ध्यान और रुचि का विस्तृत वर्णन - (ATTENTION & INTEREST)

ध्यान तथा रुचि, मानव जीवन की महत्त्वपूर्ण क्रिया है। छात्रों में ध्यान विकसित करके उनमें अध्ययन तथा अधिगम के लिये तैयार किया जाता है। अधिगम की क्रिया ध्यान तथा रुचि के कारण ही सक्रिय होती है। ध्यान तथा रुचि मनोवैज्ञानिक तत्व है और इन पर इसी दृष्टिकोण से विचार करना भी आवश्यक है।

    ध्यान का अर्थ : 

    हम जीवन में अनेक प्रकार की वस्तुएँ देखते हैं। कुछ के विषय में सुनते है। हम कुछ की ओर आकर्षित होते हैं तथा कुछ की ओर हमारा ध्यान अनायास ही चला जाता है। ये सभी व्यवहार अवधान/dhyaan कहलाते हैं।

    'चेतना' व्यक्ति का स्वाभाविक गुण है। चेतना के ही कारण उसे विभिन्न वस्तुओं का ज्ञान होता है। यदि वह कमरे में बैठा हुआ पुस्तक पढ़ रहा है, तो उसे वहाँ की सब वस्तुओं की कुछ-न-कुछ चेतना अवश्य होती है, जैसे- मेज, कुर्सी, अलमारी आदि। पर उसकी चेतना का केन्द्र वह पुस्तक है, जिसे वह पढ़ रहा है। चेतना के किसी वस्तु पर इस प्रकार के केन्द्रित होने को 'अवधान' कहते है। दूसरे शब्दों में, किसी वस्तु पर चेतना को केन्द्रित करने की मानसिक प्रक्रिया को 'अवधान' या ध्यान कहते है।

    ध्यान की परिभाषा : 

    ध्यान की निम्नलिखित परिभाषाएं है- 

    डमविल के अनुसार- "किसी दूसरी वस्तु के बजाय एक ही वस्तु पर चेतना का केन्द्रीकरण ध्यान है।" 

    रॉस के अनुसार- "ध्यान, विचार की किसी वस्तु को मस्तिष्क के सामने स्पष्ट रूप से उपस्थित करने की प्रक्रिया है।"

    वेलेन्टाइन के अनुसार- "ध्यान, मस्तिष्क की शक्ति न होकर सम्पूर्ण रूप से मस्तिष्क की क्रिया या अभिवृत्ति है।" 

    मार्गन एवं गिलीलैंड महोदय के अनुसार- "अपने वातावरण के किसी विशिष्ट तत्व की ओर उत्साहपूर्वक जागरूक होना ध्यान कहलाता है। यह किसी अनुक्रिया के लिये पूर्व समायोजन है।" 

    मन के अनुसार- "ध्यान के किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाय, अन्तिम विश्लेषण अवधान को प्रेरणात्मक क्रिया कहते हैं।" 

    ध्यान के पहलू :

    आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, ध्यान में सचेत जीवन के तीन पहलू होते है- जानना, अनुभव करना और इच्छा करना (Knowing. Feeling & Willing)। किसी कार्य के प्रति ध्यान देते समय हमें उसका ज्ञान रहता है। हम रुचि के रूप में किसी भावना या संवेग से प्रेरित होकर उसे करने में ध्यान लगाते हैं। जितनी देर हमारा ध्यान उस कार्य में लगा रहता है, उतनी देर हमारा मस्तिष्क क्रियाशील रहता है। इस प्रकार, जैसा कि भाटिया ने लिखा है-"अवधान-ज्ञानात्मक, क्रियात्मक और भावात्मक होता है।"

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    ध्यान की दशाएँ :

    हम अनेक वस्तुओं को देखते हुए भी केवल एक की ही ओर ध्यान क्यों देते हैं ? इसका कारण यह है कि ध्यान को केन्द्रित करने में अनेक दशाएँ सहायता देती है। 

    अतः हम इनको दो भागों में बाँट सकते हैं- 

    (1) बाह्य या वस्तुगत दशाएँ (2) आन्तरिक या व्यक्तिगत दशाएँ।

    ध्यान को केन्द्रित करने की बाह्य दशाएँ :

    गति 

    स्थिर वस्तु के बजाय चलती हुई वस्तु की ओर हमारा ध्यान जल्दी आकर्षित होता है। बैठे या खड़े हुए मनुष्य के बजाय भागते हुए मनुष्य की ओर हमारा ध्यान शीघ्र जाता है।

    अवधि

    हमें जिस वस्तु को देखने का जितना अधिक समय मिलता है, उस पर हमारा ध्यान उतना ही केन्द्रित होता है। इसीलिए, शिक्षक पाठ की मुख्य-मुख्य बातों को श्यामपट पर लिखते हैं।

    स्थिति 

    हम प्रतिदिन के मार्ग पर चलते हुए बहुत-से मकानों के पास से गुजरते हैं, पर हमारा ध्यान उनकी ओर आकर्षित नहीं होता है। यदि किसी दिन हम उनमें से किसी मकान को गिरी हुई दशा या स्थिति में पाते हैं, तो हमारा ध्यान स्वयं ही उसकी ओर चला जाता है।

    तीव्रता 

    जो वस्तु जितनी अधिक उत्तेजना उत्पन्न करती है उतना ही अधिक हमारा ध्यान उसकी ओर खिंचता है। धीमी आवाज की तुलना में तेज आवाज हमारा ध्यान अधिक आकर्षित करती है। 

    विषमता

    यदि हम सुन्दर व्यक्तियों के परिवार में किसी कुरूप व्यक्ति को देखते हैं तो उसकी विषमता के कारण हमारा ध्यान उसकी ओर अवश्य जाता है। 

    नवीनता 

    हमारा ध्यान नवीन विचित्र या अपरिचित वस्तु की ओर अवश्य आकर्षित होता है। वर्दी पहने हुए सिपाही के नदी में नहाते कर हमारे नेत्र उस पर जम जाते हैं। 

    आकार 

    हमारा ध्यान छोटी वस्तुओं की अपेक्षा बड़े आकार की वस्तुओं की ओर जल्दी जाता है। चौराहों पर बड़े-बड़े विज्ञापनों के लगाये जाने के कारण उनकी ओर हमारे ध्यान को शीघ्र आकर्षित करना है। 

    स्वरूप 

    हमारा ध्यान अच्छे स्वरूप की वस्तुओं की ओर अपने-आप जाता है। जो वस्तु सुडौल, सुन्दर और अच्छी बनावट की होती है, उसे देखने की हमारी इच्छा स्वयं होती है। 

    परिवर्तन 

    विद्यालय में शोर होना साधारण बात है। पर यदि उसके किसी भाग में लगातार जोर का शोर होने के कारण वातावरण में परिवर्तन हो जाता है, तो हमारा ध्यान शोर की ओर अवश्य जाता है और हम उसका कारण भी जानना चाहते हैं।

    प्रकृति

    अवधान का केन्द्रीयकरण वस्तु की प्रकृति पर निर्भर रहता है। छोटे बच्चों का ध्यान रंग-बिरंगी वस्तुओं के प्रति बहुत सरलता से आकर्षित होता है।

    पुनरावृत्ति

    जो बात बार-बार दोहराई जाती है. उसकी ओर हमारा ध्यान जाना स्वाभाविक होता है। छात्रों के ध्यान को केन्द्रित रखने के लिए शिक्षक मुख्य-मुख्य बातों को दोहराता जाता है। 

    रहस्य

    ध्यान का केन्द्रीयकरण किसी बात के रहस्य पर आधारित रहता है। यदि दो मनुष्य सामान्य रूप से बातचीत करते हैं, तो हमारा ध्यान उनकी ओर नहीं जाता है। पर यदि वे कोई गुप्त या रहस्यपूर्ण बात करने लगते हैं, तो हम कान लगाकर उनकी बात सुनने का प्रयास करते हैं।

    ध्यान को केन्द्रित करने की आन्तरिक दशाएँ :

    रुचि 

    ध्यान के केन्द्रीयकरण का सबसे मुख्य आधार हमारी रुचि है। इस सम्बन्ध में भाटिया ने लिखा है- "व्यक्तिगत दशाओं को एक शब्द, 'रुचि' में व्यक्त किया जा सकता है। हम उन्हीं वस्तुओं की ओर ध्यान देते हैं, जिनमें हमें रुचि होती है। जिनमें हमको रुचि नहीं होती है, उनकी ओर हम ध्यान नहीं देते हैं।" 

    ज्ञान 

    जिस व्यक्ति को जिस विषय का ज्ञान होता है, उस पर ध्यान सरलता से केन्द्रित होता है। कलाकार को कला की वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित करने में कोई कठिनाई नहीं होती है।

    लक्ष्य 

    व्यक्ति जिस कार्य के लक्ष्य को जानता है, उस पर उसका ध्यान स्वतः केन्द्रित हो जाता है। परीक्षा के दिनों में छात्रों का ध्यान अध्ययन पर केन्द्रित रहता है, क्योंकि इससे वे परीक्षा में उत्तीर्ण होने के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।

    आदत 

    ध्यान के केन्द्रीयकरण का एक आधार-व्यक्ति की आदत है। जिस व्यक्ति को चार बजे टेनिस खेलने जाने की आदत है, उसका ध्यान तीन बजे से ही उस पर केन्द्रित हो जाता है और वह खेलने जाने की तैयारी करने लगता है।

    जिज्ञासा

    व्यक्ति की जिस बात में जिज्ञासा होती है, उसमें वह ध्यान अवश्य देता है। जिस व्यक्ति को टैस्ट मैचों के प्रति जिज्ञासा होती है, वह उनकी कमेंट्री अवश्य सुनता है।

    प्रशिक्षण

    रायबर्न के अनुसार- ध्यान के केन्द्रीयकरण का एक आधार व्यक्ति का प्रशिक्षण है। व्यक्ति का ध्यान उसी बात पर केन्द्रित होता है, जिसका प्रशिक्षण उसे प्राप्त होता है। पहाड़ पर साथ-साथ यात्रा करते समय चित्रकार का ध्यान सुन्दर स्थानों की ओर एवं पर्वतारोही का ध्यान पहाड़ की ऊँचाई की ओर जाता है।

    मनोवृत्ति 

    रैक्स एवं नाईट के अनुसार- ध्यान के केन्द्रीयकरण का एक आधार-व्यक्ति की मनोवृत्ति है। यदि मालिक अपने नौकर से किसी कारण से रुष्ट हो जाता है, तो उसका ध्यान नौकर के छोटे-छोटे दोषों की ओर भी जाता है; जैसे वह देर से क्यों आया है ? वह मैले कपड़े क्यों पहने हुए है ? 

    वंशानुक्रम

    रायबर्न के अनुसार- अवधान के केन्द्रीयकरण का एक आधार-व्यक्ति को वंशानुक्रम से प्राप्त गुणों पर निर्भर रहता है। शिकारी परिवार के व्यक्ति का ध्यान शिकार के जानवरों की ओर एवं धार्मिक परिवार के व्यक्ति का ध्यान मन्दिरों की ओर स्वाभाविक रूप से आकर्षित होता है। 

    आवश्यकता

    जो वस्तु व्यक्ति की आवश्यकता को पूर्ण करती है, उसकी ओर उसका ध्यान जाना स्वाभाविक है। भूखे व्यक्ति का भोजन की ओर ध्यान जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

    मूलप्रवृत्तियाँ

    रैक्स व नाईट के अनुसार- ध्यान के केन्द्रीयकरण का एक मुख्य आधार-व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों है। यही कारण है कि विज्ञापनों के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए काम प्रवृत्ति का सहारा लिया जाता है। इसीलिए विज्ञापनों में. साधारणतः सुन्दर युवतियों के चित्र होते हैं।

    पूर्व अनुभव 

    यदि व्यक्ति को किसी कार्य को करने का पूर्व अनुभव होता है, तो उस पर उसका ध्यान सरलता से केन्द्रित हो जाता है जिस बालक को पर्वत का मॉडल बनाने का कोई अनुभव नहीं है. उस पर वह अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाता है।

    मस्तिष्क का विचार 

    रायबर्न के अनुसार- हमारे मस्तिष्क में जिस समय जो विचार सर्वप्रथम होता है, उस समय हम उसी से सम्बन्धित बातों की ओर ध्यान देते हैं। यदि हमारे मस्तिष्क में अपने किसी रोग का विचार है तो समाचार पत्र पढ़ते समय हमारा ध्यान औषधियों के विज्ञापनों की ओर अवश्य जाता है।

    ध्यान के प्रकार :

    जे. एस. रौस (J. S. Ross) ने ध्यान का वर्गीकरण इस प्रकार किया है- 

    ध्यान के प्रकार

    ऐच्छिक ध्यान

    ऐच्छिक (voluntary) ध्यान अर्जित अभिरुचि या रुचि पर आधारित होता है। यह दो प्रकार का होता है- 

    (i) विचारित (Explicit) ध्यान- जब हम अच्छी तरह विचार कर किसी विचार या वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो वह सुविचारित ध्यान कहलाता है।

    (ii) अविचारित (Implicit) ध्यान- इस प्रकार के ध्यान में व्यक्ति के कोई विचार नहीं करना पड़ता। 

    अनैच्छिक ध्यान

    यह ध्यान जन्मजात अभिरुचियों पर निर्भर होता है। व्यक्ति का ध्यान किसी वस्तु पर केन्द्रित हो जाता है। अनैच्छिक ध्यान दो प्रकार का होता है-

    (i) सहज (Spontaneous) ध्यान- यह मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है।

    (ii) बाध्य (Enforced) ध्यान- इस प्रकार के ध्यान में बाध्यता प्रमुख होती है।. 

    बालकों का ध्यान केन्द्रित करने के उपाय :

    बी. एन. झा का कथन है-"विद्यालय कार्य की एक मुख्य समस्या सदैव ध्यान की समस्या रही है। इसीलिए, नये शिक्षक को प्रारम्भ में यह आदेश दिया जाता है-'कक्षा के अवधान को केन्द्रित रखिए !" 

    कक्षा या बालकों के ध्यान को केन्द्रित करने या रखने के लिए निम्नलिखित उपायों को प्रयोग में लाया जा सकता है-

    शान्त वातावरण 

    कोलाहल, बालकों के ध्यान को विचलित करता है। अतः उनके ध्यान को केन्द्रित रखने के लिए शिक्षक को कक्षा का वातावरण शान्त रखना चाहिए।

    पाठ की तैयारी 

    पाठ को पढ़ाते समय कभी-कभी ऐसा अवसर आ जाता है, जब शिक्षक किसी बात को भली प्रकार से नहीं समझा पाता है। ऐसी दशा में वह बालकों के ध्यान को आकर्षित नहीं कर पाता है। अतः शिक्षक को प्रत्येक पाठ को पढ़ाने से पूर्व उसे अच्छी तरह से तैयार कर लेना चाहिए।

    विषय में परिवर्तन

    ध्यान चंचल होता है और बहुत समय तक एक विषय पर केन्द्रित नहीं रहता है। अतः शिक्षक को दो घण्टों में एक विषय लगातार न पढ़ाकर भिन्न-भिन्न विषय पढाने चाहिए। 

    सहायक सामग्री का प्रयोग 

    सहायक सामग्री बालकों के ध्यान को केन्द्रित करने में सहायता देती है। अतः शिक्षक को पाठ से सम्बन्धित सहायक सामग्री का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। 

    शिक्षण की विभिन्न विधियों का प्रयोग 

    बालकों को खेल कार्य प्रयोग और निरीक्षण में विशेष आनन्द आता है। अतः शिक्षक को बालकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए आवश्यकतानुसार अग्रलिखित विधियों का प्रयोग करना चाहिए-खेल-विधि, क्रिया-विधि, प्रयोगात्मक-विधि और निरीक्षण-विधि।

    बालकों की रुचियों के प्रति ध्यान 

    जो अध्यापक, शिक्षण के समय बालकों की रुचियों का ध्यान रखता है, वह उनके ध्यान को केन्द्रित रखने में भी सफल होता है। अतः डम्बिल (Dumville) का सुझाव है- "पाठ का प्रारम्भ बालकों की स्वाभाविक रुचियों से कीजिए। फिर धीरे-धीरे अन्य विधियों में उनकी रुचि उत्पन्न कीजिए। "

    बालकों के प्रति उचित व्यवहार

    यदि बालकों के प्रति शिक्षक का व्यवहार कठोर होता है और वह उनको छोटी-छोटी बातो पर डाँटता है, तो वह उनके ध्यान को आकर्षित नहीं कर पाता है। अतः उसे बालकों के प्रति प्रेम, शिष्टता और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए।

    बालकों के पूर्व ज्ञान का नये ज्ञान से सम्बन्ध

    बालकों के ध्यान को केन्द्रित रखने के लिए शिक्षक को नए विषय को पुराने विषय से सम्बन्धित करना चाहिए। इसका कारण बताते हुए जेम्स (James) ने लिखा है- "बालक पुराने विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित कर चुके हैं। अतः जब नये विषय को उससे सम्बन्धित कर दिया जाता है, तब उस पर उन्हें अपना ध्यान केन्द्रित करने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती है। "

    बालक की प्रवृतियों का ज्ञान 

    डम्विल (Dumville) के अनुसार- बालकों के ध्यान को केन्द्रित करने के लिए शिक्षक को उनकी सब प्रवृत्तियों (Tendencies) का ज्ञान होना चाहिए। यदि वह इन प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर अपने शिक्षण का आयोजन करता है, तो वह बालकों के अवधान को केन्द्रित रखता है।

    बालकों के प्रयास को प्रोत्साहन

    यदि अध्यापक, बालकों को निष्क्रिय श्रोता बना देता है, तो वह अपने शिक्षण के प्रति उनके ध्यान को आकर्षित करने में असफल होता है। अतः जेम्स (James) का परामर्श है - "बालकों के प्रयास की इच्छा को जीवित रखिए।" उनकी इस इच्छा को जीवित रखकर या उनको प्रयास के लिए प्रोत्साहित करके शिक्षक उनके ध्यान को सदैव प्राप्त कर सकता है।"

    रुचि का अर्थ : 

    रुचि (Interest) की उत्पत्ति, लेटिन भाषा के शब्द "Interesse" से हुई है। स्टाउट के अनुसार- इसके कारण अन्तर होता है।" ("It makes a difference.") रॉस के अनुसार, इस शब्द का अर्थ है-"यह महत्त्वपूर्ण होती है।" ("It matters") या "इसमें लगाव होता है" ("lt concerns")। इस प्रकार, जिस वस्तु में हमें रुचि होती है, वह हमारे लिए दूसरी वस्तुओं से भिन्न और महत्त्वपूर्ण होती है एवं हमे उससे लगाव होता है। "

    रूचि की परिभाषा : 

    रुचि के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं- 

    भाटिया के अनुसार- "रुचि का अर्थ है-अन्तर करना। हमें वस्तुओं में इसलिए रुचि होती है, क्योंकि हमारे लिए उनमें और दूसरी वस्तुओं में अन्तर होता है, क्योंकि उनका हमसे सम्बन्ध होता है।"

    क्रो एवं क्रो के अनुसार- "रुचि वह प्रेरक शक्ति है, जो हमें किसी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया के प्रति ध्यान देने के लिए प्रेरित करती है।"

    रुचि के पहलू :

    'ध्यान' के समान 'रुचि' के भी तीन पहलू है- जानना, अनुभव करना और इच्छा करना (Knowing, Feeling & Willing)। जब हमें किसी वस्तु में रुचि होती है, तब हम उसका निरीक्षण और अवलोकन करते हैं। ऐसा करने से हमें सुख या सन्तोष मिलता है और हम उसे परिवर्तित करने या न करने के लिए कार्य कर सकते हैं। इस प्रकार, जैसा कि भाटिया ने लिखा है- "रुवि-ज्ञानात्मक, क्रियात्मक और भावनात्मक होती है।"

    बालकों में रुचि उत्पन्न करने के कारण :

    1. निरन्तर मौखिक शिक्षण और अत्यधिक पुनरावृत्ति, पाठ को नीरस बना देती है। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह बालकों को प्रयोग, निरीक्षण आदि के अवसर देकर कार्य में उनकी रुचि उत्पन्न करे। 

    2. बालकों को खेल और रचनात्मक कार्यों में विशेष रुचि होती है। अतः शिक्षक को खेल-विधि का प्रयोग करना चाहिए और बालकों से विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनवानी चाहिए। 

    3. बालकों को उसी विषय में रुचि होती है, जिसका उनको पूर्व ज्ञान होता है। अतः शिक्षक को ज्ञात से अज्ञात (Known to Unknown) का सम्बन्ध जोड़कर उनकी रुचि को बनाये रखना चाहिए।

    4. भाटिया (Bhatia) के अनुसार- आयु के साथ-साथ बालकों की रुचियों में परिवर्तन होता जाता है। अतः शिक्षक को इन रुचियों के अनुकूल पाठ्य विषय का आयोजन करना चाहिए।

    5. झा (Jha) के अनुसार- बालकों की अपनी मूलप्रवृत्तियों, अभिवृत्तियों (Attitudes) आदि से सम्बन्धित वस्तुओं में रुचि होती है। अतः शिक्षक को उनकी रुचि के अनुकूल चित्रों, स्थूल पदार्थों आदि का प्रयोग करना चाहिए। 

    6. भाटिया (Bhatia) के अनुसार- बालकों की रुचि का मुख्य आधार उनकी जिज्ञासा की प्रवृत्ति होती है। अतः शिक्षक को इस प्रवृत्ति को जाग्रत रखने और तृप्त करने का प्रयास करना चाहिए। 

    7. क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार- निरन्तर एक ही विषय को पढ़ने से बालक थकान का अनुभव करने लगता है और उसमें रुचि लेना बन्द कर देते हैं। अतः शिक्षक को उनकी रुचि के अनुसार विषय में परिवर्तन करना चाहिए। 

    8. भाटिया (Bhatia) के अनुसार- विभिन्नता, रोचकता को सुरक्षा प्रदान करती है ("Variety is a safeguard of Interest.")। अतः शिक्षण के समय अध्यापक को निरन्तर पाठ्य विषय की बातों को ही न बताकर उससे सम्बन्धित विभिन्न रोचक बातें भी बतानी चाहिए।

    9. भाटिया (Bhatia) के अनुसार- बालकों को जो कुछ पढ़ाया जाता है, उसमें वे तभी रुचि लेते हैं जब उनको उसके उद्देश्य और उपयोगिता की जानकारी होती है। अतः शिक्षक को पाठ आरम्भ करने से पहले इन दोनों बातो को अवश्य बता देना चाहिए। 

    10. स्किनर एवं हैरीमैन (Skinner & Harriman) के अनुसार- शिक्षण के समय बालकों में विभिन्न वस्तुओं, पशुओं, पक्षियों, मशीनों आदि में रुचि उत्पन्न हो जाती है। अतः शिक्षक को उन्हें भ्रमण के लिए ले जाकर उनकी रुचियों को तृप्त और विकसित करना चाहिए। 

    11. कोलेसनिक (Kolesnik) के अनुसार- बालकों को किसी विषय के शिक्षण में तभी रुचि आती है. जब उनको इस बात का ज्ञान हो जाता है कि उस विषय का उनसे क्या सम्बन्ध है, उसका उन पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, वह उनके लक्ष्यों की प्राप्ति में कितनी सहायता दे सकता है और वह उनकी आवश्यकताओं को किस प्रकार पूर्ण कर सकता है। अतः शिक्षक को बालकों और शिक्षण-विषय दोनों का ज्ञान होना चाहिए। कोलेसनिक के शब्दों में- "किसी विषय में छात्र की रुचि उत्पन्न करने के लिए. शिक्षक को छात्र के बारे में कुछ बातें और विषय के बारे में बहुत-सी बातें जाननी चाहिए।"

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