खेल का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, खेल व कार्य में अन्तर, तथा खेल के प्रकार

    खेल का अर्थ 

    "सामान्य स्वाभाविक प्रवृत्तियों (General Innate Tendencies) ने खेल की प्रवृत्ति सबसे अधिक व्यापक और महत्वपूर्ण है। नालन्दा विशाल शब्द-सागर के अनुसार, खेल' का सामान्य अर्थ है-  चित्त की उमंग या मन बहलाव या व्यायाम के लिए इधर-उधर उछल-कूद, दौड़-धूप या कोई साधारण कृत्य । मनोवैज्ञानिकों ने खेल का अर्थ निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया है-

    खेल की परिभाषा 

    मैक्डूगल के अनुसार - "खेल स्वयं अपने लिए की जाने वाली एक क्रिया है या खेल एक निरुद्देश्य क्रिया है, जिसका कोई लक्ष्य नहीं होता है।"

    हरलॉक के अनुसार - "अन्तिम परिणाम का विचार किये बिना कोई भी क्रिया जो उससे प्राप्त होने वाले आनन्द के लिए की जाती है. खेल है।"

    क्रो व क्रो के अनुसार - "खेल की उस क्रिया के रूप में परिभाषा की जा सकती है. जिसमें एक व्यक्ति उस समय व्यस्त होता है, जब वह उस कार्य को करने के लिए स्वतंत्र होता है, जिसे वह करना चाहता है।" 

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    खेल की विशेषताएँ

    रायबर्न (Ryburn, W. M.) के अनुसार- "खेल एक साधन है जिसका उपयोग दूसरे स्व (Self) द्वारा उस समय किया जाता है, जब हमारी विभिन्न मूलप्रवृत्तियाँ अपने आप को प्रकाश में लाने की चेष्टा करती है।" खेल के द्वारा हमारी अनेक मूलप्रवृत्तियों तथा सहज प्रवृत्तियों का शोधन होता है। खेलों की विशेषताएँ इस प्रकार है-

    1. खेल एक जन्मजात और स्वाभाविक प्रवृत्ति है 

    2. खेल, स्वतन्त्र और आत्मप्रेरित होता है।

    3. खेल, स्फूर्ति और आनन्द प्रदान करता है।

    4. खेल में कुछ सीमा तक रचनात्मकता (Creativeness) होती है। 

    5. खेल का क्रिया के सिवा और कोई उद्देश्य नहीं होता है।

    6. भाटिया (Bhatia) के अनुसार खेल स्वयं खेल के लिए खेला जाता है।

    7. क्रो व क्रो (Crow and Crow) के अनुसार खेल. बालक की सम्पूर्ण रुचि और ध्यान को केन्द्रित कर लेता है।

    8 ड्रेवर (Drever) के अनुसार खेल एक शारीरिक और मानसिक क्रिया है। खेल के विषय में कार्लस ने कहा है- खेल एक साधन है किन्तु मैं यह नहीं बता सकता कि उसका लक्ष्य क्या है? केवल खेल ही उसका लक्ष्य हो सकता है। अतः खेल जन्मजात सहज प्रवृत्ति है और इसका लक्ष्य आनन्द प्राप्ति है।

    खेल व कार्य में अन्तर

    कार्य का अर्थ है किसी विशेष भौतिक लक्ष्य की पूर्ति हेतु की जाने वाली क्रिया। खेल को भी कुछ लोग कार्य की श्रेणी में रखते हैं। खेल उसी समय कार्य हो सकता है जब वह धन कमाने के लिये किया जा रहा हो। अतः खेल तथा कार्य में अन्तर इस प्रकार है-

    1. खेल का उद्देश्य मनोरंजन होता है। कार्य का उद्देश्य मनोरंजन नहीं होता है। 

    2. क्रो एवं क्रो (Crow and Crow) के अनुसार खेल का उद्देश्य उसकी क्रिया में निहित रहता है। कार्य का उद्देश्य किसी भावी बात में निहित रहता है। 

    3. खेल का सम्बन्ध साधारणतः काल्पनिक जगत् से होता है। कार्य का सम्बन्ध वास्तविक जगत् से होता है।

    4. खेल, आयु बढ़ने के साथ कम होता है। कार्य. आयु बढ़ने के साथ बढ़ता है।

    5. खेल से केवल खेलने वाले को लाभ होता है। कार्य से दूसरे लोगों को भी लाभ होता है। 

    6. खेल से आनन्द प्राप्त होता है कार्य से आनन्द प्राप्त होना आवश्यक नहीं है।

    7. खेल बन्द करवाने से बालक में क्रोध और दुःख उत्पन्न होते हैं कार्य बन्द करवाने से उसमें ये भावनायें उत्पन्न नहीं होती है।

    8. खेल में बालक किसी प्रकार के बन्धन का अनुभव नहीं करता है। कार्य में वह बन्धन का अनुभव करता है।

    9. रॉस (Ross) के अनुसार खेल, बालक की स्वयं की इच्छा पर निर्भर रहता है। कार्य में उसे दूसरे की इच्छा पर आश्रित रहना पड़ता है।

    10. ड्रेवर (Drever) के अनुसार-खेल में क्रिया का महत्व स्वयं-क्रिया में होता है। कार्य में क्रिया का महत्व किसी अन्य बात में होता है 

    हमने परिलिखित पंक्तियों के सामान्य रूप से खेल और कार्य में पाये जाने वाले अन्तर को अक्षरबद्ध करने की चेष्टा की है और इसके समर्थन में कुछ मनोवैज्ञानिकों के विचारों को भी अंकित किया है। पर यथार्थता यह है कि खेल और कार्य के मध्य विभाजन की कोई निश्चित रेखा नहीं खींची जा सकती है। दोनों की सीमायें एक-दूसरे को आच्छादित करती है. एक-दूसरे पर अतिक्रमण करती है। 

    कारण यह है कि जो एक व्यक्ति के लिये कार्य है, वह दूसरे व्यक्ति के लिए खेल है, उदाहरणार्थ, प्राचीन वस्तुओं का संग्रह, बालक के लिए खेल, वयस्क के लिए प्रिय व्यापार (Hobby) और उनको बेचने वाले के लिये कार्य हो सकता है। इसी प्रकार, चित्रकला एक युवक के लिए मनोरंजन का साधन हो सकती है. पर यदि वह उसको अपनी जीविका का आधार बना लेता है, तो वह उसके लिए कार्य का रूप धारण कर लेती है। अतः निष्कर्ष रूप में, हम कह सकते हैं कि खेल और कार्य में स्वयं उनके कारण नहीं, वरन उनके प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण के कारण अन्तर होता है। हरलॉक का मत है-अनेक व्यक्ति, कार्य और खेल में अन्तर करने का प्रयास करते हैं, पर ऐसी कोई भी क्रिया नहीं है, जिसको केवल कार्य या केवल खेल कहा जा सके। यह क्रिया-कार्य है या खेल, यह उसके प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर रहता है।"

    खेल के प्रकार 

    बच्चों के सब खेलों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- 

    (1) वैयक्तिक, और 

    (2) सामूहिक इन दोनों प्रकार के खेलों के आधार पर कार्ल ग्रूस (Karl Groos) ने बालकोपयोगी खेलों का विस्तृत वर्णन किया है। उनमें से पाँच प्रकार के खेल अधिक महत्वपूर्ण है-

    परीक्षणात्मक खेल (Experimental Play)

    इस प्रकार के खेलों में बालक वस्तुओं को उलट-पलट कर देखता है या उनका परीक्षण करता है। इन खेलों का आधार जिज्ञासा की प्रवृत्ति है। ये खेल वैयक्तिक होते हैं। 

    गतिशील खेल (Movement Play)

    इस प्रकार के खेलों में दौड़-भाग, उछल-कूद आदि आते है। ये खेल, शरीर की गति का विकास करते हैं। ये खेल वैयक्तिक और सामूहिक दोनों प्रकार के होते हैं।

    रचनात्मक खेल (Constructive Play)

    इस प्रकार के खेलों में बालक विभिन्न वस्तुओं का निर्माण और ध्वंस करता है. जैसे रेत या मिट्टी के पहाड़, घर, टीले आदि बनाना और बिगाड़ना। इन खेलों का आधार, रचनात्मकता की प्रक्रिया है। ये खेल वैयक्तिक और सामूहिक दोनों प्रकार के होते हैं। 

    लड़ाई के खेल (Fighting Play ) 

    इस प्रकार के खेलों में हार-जीत के खेलों को स्थान दिया जाता है. जैसे- हॉकी, कबड्डी, फुटबाल, मुक्केबाजी आदि। इन खेलों का सामान्य आधार, प्रतियोगिता या युद्धप्रियता होती है ये खेल साधारणतः सामूहिक होते हैं। 

    बौद्धिक खेल (Intellectual Play) 

    इस प्रकार के खेलों का सम्बन्ध बुद्धि से होता है, जैसे-चौपड़, शतरंज, पहेलियाँ आदि। ये खेल, बुद्धि का विकास करते हैं। ये वैयक्तिक और सामूहिक दोनों प्रकार के होते हैं। 

    अन्य प्रकार के खेल (Other Types of Play)

    हरलॉक (Hurlock) ने विभिन्न अवस्थाओं के बालकों के कुछ अन्य प्रकार के महत्त्वपूर्ण खेलों का उल्लेख किया है, यथा- 

    (i) स्वतन्त्र ऐच्छिक खेल (Free Spontaneous Play)- ये खेल, सबसे प्रारम्भिक है। बालक इनको अकेला एवं जब जहाँ और जब तक चाहता है. खेलता है। वह इन खेलों को अपने शरीर के अंगों या खिलौने से खेलता है।

    (ii) झूठ-मूठ के खेल (Make-Believe Play)- इन खेलों में बालक किसी वयस्क के समान कार्य या व्यवहार करता है। वह विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न नाम रखता है और उनसे बातें करता है। 

    (iii) माता-सम्बन्धी खेल (Mother Gumes)-  इन खेलों को बालक अपनी प्रारम्भिक अवस्था में अपनी माता के साथ खेलता है, जैसे-आँखमिचौनी ।

    (iv) संवेगात्मक खेल (Emotional Play)- इन खेलों में बालक विभिन्न संवेगों का अनुभव करता है। और उनके अनुरूप अभिनय करता है, जैसे वीरता का अभिनय ।

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