह होना आवश्यक है, ताकि लेखांकन में हित रखने वाले सभी पक्षकार इसका एक ही अर्थ लगा सके। 

लेखांकन सिद्धान्तों का निर्माण स्वयं मनुष्य ने किया है तथा आवश्यकतानुसार उसमें परिवर्तन भी किया है। अतः पैटन एवं लिटिलटन ने सिद्धान्तों के स्थान पर मानकों अथवा प्रमापों के उपयोग की सलाह दी है क्योंकि सिद्धान्त सामान्यतः सार्वभौमिक एवं स्थायित्व की मात्रा  दर्शाते है जोकि एक मानवीय सेवा संस्थान के लेखांकन में विद्यमान नहीं होता।

लेखांकन सिद्धान्त का अर्थ 

"सिद्धान्त' शब्द का प्रयोग किसी क्रिया को अपनाने के लिए बनाए गये सामान्य नियम अथवा कानून के लिए किया जाता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे नियम एवं प्रथाएँ जो लेखांकन मार्ग दर्शक का कार्य करती है, लेखांकन सिद्धान्त कहलाती है।"

परिभाषा 

आक्सफोर्ड एडवान्स्ड लर्नर्स डिक्शनरी में- "सिद्धान्त' शब्द का अर्थ मूलभूत सत्य, कारण और प्रभाव का सामान्य नियम, व्यवहार का निर्देशक नियम के रूप में प्रतिपादन किया गया है।"

अमेरिकन इन्स्टीट्यूट ऑफ सर्टिफाइड पब्लिक एकाउन्टेन्टस की लेखांकन शब्दावली बूलेटिन के- "सिद्धान्तों को गतिविधि के मार्गदर्शक, व्यवहार अथवा संचालन के आधार की तयशुदा पृष्ठभूमि के रूप में परिभाषित किया है।"

ए. डब्ल्यू. जॉन्सन (A. W. Johnson) के अनुसार- "व्यापक बोलचाल की भाषा में लेखांकन के नियम तथा मान्यताएँ, लेखांकन को कार्यविधियाँ और तरीके तथा लेखांकन के वास्तविक व्यवहार में इन, नियमों, कार्यविधियों तथा तरीकों का प्रयोग ही लेखांकन के सिद्धान्त है।"

राबर्ट एन. एन्थोनी (Robert N. Anthony) के अनुसार- ''लेखा विधि के नियमों एवं प्रथाओं को सामान्यतः लेखांकन सिद्धान्त माना है।''

फिनले एवं मिलर (Finley & Miller) के अनुसार- "लेखांकन के सिद्धान्तों को अवधारणाओं, परम्पराओं, प्रमापी आदि शब्दों से सम्बोधित करना अधिक उचित माना है।" 
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि "लेखाकार द्वारा वित्तीय विवरण एवं खाते तैयार करते समय प्रयुक्त नियम लेखांकन सिद्धान्त कहलाते हैं।" 
दूसरे शब्दों में- "लेखांकन  सिद्धान्तों का आशय लेखांकन में मार्गदर्शन के लिए तथा व्यवहार के आधार के रूप में सर्वस्वीकृत सामान्य नियमों से है जो समय में हुए बदलाव के साथ बदल जाते है।"

लेखांकन सिद्धान्तों की विशेषताएँ

लेखांकन सिद्धान्तों की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार है।

(1) लेखांकन सिद्धान्त भौतिक, रसायन अथवा अन्य प्राकृतिक विज्ञान के सिद्धान्तों की भाँति अपरिवर्तित एवं सार्वभौमिक सत्य पर आधारित नहीं है। इन पर देश, काल तथा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। 

(2) लेखांकन सिद्धान्त तीव्र गति से विकासशील है।

(3) लेखांकन सिद्धान्त आधारभूत अवधारणाओं, स्वयं-सिद्धियों, परम्पराओं एवं मान्यताओं के आधार पर विकसित हुए हैं।

(4) लेखांकन के सिद्धान्त मनुष्य द्वारा निर्मित एवं विकसित किये गये हैं।

(5) लेखन सिद्धान्त किसी लिखित कानून द्वारा प्रतिपादित नहीं होते। ये लेखाकारों के अनुभवों, अंकेक्षक, प्रबन्धक, सरकारी एजेन्सियों, पेशेवर संस्थाओं द्वारा किये गये विधिवत विश्लेषण के आधार पर प्रतिपादित होते है।

(6) सरकार लेखांकन सिद्धान्त बनाने का कार्य नहीं करती, किन्तु अधिनियम अथवा नियम बनाते समय इस पर अवश्य ध्यान रखती है।

(7) लेखांकन सिद्धान्तों पर व्यापक स्वीकृति प्राप्त होती है।
 
(8) लेखांकन सिद्धान्त लेखों की उपयोगिता बढ़ाने में सहायक होते हैं।
 
(9) लेखांकन सिद्धान्त सरलतापूर्वक व्यवहार में लाये जा सकते हैं तथा इसके प्रयोग में लाने से कोई कठिनाई नहीं होती।

(10) लेखांकन सिद्धान्त वास्तविक तथ्यों पर आधारित होते हैं।

(11) लेखांकन सिद्धान्तों को व्यवसाय का संगठनात्मक स्वरूप, व्यवसाय की आवश्यकता, कानूनी व्यवस्थाएं, विनियोजक, लेनदार आदि के विचार भी प्रभावित करते हैं।
 
(12) लेखांकन सिद्धान्त प्रायः सभी देशों द्वारा अपनाये जाते हैं, किन्तु इनमें समानता हो यह आवश्यक नहीं है। यद्यपि उद्देश्य में समानता बनी रहती है।
 
(13) पेशेवर संस्थाएँ लेखांकन सिद्धान्तों को बढ़ावा प्रदान करती हैं।
 
(14) लेखांकन सिद्धान्तों की आम सहमति प्रायः कर्म-विषयता (Objectivity), अनुरूपता (Relevance) एवं साध्यता (Feasibility) के मापदण्ड को पूरा करने की सीमा से आँकी जाती है।

लेखांकन सिद्धान्तों की प्रकृति

अमेरिका में लेखांकन सिद्धान्तों को प्रकट करने के लिए एक समिति की स्थापना की गई थी जिसमे हेनरी रैण्ड हैटफील्ड, अण्डरहिल मूर तथा वामस हैनरी सैण्डर्स सम्मिलित थे। इस समिति ने 1935 में अपना कार्य प्रारम्भ किया।

उक्त समिति ने लेखाकारों, विद्वानों, समिति प्रमुखों से साक्षात्कार एवं पत्र व्यवहार कर चालू विचार- धाराओं का सही ज्ञान प्राप्त किया। लेखांकन साहित्य, लेखांकन सम्बन्धी नियमों, अधिनियमों, निर्णयों, कम्पनी अक्षक के प्रतिवेदनों आदि का अध्ययन कर लेखांकन की प्रकृति के सम्बन्ध में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले -

(1) लेखांकन सिद्धान्तों की प्रकृति लोचपूर्ण है।

(2) लेखांकन सिद्धान्तों का निर्माण मनुष्य द्वारा स्वयं किया गया है अतः इसकी सत्यता की जाँच प्रयोगशाला में अन्य प्राकृतिक विज्ञानों के सिद्धान्तों की भाँति प्रयोग कर नहीं की है ।

(3) लेखांकन सिद्धान्त पेशेवर संस्थाओं एवं सरकार द्वारा भी प्रभावित होते हैं।

लेखांकन सिद्धान्तों का महत्व

लेखांकन सिद्धान्त भौतिक, रसायन अथवा अन्य प्रकृति विज्ञान की भाँति पूर्ण सत्य एवं निश्चित नहीं है, फिर भी ये महत्वपूर्ण बने हुए हैं। इसके महत्व को निम्नानुसार स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) लेखों में एकरूपता 

लेखा पुस्तकों में व्यवहारों का सुव्यवस्थित उल्लेख लेखांकन सिद्धान्तों के आधार पर ही सम्भव है। इससे लेखों में एकरूपता बनी रहती है। लेखांकन सिद्धान्तों के अभाव में सभी पक्षकार अपने-अपने ढंग से व्यवहारों को उल्लेखित कर अन्तिम खाते तैयार कर उनका विश्लेषण करेंगे। इससे व्यवसाय की शुद्ध लाभ-हानि की जानकारी तथा वास्तविक आर्थिक स्थिति स्पष्ट नहीं हो सकेगी।

(2) लेखापाल पर नियन्त्रण 

लेखांकन सिद्धान्तों के प्रयोग से लेखापाल लेखांकन कार्य में पक्षपातपूर्ण एवं मनमाने ढंग से निर्णय नहीं ले पाते परिणामस्वरूप खाते निश्चित, विश्वसनीय एवं विषयपरक होते है।

(3) वास्तविक स्थिति का ज्ञान 

वर्तमान में व्यापारिक कार्यकलापों से केवल व्यवसाय का स्वामी ही जुड़ा नहीं रहता वरन् लेनदार, विनियोगकर्ता, सरकार, बैंक एवं बीमा कम्पनियाँ आदि भी व्यवसाय से जुड़कर व्यावसायिक गतिविधियों पर नजर रखती है। लेखांकन सिद्धान्तों के सही उपयोग से ही इन्हें वास्तविक लाभ-हानि की जानकारी तथा सच्ची आर्थिक स्थिति की जानकारी प्राप्त हो पाती है। साथ ही महत्वपूर्ण सूचनाओं के छिपाये जाने की सम्भावना कम होती है।

(4) पथ-प्रदर्शक अथवा मार्गदर्शक का कार्य 

लेखांकन सिद्धान्त लेखापाल के पथ-प्रदर्शक का कार्य करते हैं। इससे लेखाविधियों में एकरूपता दिखाई पड़ती है तथा निश्चित अवधि के अन्त में लाभ-हानि खाता एवं चिट्ठा सरलतापूर्वक तैयार किया जा सकता है।

(5) व्यावसायिक प्रगति की जानकारी 

लेखांकन सिद्धान से गत वर्ष के खातों की तुलना चालू वर्ष के खातों से कर व्यावसायिक प्रगति की जानकारी सरलतापूर्वक प्राप्त की जा सकती है।

(6) लेखांकन सिद्धान्तों का अनिवार्य न होते हुए भी आवश्यक होना 

लेखांकन सिद्धान्तों के पालन की अनिवार्यता के लिए पृथक से कोई नियम अथवा अधिनियम नहीं बनाये जाते और न ही लेखापालों की सभाओं में इन्हें अनिवार्य बनाये जाने का प्रस्ताव पारित किया जाता है फिर भी लेखापाल इन्हें महत्वपूर्ण मानकर अपने प्रतिवेदनों में इसका स्पष्ट उल्लेख करते हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि लेखांकन के सिद्धान्त अनिवार्य न होते हुए भी आवश्यक प्रतीत होते है।

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