भारतीय संविधान की विशेषताएं

"मेरा यह विचार है कि यह भारतीय संविधान व्यावहारिक है. इसमें परिवर्तन क्षमता है और इसमें शान्तिकाल और युद्धकाल में देश की एकता को बनाये रखने की सामर्थ्य है। वास्तव में, मैं यह कहना चाहूँगा कि नवीन संविधान के अन्तर्गत यदि स्थिति खराब होती है, तो उसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान बुरा था वरन् हमें यह कहना होगा कि मनुष्य ही बुरा था।" डॉ. भीमराव आम्बेडकर

भारतीय संविधान की विशेषताएं 

संविधान वह प्रारूप है जिसे राज्य ने नागरिकों को स्वच्छ व नियमबद्ध प्रशासन देने के लिए अपनाया। है। प्रत्येक राज्य का किसी न किसी रूप में संविधान अवश्य  होता है और संविधान का यह रूप उस देश की परिस्थितियों के अनुसार होता है। प्रत्येक राज्य की परिस्थितियाँ अलग-अलग होने के कारण उस देश के संविधान की भी अपनी कुछ विशेष बातें होती हैं जिन्हें संविधान की विशेषताएं कहा जा सकता है। भारतीय संविधान के अनेक लक्षण है जिनमें से प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं- 

निर्मित एवं लिखित संविधान 

विश्व के अधिकांश संविधानों की तरह भारत का संविधान भी लिखित एवं निर्मित है। निर्मित संविधान इसलिए कि भारत के संविधान का निर्माण एक विशेष समय और निश्चित योजना के अनुसार संविधान सभा द्वारा किया गया था। लिखित इसलिए कहा जाता है कि इसमें सरकार के संगठन, उसके प्रमुख अंगों एवं कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका का गठन व शक्तियों एवं नागरिकों के मौलिक अधिकारों, कर्तव्यों आदि का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। अतः भारतीय संविधान का निर्मित एवं लिखित होना एक प्रमुख विशेषता है।

संसार का सर्वाधिक विस्तृत संविधान 

भारत का संविधान विश्व के अन्य संविधानों की तुलना में अत्यधिक व्यापक और विस्तृत संविधान है। इसका मुख्य कारण इसमें 395 अनुच्छेद, 22 अध्याय एवं 12 अनुसूचियों हैं, जबकि इसकी तुलना में संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में 7 अनुच्छेद, आस्ट्रेलिया के संविधान में 128, कनाडा के संविधान में 147, चीन के संविधान में 106 और नेपाल के संविधान में 74 अनुच्छेद हैं। भारत के संविधान को इतना अधिक विस्तृत बनाने के कई कारण थे, जैसे- इसमें संघीय संविधान के साथ-साथ राज्यों के संविधानों का भी समावेश है; लोकसेवा आयोग का गठन, कार्य, राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रणाली का विस्तार से वर्णन, नीति निर्देशक तत्व आदि का विस्तृत उल्लेख किया गया है जिसके कारण भारतीय संविधान विस्तृतता उसका महत्वपूर्ण गुण माना जाता है।

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लोक प्रभुता पर आधारित संविधान 

भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इस संविधान को भारत की जनता ने बनाया है और इसमें आन्तिम शक्ति जनता को प्रदान की गई है। इसलिए संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से कह दिया गया था- हम भारत के लोग अंगीकृत और आत्मर्पित करते हैं। यह संविधान इस दृष्टि से भी जाना जाता है इसमें संशोधन करने की अन्तिम इस संविधान की शक्ति भी जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में है। इस प्रकार भारतीय संविधान सन् 1935 के भारतीय शासन अधिनियम की तरह ब्रिटिश संसद या अन्य किसी बाहरी शक्ति की कृति नहीं वरन् जनता द्वारा निर्मित अधिनियम और अंगीकृत है।

समाजवादी राज्य

सन् 1976 के 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी' शब्द जोड़ा गया है। 'समाजवाद राज्य' का अर्थ है कि समस्त नागरिकों को अपनी उन्नति और विकास के लिए समान अवसर प्राप्त होंगे। उत्पादन तथा वितरण आदि सम्पूर्ण समाज का अधिकार होगा। उनका प्रयोग सम्पूर्ण समाज के कल्याण के लिए किया जायेगा। इस तरह भारतीय संविधान एक लोकतान्त्रिक समाजवाद की स्थापना करता है, चीन की तरह समाजवादी समाजवाद की नहीं। यह भारतीय संविधान की महत्तवपूर्ण विशेषता है।

सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य 

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया गया है। जिसका तात्पर्य इस प्रकार है -

सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न का अर्थ है कि भारत अपने आन्तरिक एवं बाह्य क्षेत्रों में पूर्णरूप से स्वतन्त्र है। किसी बाह्य शक्ति के अधीन नहीं है। वह अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में अपनी इच्छानुसार भूमिका का चयन कर सकता है। वह किसी अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि या समझौते को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

लोकतन्त्रात्मक का अर्थ है राज्य की सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित है। जनता को अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करने का अधिकार होगा जो जनता के स्वामी न होकर सेवक होंगे। गणराज्य का आशय यह है कि शासन का अध्यक्ष एक निर्वाचित व्यक्ति हो, भारत एक पूर्ण गणराज्य है क्योंकि भारतीय संघ का अध्यक्ष एक सम्राट न रोकर जनता द्वारा निश्चित अवधि के लिए निर्वाचित राष्ट्रपति है। 

इस प्रकार भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है जो भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषता है।

कठोर एवं लचीले संविधान का सम्मिश्रण 

प्रत्येक संविधान का परिवर्तनशील अथवा अपरिवर्तनशील होना उसकी संविधान प्रक्रिया पर निर्भर होता है। यदि संविधान में संशोधन के लिए कोई विशेष या कठिन प्रक्रिया है तो उसे अपरिवर्तनशील या कठोर संविधान कहते हैं। यदि संविधान संशोधन प्रक्रिया आसान है तो उसे लचीला संविधान कहते हैं। अतः भारतीय संविधान न तो ब्रिटिश संविधान की भाँति अधिक लचीला है और न ही अमेरिकी संविधान की भाँति अधिक कठोर। इसमें संशोधन करने की विधि न अत्यधिक दुष्कर बनाई गई और न ही अधिक सरल। इसमें एक मध्य मार्ग अपनाया गया है, जिसे कठोर एवं लचीले संविधान का सम्मिश्रण कहा जा सकता है। लचीला संविधान इसलिए कि संविधान में कुछ ऐसे उपबन्ध हैं जिनमें संसद साधारण बहुमत से संशोधन कर सकती है। कुछ अनुच्छेदों में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ भारतीय संघ के कम से कम आधे राज्यों की विधान सभाओं की स्वकृति आवश्यक होती है, जैसे- महत्वपूर्ण विषयों में संघ, राज्य एवं समवर्ती सूची में परिवर्तन, राष्ट्रपति की शक्तियाँ, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति, संख्या में परिवर्तन आदि की प्रक्रिया अत्यधिक जटिल है। इस तरह भारतीय संविधान की महत्वपूर्ण विशेषता संविधान का कठोर एवं लचीला होना है। जनवरी, 2009 तक भारतीय संविधान में 94 संशोधन हो चुके हैं।

संघात्मक होते हुए भी एकात्मक 

भारतीय संविधान बाहर से संधात्मक है परन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है। इस प्रकार हमारे संविधान में संघात्मक तथा एकात्मक दोनों प्रकार के संविधानों की विशेषताएँ हैं; जैसे- केन्द्र तथा राज्यों के मध्य शक्ति विभाजन, संविधान को सर्वोच्चता, स्वतन्त्र न्यायपालिका, इस प्रकार की व्यवस्थाओं के कारण भारतीय संविधान संघात्मक है और इसके विपरीत, आपातकाल में संविधान पूर्ण रूप से एकात्मक हो जाता है क्योंकि सम्पूर्ण शक्तियां केन्द्र के हाथ में आ जाती हैं। इसके अतिरिक्त, भारत में इकहरी नागरिकता, एक सी न्याय व्यवस्था और एक-सी अखिल भारतीय सेवाएँ भी एकात्मक संविधान की विशेषताएं हैं। इन सब विशेषताओं के कारण कुछ लेखकों ने भारतीय संघ को अर्द्ध-संधात्मक कहा है। वास्तव में यह ऐसी संघात्मक शासन व्यवस्था है जिसका झुकाव एकात्मकता की ओर है।

संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था 

भारतीय संविधान में संसदीय प्रणाली को अपनाया गया है। इसमें शासन का एक नाममात्र का प्रधान होता है तथा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में पारस्परिक सम्बन्ध धनिष्ठ तथा कार्यपालिका का कार्यकाल निश्चित होता है। ये सभी विशेषताएं संविधान निर्माताओं ने केन्द्र और राज्यों में वर्णित की हैं, जैसे- मन्त्रिमण्डल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है और व्यवस्थापिका में से ही कार्यपालिका का निर्माण किया जाता है। देश का प्रधान राष्ट्रपति नाममात्र का शासक है और कार्यपालिका का कार्य 5 वर्ष निश्चित किया गया है। इस प्रकार संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था भारतीय संविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषता है।

लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना 

भारतीय संविधान में एक लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना का लक्ष्य निर्धारित किया गया जिसमें समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय मिलेगा: भाषण, विचारों की अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होगी और सभी को समान अवसर प्राप्त होंगे जो भारतीय संविधान की एक अनोखी विशेषता है।

संविधान की सर्वोच्चता 

भारतीय संविधान, भारत का सर्वोच्च कानून है। संविधान के विपरीत बनाये गये कानूनों को सर्वोच्य न्यायालय अवैध घोषित कर देता है। यद्यपि गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि संसद ने मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार प्राप्त कर लिया परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि संसद सर्वोच्च है क्योंकि संसद भी इस सम्बन्ध में संविधान की व्यवस्थाओं की सीमाओं के अन्तर्गत ही संशोधन कर सकती है, अर्थात् संविधान ने ही संसद को संशोधन करने का अधिकार प्रदान किया है। अतः संविधान की सर्वोच्चता को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती है। अतः संविधान की सर्वोच्चता भारतीय संविधान की महत्वपूर्ण विशेषता है।

वयस्क मताधिकार 

भारतीय संविधान के अन्तर्गत वयस्क मताधिकार को अपनाया गया है जिसके अनुसार सभी स्त्री-पुरुषों (दिवालिया, पागल और अपराधियों को छोड़कर) को निर्वाचन में मत देने का अधिकार प्रदान किया गया है। मतदान में वयस्कता की आयु सन् 1985 के 61वें संविधान संशोधन द्वारा 21 वर्ष में घटाकर 18 वर्ष कर दी गई है। अब प्रत्येक स्त्री - पुरुष नागरिक जिसकी आयु 18 वर्ष या अधिक है, मतदान में भाग ले सकता है। लोकसभा तथा सभी विधानसभाओं और स्थानीय संस्थाओं के निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर ही होते हैं।

एकल नागरिकता 

भारतीय संविधान में समस्त नागरिकों के लिए एक नागरिकता की व्यवस्था की गई है। यहाँ सभी व्यक्ति भारत के नगारिक है, पृथक-पृथक राज्यों के नागरिक नहीं। भारत में अमेरिका के समान दोहरी नागरिकता नहीं है, जैसे- भारत के किसी भी प्रांत में रहने वाला व्यक्ति भारत का ही नागरिक होगा न कि उस प्रान्त का एवं भारत दोनों का। राष्ट्र की भावात्मक एकता सुदृढ़ बनाने के लिए भारतीय संविधान में यह व्यवस्था की गयी है।

एक ही राष्ट्रभाषा हिन्दी 

भारतीय संविधान के अनुसार भारत की राजभाषा हिन्दी घोषित की गई है। संविधान के अनुच्छेद 343 में कहा गया है- संघ की अधिकृत भाषा देवनागिरी लिपि में हिन्दी होगी। संविधान में कहा गया था कि सरकार संविधान लागू होने के 15 वर्षों में इस बात की व्यवस्था करेगी कि केन्द्रीय शासन का समस्त कार्य हिन्दी में होने लगे। इन वर्षों में हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी भी चल सकती है। सन् 1965 में सहभाषा विधेयक पास कर हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी निरन्तर बनाये रखने की अनुमति दी गयी थी। यद्यपि अन्य प्रान्तीय भाषाओं को भी विकास का अवसर प्रदान किया गया है। संविधान 22 भारतीय भाषाओं को विभिन्न राज्यों में प्रादेशिक भाषा के रूप में प्रयोग के लिये स्वीकार कर लिया गया है। तथापि एक राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से विभिन्नता में एकता की स्थापना करने का प्रयास किया गया है जिससे राष्ट्रीय एकता की स्थापना की जा सकती है।

नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 से 35 तक में नगारिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। मौलिक अधिकार वे अधिकार है जो व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक हैं। इन्हें छीना नहीं जा सकता। छीने जाने की स्थिति में न्यायपालिका इनकी रक्षा करती है। जब संविधान की रचना हुई। उस समय नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किये गये थे। कुछ समय पश्चात् संविधान में 44वां संशोधन (1947) करके सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों में से हटा दिया गया है। वर्तमान में नागरिकों को निम्नलिखित 6 मौलिक अधिकार प्राप्त है-

( 1 ) समानता का अधिकार, 

(2) स्वतन्त्रता का अधिकार 

(3) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार, 

(4) शोषण के विरुद्ध का अधिकार, 

(5) शिक्षा एवं संस्कृति का अधिकार, 

(6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार। इस प्रकार वर्तमान में भारतीय नगारिकों को केवल 6 मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। सम्पत्ति का अधिकार केवल कानूनी अधिकार रह गया है।

मालिक कर्तव्यों की व्यवस्था

मूल भारतीय संविधान में केवल मौलिक अधिकारों की ही व्यवस्था की गयी थी। परन्तु सन् 1976 के 42वें संविधान संशोधन द्वारा मूल संविधान में एक भाग चौथा "अ" बोड़ा गया है। इस भाग में नागरिकों के 10 मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया था लेकिन 86 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2002 की धारा-4 द्वारा एक और कर्तव्य (ट) जोड़ दिया गया है जिसके अन्तर्गत माता-पिता या संरक्षक के लिए 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चे को शिक्षा का अवसर प्रदान किया जाना अपेक्षित है। अतः अब मौलिक कर्तव्य 11 हो गये हैं। इन कर्तव्यों में नागरिकों से यह अपेक्षा की गयी है कि वे संविधान तथा लोकतान्त्रिक संस्थाओं का सम्मान करें, हिंसा से दूर रहें और भारतीय संस्कृति के महत्व को समझें तथा उसकी रक्षा करें। प्राकृतिक वातावरण को दूषित होने से बचायें, सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करें एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनायें, भाई-चारे की भावना को बढ़ावा दें आदि। यदि भारतीय इन कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करें तो निश्चित रूप से लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत होंगी और राष्ट्रीय एकता की स्थापना के साथ-साथ राष्ट्र का विकास होगा।

राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों की व्यवस्था  

आयरलैण्ड के संविधान की भाँति भारतीय संविधान अध्याय चार में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की व्यवस्था की गई है। ये वे सिद्धान्त है, जिन पर भारत की के भावी  आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक नीति निर्धारित होगी। इनके पोछे कोई कानूनी शक्ति नहीं होती है, लेकिन इन्हें मौलिक और राजनीतिक शक्ति अवश्य ही प्राप्त है। इस आधार पर केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों का कर्तव्य होगा कि वे विधि निर्माण और शासन संचालन की नीति निर्धारण में इन तत्वों का ध्यान अवश्य रखें। इन तत्वों का उद्देश्य भारत को एक लोक कल्याणकारी राज्य बनाना है। राज्य के कुछ महत्वपूर्ण नीति निर्देशक तत्व निम्नांकित है-

(i) सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधन प्रदान करना,

(ii) निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था एवं ग्राम पंचायतों की स्थापना करना, 

(iii) कृषि की उन्नति करना ।

स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था

भारतीय न्यायपालिका को स्वतन्त्र और निष्पक्ष बनाये रखने के लिए उसे कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के अनुचित दबाव से मुक्त रखा गया है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है। यह संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों की रक्षा करता ही है, और केन्द्र व राज्यों के बीच उठे विवादों का निपटारा करता है। इसके अतिरिक्त, संविधान के विपरीत संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को अवैध घोषित कर देता है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इन्हें पर्याप्त वेतन दिया जाता है, ताकि वे निष्पक्ष न्याय प्रदान कर सकें। इनके कार्यकाल, वेतन और सुविधाओं में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता, उन्हें केवल महाअभियोग द्वारा ही उनके पद से हटाया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार भी प्राप्त है। न्यायपालिका को स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष बनाये रखने के लिए संविधान में अनेक व्यवस्थाएं की गई हैं।

अल्पसंख्यकों एवं पिछड़े वर्गों के कल्याण हेतु व्यवस्था  

भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के धार्मिक, आर्थिक, भाषायी और सांस्कृतिक हितों की रक्षा हेतु विशेष व्यवस्था की गई है जिससे वे बहुमत के अत्याचार के शिकार न हो सकें। इसके लिए भारतीय संविधान में पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों तथा जन-जातियों के क्षेत्रों के नागारिकों को राजकीय सेवाओं, व्यवस्थापिकाओं, शिक्षण संस्थाओं तथा अन्य क्षेत्रों में विशेष आरक्षण प्रदान किया गया है। प्रारम्भ में यह आरक्षण केवल सन् 1960 तक के लिए था, परन्तु बाद में संविधान संशोधन द्वारा प्रति दस दस वर्ष के लिए बढ़ाया जाता रहा है। सन् 1990 के 62वें संविधान संशोधन के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था 25 जनवरी, 2000 तक थी जिसे 79वें संवैधानिक संशोधन द्वारा पुनः 10 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया है। संविधान द्वारा प्रान्तीय सरकारों को यह अधिकार दिया गया है कि वह इन जातियों के विकास और उन्नति के लिए उन्हें विशेष अधिकार और आरक्षण प्रदान कर सकती है।

आपातकालीन प्रावधान 

भारतीय संविधान की यह एक मुख्य विशेषता है कि संकटकाल में भारतीय राजव्यवस्था में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन स्वतः हो जाते हैं। यह संघात्मक से एकात्मकता का रूप धारण कर लेता है। आपातकालीन स्थिति में राष्ट्रपति तथा राज्यपालों को विशेष शक्तियों प्रदान की गई हैं। संविधान के अनुच्छेद 352 से 360 तक में राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का विवेचन किया गया है। राष्ट्रपति निम्नांकित तीन परिस्थितियों में संकटकाल की घोषणा कर सकता है।

(1) युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति के उत्पन्न होने पर 

(2) राज्यों में संवैधानिक तन्त्र के विफल होने पर,

(3) वित्तीय संकट के उत्पन्न होने पर।

इन संकटकालीन शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति केवल मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से ही कर सकता है। ये आपातकालीन उपबन्ध संविधान को परिवर्तनशीलता की स्थिति प्रदान करते हैं। भारत जैसे देश में जहाँ निरन्तर परिस्थितियाँ परिवर्तित होती रहती है ये उपबन्ध बहुत ही आवश्यक है।

धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना (पंथ निरपेक्ष राज्य की स्थापना) 

भारतीय संविधान द्वारा भारत में धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना की गई है। धर्म निरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा और देश के प्रत्येक नागरिक को किसी भी धर्म को ग्रहण करने व प्रचार करने की छूट होगी। राज्य किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। किसी भी धर्म को दूसरे धर्म से बड़ा या छोटा नहीं माना जायेगा। 42वें संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में 'धर्म निरपेक्ष' (Secular) शब्द जोड़कर धर्म-निरपेक्षता की भावना को स्पष्ट किया गया है। अतः संविधान सभी धर्मों और सम्प्रदायों के साथ एकसमान व्यवहार का आश्वासन देता है। 

यद्यपि मूल संविधान में कहीं पर भी भारत को स्पष्टतया धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित नहीं किया गया था, फिर भी ऐसी व्यवस्थाएं की गई थी जिनके कारण भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य का रूप प्राप्त हो जाता है। प्रस्तावना में सभी नागरिकों को धर्म में विश्वास और पूजा की स्वतन्त्रता दी गई है। और मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत संविधान के 25वें अनुच्छेद में कहा गया है कि "सभी नागरिको को अन्तःकरण की तथा धर्म के अबाध मानने आवरण तथा प्रसार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होगी।" प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय को धार्मिक संस्थाओं की स्थापना और पोषण का अधिकार प्रदान किया गया है। किन्तु यह देश का दुर्भाग्य है कि संविधान लागू होने के 59 वर्षों बाद भी देश से साम्प्रदायिकता दूर नहीं हुई है। 

भारत में विषैला साम्प्रदायिक वातावरण आज भी यथावत बना हुआ है। इस स्थिति में प्रत्येक स्तर पर प्रतिकार करना आवश्यक था। अतः संविधान के 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि भारत एक समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य है। ऐसी स्थिति में भारत सरकार धर्म-निरपेक्षता के स्थान पर पंथनिरपेक्षता का प्रयोग करके किसी एक सम्प्रदाय या पंथ के साथ पक्षपात नहीं करेगी, उसकी दृष्टि में सभी पंच समान है। 

सर्वोच्च न्यायालय की 9 सदस्यीय संविधान पीठ ने 11 मार्च, 1993 को दिये अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि "धर्म निरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल अवधारणा है, संविधान का एक आदर्श, एक लक्ष्य है।"

अस्पृश्यता का अन्त

अस्पृश्यता (छुआछूत) को भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए एक अभिशाप मानते हुए इसका अन्त कर दिया गया है। सामाजिक क्षेत्र में सभी नगारिकों को समानता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 में स्पष्ट उल्लेख है कि "अस्पृश्यता का अन्त किया गया है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। किसी भी रूप में अस्पृश्यता का आचरण विधि के अनुसार दण्डनीय होगा।" राज्य स्वयं भी केवल जाति, मूल, वंश या वर्ग के आधार पर नागरिकों में कोई भेदभाव नहीं करेगा।

ग्राम पंचायतों की स्थापना (पंचायती राज्य की स्थापना) 

भारतीय राज व्यवस्था का आधार ग्राम है। इन ग्रामों का प्रबन्ध ग्राम पंचायतों के आधार पर भली-भाँति सम्पन्न होता है। इसीलिए राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में कहा गया है कि, "गाँवों में ग्राम पंचायतों की स्थापना कर उन्हें स्थानीय शासन की प्राथमिक इकाई बनाया जायेगा।" इसीलिए सन् 1959 में लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था को अपनाया गया और ग्रामीण क्षेत्र में पंचायतों, पंचायत समितियों व जिला परिषदों की स्थापना की गयी है। सन् 1993 में 73वें और 74 वां संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज तथा शहरी क्षेत्र की स्थानीय स्वशासन व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है। यह भारतीय संविधान की महत्वपूर्ण विशेषता है।

विश्व शान्ति का समर्थक 

भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें विश्व शान्ति, सुरक्षा और अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना पर बल दिया गया है। संविधान में वर्णित राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में यह स्पष्ट उल्लेख है कि राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा की उन्नति और राष्ट्रों के मध्य न्याय तथा सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाये रखने का प्रबन्ध करेगा।" भारत सरकार ने अपने संविधान के अनुसर यथासम्भव अपने आदर्शों का पालन किया है और स्वयं को गुटों और सैनिक सन्धियों से पृथक् ही रखा है। भारत आज भी निःशस्त्रीकरण के पक्ष में निरन्तर वातावरण बना रहा है। वह दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति के विरुद्ध विश्व जनमत तैयार कर अपने उद्देश्य में सफल हुआ है।

साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रों की समाप्ति 

ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में साम्प्रदायिक निर्वाचन की पद्धति को अपनाया गया था। इस पद्धति से भारत की विभिन्न जातियों विशेषकर हिन्दू और मुसलमानों मे कटुता और वैमनस्यता उत्पन्न हो गयी थी। इस कटुता और वैमनस्यता का अन्त करने के लिए भारतीय संविधान में साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को हटाकर सामूहिक (संयुक्त) निर्वाचन प्रणाली को अपनाया गया है। इस व्यवस्था में सब मिलकर एक साथ अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करते हैं। 

प्रो. श्रीनिवासन ने लिखा है, कि "साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली की समाप्ति तथा वयस्क मताधिकार की स्थापना, नये भारतीय संविधान की महत्वपूर्ण तथा क्रान्तिकारी विशेषताएँ हैं।"

इस प्रकार उपर्युक्त विशेषताओं से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संविधान विश्व का सर्वश्रेष्ठ संविधान है। भारत का संविधान जनता की प्रभुसत्ता के मूल सिद्धान्त पर आधारित है तथा भारतीय जनता की वास्तविक एकता का प्रतीक है। यह एक आदर्श प्रलेख है जिसमें सिद्धान्त और व्यावहारिकता का श्रेष्ठ समन्वय है। यह समन्वय हमें विश्व के किसी भी देश के संविधान में देखने को नहीं मिलता है।

भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया

भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया न तो इंग्लैण्ड के समान अत्यधिक लचीली है और न ही अमेरिका के संविधान की भाँति अत्यधिक कठोर है। इसलिए भारतीय संविधान को लचीलेपन और कठोरता का सम्मिश्रण कहा जा सकता है। पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा में कहा था कि, "यद्यपि जहाँ तक सम्भव हो हम इस संविधान को एक ठोस और स्थायी संविधान का रूप देना चाहते है, संविधान में कोई स्थायित्व नहीं होता, इसमें कुछ लचीलापन होना ही चाहिए। 

यदि आप इसे कठोर और स्थायी बनाते हैं तो आप एक राष्ट्र की प्रगति पर जीवित प्राणवत् एवं शरीरधारी व्यक्तियों की प्रगति पर रोक लगा देते हैं।" इसी प्रकार संविधान के लचीलेपन और उसमें संशोधन की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए फाइनर ने कहा है कि, " अपने निर्माण के दस वर्ष पश्चात् प्रत्येक संविधान पुराना पड़ जाता है जिसे यदा-कदा आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके ही वर्तमान के अनुकूल रखा जा सकता है।" इसी प्रकार संविधान संशोधन की आवश्यकता पर बल देते हुए श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था कि, "संविधान जनता की इच्छाओं का दर्पण है और उसमें जनता की आशाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप संशोधन होना ही चाहिए। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 की व्यवस्था के अनुसार संशोधन के लिए निम्नांकित तीन प्रणालियों को अपनाया गया है।

(अ) साधारण विधि द्वारा संशोधन की प्रक्रिया : संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए साधारण विधेयकों को पारित करने वाली प्रकिया ही अपनायी जाती है। इसके अन्तर्गत संसद के दोनों ही सदन अलग-अलग अपने बहुमत द्वारा संशोधन प्रस्ताव को पारित करते हैं। तत्पश्चात् उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु भेज दिया जाता है। इस प्रकार संसद के प्रत्येक सदन से साधारण बहुमत पारित होने तथा राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाने पर ही संविधान के अनुच्छेदों में संशोधन किया जा सकता है। संविधान में 22 अनुच्छेद ऐसे हैं जिनमें साधारण बहुमत द्वारा संशोधन किया जा सकता है; जैसे- नये राज्यों का निर्माण, राज्यों का पुनर्गठन, राज्य के विधानमण्डलों के द्वितीय सदन का निर्माण और समाप्ति, भारतीय नागरिकता आदि विषय ऐसे ही अनुच्छेदों से सम्बन्धित हैं।

(ब) संसद के विशिष्ट बहुमत द्वारा संशोधन की प्रक्रिया : संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद के विशिष्ट बहुमत की आवश्यकता होती है; जैसे- मौलिक अधिकार, नीति-निर्देशक तत्व तथा न्यायपालिका की शक्तियों से सम्बन्धित अनुच्छेदों में संशोधन विशिष्ट बहुमत द्वारा ही होता है। इस प्रक्रिया में संशोधन सम्बन्धी प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। यदि यह प्रस्ताव सदन के कुल सदस्यों की संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित हो जाता है और राष्ट्रपति इसे स्वीकृत कर देता है तो इस प्रस्ताव के अनुसार संविधान में संशोधन किया जा सकता है।

(स) संसद के विशिष्ट बहुमत और राज्य विधानमण्डलों की स्वीकृति द्वारा संशोधन : संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद के विशिष्ट बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित विधेयक को राज्यों के कुल विधानमण्डलों के कम से कम आधे विधानमण्डलों को स्वीकृति की आवश्यकता होती है साथ ही राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाने के पश्चात् ही प्रस्ताव के अनुसार संविधान में संशोधन किया जा सकता है जैसे राष्ट्रपति का निर्वाचन, संघीय कार्यपालिका शक्ति का विस्तार, राज्यों की कार्यपालिका की शक्ति का विस्तार, संघ शासित क्षेत्रों के लिए न्यायपालिका की व्यवस्था संघीय न्यायपालिका, राज्यों के उच्च न्यायालय, संघ और राज्यों के मध्य विधायी सम्बन्ध और अनुच्छेद 368 में वर्णित संविधान संशोधन सम्बन्धी उपबन्ध आदि ।

भारतीय संविधान में संशोधन के लिए अपनायी गयो उपर्युक्त प्रक्रिया से नितान्त स्पष्ट है कि भारतीय संविधान लचीलेपन और कठोरता का अपूर्ण सम्मिश्रण है। जनवरी, 2009 तक संविधान में 94 संशोधन हो चुके हैं।


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