वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ, परिभाषा, विशेषतायें, महत्व एवं क्षेत्र

वित्त व्यवसाय का आधार है। व्यवसाय में सफलता प्राप्त करने के लिये पर्याप्त वित्त की समुचित व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है। इसकी तुलना मानव शरीर की रक्त संचार प्रणाली से की जा सकती है। जिस प्रकार शरीर मे होने वाला रक्त-संचार विभित्र अंगों को बल एवं स्फूर्ति प्रदान करता है, उसी प्रकार वित्त व्यावसायिक संगठनों की कार्यकुशलता एवं सफलता का सम्बल माना जाता है। वित्त वस्तुतः संचित कोषों को उत्पादक उपयोगो में परिवर्तित करने की एक प्रक्रिया है।

    वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ

    वित्तीय प्रबन्ध का सम्बन्ध उन संगठनों की वित्त व्यवस्थाओं से है जो लाभोपार्जन के उद्देश्य से संचालित की जाती है। व्यापक अर्थ में वित्तीय प्रबन्ध दो शब्दों का समूह है- 'वित्तीय' और 'प्रबन्ध'। वित्तीय का आशय वित्त सम्बन्धी है और प्रबन्ध का आशय किसी कार्य की कुशल सर्वोत्तम व्यवस्था करना है। अतः वित्तीय प्रबन्ध का सामूहिक आशय किसी व्यावसायिक उपक्रम की वित्त सम्बन्धी कुशल एवं व्यवस्था करना है। वर्तमान में कम्पनियों और निगमों की स्थापना तथा उनमें होने वाली कड़ी प्रतिस्पर्द्धा ने साधनों के अनुकूलतम उपयोग की ओर प्रबन्धकों का ध्यान आकर्षित किया। अतः वित्तीय प्रबन्ध व्यापक रूप में व्यावसाय में प्रयुक्त कोषों के आयोजन, एकगण, नियन्त्रण एवं प्रशासन से जुड़ गया है तथा व्यावसायिक उपक्रमों की सफलता की कुंजी बन गया है।

    वित्तीय प्रबन्ध की परिभाषा

    कुछ प्रमुख विद्वानों के द्वारा दी गयी वित्तीय प्रबन्ध की परिभाषाएँ निम्नलिखित है-

    (1) बियरमैन एवं स्मिथ (Bierman and Smith) के मतानुसार- "वित्तीय प्रबन्ध पूँजी के स्रोतों का निर्धारण करने तथा उसके अनुकूलतम उपयोग का मार्ग ढूँढ़ने वाली प्रविधि है।"

    (2) हॉवर्ड एवं उपटन (Howard and Upton) के शब्दों में- "वित्तीय प्रबन्ध से आशय, नियोजन एवं नियन्त्रण कार्यों को वित्त कार्य पर लागू करना है।"

    (3) जे. एफ. बेडले (J. F. Bradley) के विचार में- "वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध का वह क्षेत्र है जिसका सम्बन्ध पूँजी के विवेकपूर्ण उपयोग एवं पूँजी साधनों के सतर्क चयन से है ताकि व्यय करने वाली संस्था अपने उद्देश्यों की प्राप्ति की ओर बढ़ सके।"

    (4) जे. एल. मैसी (J. L. Massie) के शब्दों में- "वित्तीय प्रबन्ध एक व्यवसाय की वह संचलनात्मक प्रक्रिया है जो कुशल प्रचालनों के लिये आवश्यक वित्त को प्राप्त करने तथा उसका प्रभावशाली ढंग से उपयोग करने के लिये उत्तरदायी होता है।"

    अगर सार रूप में हम देखें तो आधुनिक युग में वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध का अभिन्न अंग तो है ही, साथ ही व्यवसाय के उद्देश्यों की पूर्ति में इस क्षेत्र की भूमिका आधारभूत (Key Role) है। यह कोषों की व्यवस्था तथा प्राप्त कोषों के सम्यक उपयोग (Judicious utilisation) से जुड़ा है। इस प्रकार वित्तीय प्रबन्ध यान्त्रिक कार्य (Sporadic function) न होकर, एक सतत् प्रशासनिक कार्य (Day to day Administrative Function) बन गया है।

    वित्तीय प्रबन्ध की प्रकृति अथवा विशेषताएँ

    वित्तीय प्रबन्ध के सम्बन्ध में आधुनिक विचारधारा तथा कुछ प्रमुख विद्वानों के द्वारा दी गयी परिभाषाओं के आधार पर निम्न विशेषताओं को देखा जा सकता है- 

    (1) व्यावसायिक प्रबन्ध का एक अभिन्न अंग- आधुनिक व्यावसायिक प्रबन्ध में वित्तीय प्रबन्धक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यवसाय की सभी गतिविधियों में वित्तीय प्रबन्धक व्यवसाय निर्णयों में आधारभूत भूमिका निभाता है। फलस्वरूप वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध का एक अभिन्न अंग बन गया है।

    (2) सतत् प्रशासनिक प्रक्रिया- परम्परागत रूप में व्यवसाय में वित्तीय प्रबन्ध यान्त्रिक कार्य था जबकि आधुनिक रूप में वित्तीय प्रबन्ध का कार्य एक सतत् प्रशासनिक प्रक्रिया है क्योंकि व्यवसाय के सफल संचालन के लिये कोषों के लाभपूर्ण एवं सम्यक् उपयोग का दायित्व भी अब इस क्षेत्र की परिधि में आता है फलस्वरूप वित्तीय प्रबन्धक की भूमिका के महत्व को प्रत्येक व्यावसायिक संगठन में मान्यता दी जाने लगी है।

    (3) विश्लेषणात्मक एवं व्यापक स्वरूप- वित्तीय प्रबन्धक की आधुनिक विचारधारा विश्लेषणात्मक एवं अधिक व्यापक है। इसके अन्तर्गत आन्तरिक एवं बाह्य परिस्थितियाँ सभी पर ध्यान देकर श्रेष्ठ वित्तीय प्रबन्ध पर बल दिया जाता है।

    (4) कार्य निष्पत्ति का मापक- वित्तीय निर्णय आय की मात्रा तथा व्यावसायिक जोखिम इन दोनों को प्रभावित करते हैं। दूसरे शब्दों में, नीति विषयक, निर्णय जोखिम एवं लाभदायकता पर प्रभाव डालते हैं तथा ये दोनों कारक सम्मिलित रूप में फर्म के मूल्य को निर्धारित करते हैं। अतः वित्तीय परिणामों के आधार पर ही व्यवसाय की कार्य निष्पत्ति का मूल्यांकन किया जाता है।

    (5) केन्द्रीय प्रकृति- व्यावसायिक प्रबन्ध के समस्त क्षेत्रों में वित्तीय प्रबन्ध ही एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी प्रकृति मूलतः केन्द्रीकृत है। आधुनिक औद्योगिक उपक्रम में विपणन में उत्पादन कार्यों का विकेन्द्रीकरण तो सम्भव है, किन्तु वित्त कार्य का विकेन्द्रीकरण व्यावहारिक दृष्टि से वांछनीय नहीं होता है, क्योंकि वित्तीय समन्वय एवं नियन्त्रण की स्थिति केन्द्रीकरण के द्वारा ही स्थापित की जा सकती है। इस स्थिति को स्थापित किये बिना व्यवसाय के उद्देश्यों की पूर्ति सम्भव नहीं होगी।

    (6) व्यावसायिक समन्वय- किसी भी उपक्रम में वित्तीय प्रबन्धक अन्य विभागों के सहयोग तथा समन्वय के बगैर सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। अतः आधुनिक युग में वित्तीय प्रबन्धक उपक्रम के सभी कार्यों से समन्वय स्थापित कराता है।

    (7) उच्च प्रबन्धकों के निर्णन में सहायक- वित्तीय प्रबन्ध की आधुनिक विचारधारा के आधार पर वित्तीय प्रबन्धक उपक्रम के सर्वोत्तम प्रबन्ध को निर्णय लेने में सहायता पहुँचाता है। दूसरे अर्थों में वित्तीय प्रबन्ध को सर्वोच्च प्रबन्ध की सफलता के लिए महत्वपूर्ण भूमिका प्राप्त है।

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    वित्तीय प्रबन्ध का महत्व

    व्यवसाय में आये दिन प्रबन्धकों को महत्वपूर्ण निर्णय लेने होते हैं। आज के प्रतियोगितात्मक युग में प्रत्येक नर्णय को अन्तिम रूप देने से पहले उसके वित्तीय पक्ष की जाँच-परख करना अनिवार्य हो गया है। निर्णय व्यवसाय चाहे किसी भी क्षेत्र से सम्बद्ध क्यों न हो, वित्तीय प्रबन्धक की परामर्श की अवहेलना करके उसे क्रियान्वित करना कर्म में जोखिम की सीमा में वृद्धि कर सकता है। 

    हसबैंड एवं डोकरे की राय में, "विभिन्न आर्थिक एवं व्यावसायिक अतिविधियों को एक सूत्र में बाँधने के लिये वित्तीय आवश्यकता होती है।" 

    इसी कारण वित्तीय प्रबन्ध, व्यवसाय प्रबन्ध का एक प्रमुख अंग बन गया है। व्यवसाय की प्रत्येक गतिविधि के साथ वित्त का प्रश्न जुड़ा होता है। विभिन्न कार्य-कलापों के क्रम में पग-पग पर अनेक वित्तीय समस्यायें सामने खड़ी रहती हैं और उनका सही विश्लेषण एवं चित निराकरण आवश्यक होता है। यह तभी सम्भव हो सकता है, जबकि वित्त का प्रबन्ध कुशल एवं अनुभवी विशेषज्ञों को सौंपा जाये। 

    जे. एफ. ब्रेडले का मत है, कि "वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध का वह क्षेत्र है जसका सम्बन्ध पूँजी का सम्यक् प्रयोग एवं पूँजी के साधनों के सतर्कतापूर्ण चयन से है, ताकि व्यवसाय को इसके उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में निर्देशित किया जा सके।"

    अतः वास्तव में, वित्तीय प्रबन्ध के महत्व और उपयोगिता का अध्ययन निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है-

    (1) प्रवन्धकों के लिये महत्व- वित्तीय प्रबन्ध के आधुनिक सिद्धान्तों की समुचित जानकारी के बिना प्रबन्धक अपनी भूमिका का निर्वाह भली प्रकार नहीं कर सकते हैं। प्रबन्धक जनता विनियोजित धन के प्रन्यासी (Trustees) होते हैं है और निगमों में जनता के विभिन्न वर्गों की पूँजी का विनियोग किया जाता है जिसकी सुरक्षा का भार प्रबन्धकों पर ही होता है। प्रबन्धकों को यह भी ध्यान रखना होता है कि विनियोग पूँजी की मात्रा पर नियमित रूप में उचित लाभ प्राप्त होता रहे, ताकि सदस्यों को विनियोजित पूँजी एवं जोखिम के लिए समुचित लाभांश दिया जा सके। यह तभी सम्भव है जब प्रबन्धकों को वित्तीय प्रबन्ध के सिद्धान्तों का पूर्ण ज्ञान हो जिसके आधार पर वे ठीक-ठीक वित्तीय नीतियों का निर्धारण और परिपालन कर सकें।

    (2) अंशधारियों के लिये महत्व- कम्पनी का स्वामित्व अंशधारियों में निहित होता है। संख्या अधिक होने के कारण वे प्रबन्ध में प्रत्यक्ष भाग नहीं लेते और प्रबन्ध का भार निर्वाचित संचालक-मण्डल को सौंप देते हैं। संचालक-मण्डल अशंधारियों के हित में इस कर्तव्य का किस सीमा तक और किस प्रकार पालन करते है, यह देखना अंशधारियों का कार्य है। यदि अंशधारी वित्तीय प्रबन्ध के सिद्धान्तों से अवगत हो तो वे कम्पनी की साधारण सभाओं में कम्पनी की वित्तीय दशा का उचित मूल्यांकन कर सकेंगे। यदि संचालक हित के विरुद्ध कार्य करते रहे है तो उन्हें उपर्युक्त वित्तीय-नीति अपनाने के लिए बाध्य कर सकेंगे।

    (3) पूँजी निवेशकों के लिए महत्व- देश के अनेक विनियोक्ता संचित पूँजी का विनियोग इन कम्पनियों की प्रतिभूतियों में करते है। विनियोक्ताओं में धनी एवं साधारण सभी वर्गों के व्यक्ति होते हैं उनका मार्गदर्शन करने के लिए देश में विनियोग बैंकों का अभाव रहा तथा उन्हें विनियोग के लिए 'सिक्योरिटी डीलर्स' (Security Dealers) तथा 'वित्तीय दलालों' (Financial Brorkers) पर निर्भर रहना होता है। उन सबसे यह आशा नहीं की जा सकती है कि वे स्वयं निर्णय कर सकें कि किस कम्पनी का चुनाव किया जाये अथवा किन प्रतिभूतियों में धन लगाया जाये? किन्तु जिन विनियोक्ताओं को वित्तीय प्रबन्ध के सिद्धान्तों का ज्ञान होता है, वे स्वयं इस विषय में उचित निर्णय करने की स्थिति में हो जाते है। ऐसे विनियोक्ता भी जो स्थायी अंशधारी न बनकर केवल परिकल्पकों (Speculators) के रूप में ही विनयोग करते है, विषय के ज्ञान से लाभ प्राप्त करते हैं। पिछले कुछ दशकों में इक्विटी अंशों की लोकप्रियता के कारण देश में 'इक्विटी कल्ट' (Equity- का प्रसार हुआ है। अतः अंशों एवं परिवर्तनीय ऋणपत्रों की ओर सामान्य-जनों का रुझान बढ़ा है।

    (4) वित्तीय संस्थाओं के लिए महत्व- अभिगोपकों विनियोग बैंकों एवं प्रन्यास कम्पनियों के व्यवस्थापकों के लिए प्रस्तुत विषय का व्यापक ज्ञान अनिवार्य है। अतिरिक्त व्यापारिक बैंकों एवं अन्य सभी प्रकार की वित्तीय संस्थाओं के प्रबन्धकों को भी विषय का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। यही कारण है कि प्रायः इस प्रकार की संस्थाएँ अपने लिए ऐसे वित्तीय विशेषज्ञों की सेवाएँ प्राप्त करती हैं जो वित्तीय प्रबन्ध के प्रत्येक पहलू से पूर्ण परिचित होते हैं। इसके बिना ऐसी संस्थाएँ पूँजी लगाने के इच्छुक ग्राहकों का उचित पथ-प्रदर्शन करने में सफल नहीं हो सकती हैं।

    (5) कृषि क्षेत्र में महत्व- उन्नत कृषि के लिये कृषि क्षेत्र वित्तीय प्रबन्ध की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि आज कृषकों को अच्छे बीज, रसायन खादों और कृषि यन्त्रों के सन्दर्भ में चुनाव हेतु वित्तीय परामर्श जरूरी होता है।

    (6) कर्मचारियों के लिए महत्व- आज औद्योगिक उपक्रमों में श्रम संघों का महत्व बढ़ा है। कर्मचारी संघ के नेताओं में वित्त की प्रवीणता हासिल रहने पर वे कर्मचारियों की मजदूरी,बोनस, भत्ते व अन्य सुविधाओ को बढ़ाने के लिये कारगर ढंग से माँगों को रख सकते हैं।

    (7) अन्य के लिये महत्व- अन्य सब ऐसे व्यक्तियों को भी जो देश की आर्थिक समस्याओं में रुचि रखते हैं, निगमों के वित्तीय प्रबन्ध का ज्ञान लाभ पहुँचाता है, जैसे- अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, राजनीतिज्ञ, वाणिज्य एवं व्यवसाय के विद्यार्थी इत्यादि।

    वित्त कार्य अथवा वित्तीय प्रबन्ध का क्षेत्र

    औद्योगिक और व्यावसायिक उपक्रम में वित्तीय प्रबन्धक को जो भी कार्य करने होते हैं, उन्हें ही वित्त कार्य कहा जा सकता है। सामान्य अर्थ में किसी व्यावसायिक संस्था की वित्तीय व्यवस्था करना ही वित्त कार्य है परन्तु प्रबन्धक के कार्यों तथा उनके नामों के बारे में वित्तवेत्ता एकमत नहीं हैं। कुछ वित्तवेत्ताओं ने वित्तीय प्रबन्धकों के द्वा किये जाने वाले निर्णयों के अनुसार इनके कार्यों को विनियोग निर्णय (Investment Decision), वित्त प्रबन्धन निर्णय (Financing Decision) तथा लाभांश नीति निर्णय (Dividend Policy Decision) का नाम दिया है। कुछ वित्तवेत्ताओं ने वित्त प्रबन्ध के कार्यों को प्रशासनिक कार्य (Administrative Function) तथा नैत्यक या दैनिक कार्य (Routine or Daily Functions) दो भागों में बाँटा है। 

    अतः वर्तमान में वित्तीय प्रबन्ध की विचारधारा में परिवर्तन के साथ-साथ वित्तीय प्रबन्ध के क्षेत्र अथवा दायरे में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है। फलस्वरूप, वित्तीय प्रबन्ध के कार्यों का अध्ययन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

    (1) वित्तीय नियोजन- इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कार्यों का समावेश होता है- उद्देश्यों का निर्धारण, नीतियों का निर्धारण, कार्यविधि का निर्धारण, वित्तीय योजनाओं का निर्माण, पूँजीकरण तथा पूँजी ढाँचे का निर्माण, सम्भावित परिवर्तन हेतु अग्रिम आयोजनों की व्यवस्था आदि।

    (2) वित्त प्राप्ति की व्यवस्था- पूर्वानुमानित पूँजीकरण एवं प्रस्तावित पूँजी-ढाँचे के अनुसार विभिन्न स्रोतों से व्यवसाय संचालन के लिए अपेक्षित पूँजी संकलन से सम्बद्ध आवश्यक कार्यों को सम्पन्न करना।

    (3) वित्तीय प्रशासन (Financial Administration)- इसके अन्तर्गत सम्मिलित कार्यों को निम्न प्रकार से उप-विभाजित किया जा सकता है-

    (क) वित्त-कार्य का संगठन- वित्तीय विभाग एवं उप-विभागों का संगठन एवं कोषाध्यक्ष (Treasurer) एवं नियन्त्रक (Controller) के कार्यों, अधिकारों एवं दायित्वों का निर्धारण एवं समस्त लेखा-पुस्तकों के उचित रख-रखाव की व्यवस्था।

    (ख) सम्पत्तियों का प्रभावपूर्ण प्रबन्ध- स्थिर सम्पत्तियों (Fixed Assets) की खरीद से सम्बन्धित वित्तीय पहलुओं पर विचार-विमर्श एवं उचित परामर्श, चल-सम्पत्तियों (Current Assets) की समयानुकूल पूर्ति की व्यवस्था करना, सम्पत्तियों के प्रबन्ध से सम्बद्ध नीतियों के निर्धारण में उच्च स्तर पर प्रबन्धको को सलाह देना, जैसे- स्थिर सम्पत्तियों के प्रबन्ध की नीति, विक्रय एवं वसूली नीति, विक्रय मूल्य निर्धारण, रोकड़-नीति (Cash-Policy), इनवेन्टरी प्रबन्ध नीति (Inventory Management Policy), सेविवर्गीय प्रबन्ध नीति (Personnel Management Policy) के वित्तीय पहलुओं को निरूपित करना एवं उनके निर्धारण एवं क्रियान्वयन में सक्रिय सहयोग करना।

    (ग) वित्तीय नियन्त्रण- यह वित्तीय प्रशासन का एक प्रमुख अंग है। वस्तुतः इसके बिना व्यावसायिक लक्ष्यों की पूर्ति करना सम्भव नहीं होता है। वित्तीय नियन्त्रण की आधुनिक विधियों के द्वारा ही वित्त-विभाग व्यवसाय के सब विभागों द्वारा वित्तीय परिसीमाओं के अतिक्रमण को रोकने में सफल होता है। पूँजी बजट, रोकड़ बजट तथा लोचपूर्ण बजटिंग (Flexible Budgeting) प्रणालियों के द्वारा वित्त-विभाग इस कार्य को पूरा करता है।

    (4) वार्षिक वित्तीय विवरणों का निर्माण एवं लाभ का निर्धारण- इसके अन्तर्गत तुलन-पत्र (Balance-Sheet) एवं आय-विवरण (Income-Statement) अथवा लाभ-हानि लेखा (Profit and Loss Account), प्रावधानों, ब्याज एवं करों आदि के समायोजन के बाद शुद्ध लाभ की मात्रा का निर्धारण सम्मिलित होता है।

    (5) शुद्ध लाभ का निविधान- अंशधारियों को शुद्ध लाभ का कितना भाग लाभांश (Dividend) के रूप में वितरित किया जाये तथा कितना भाग व्यवसाय में संचित कोषों के रूप में धारित (Retain) किया जाये? इस प्रकार के निर्णयों का सम्बन्ध लाभांश एवं प्रतिधारित आय के पारस्परिक अनुपात से जुड़ा होता है जिसका निर्णायक प्रभाव कम्पनी के अंशों के भावी बाजार मूल्यों पर पड़ता है। अतः लाभांश-नीति (Dividend-Policy) का निर्धारण वित्तीय प्रबन्ध का एक प्रमुख दायित्व माना जाता है। इसी प्रकार यदि आवश्यक हो तो कर्मचारियों को लाभ में भागीदारी अथवा बोनस के भुगतान की व्यवस्था और यदि कोषों के पूँजीकरण का प्रश्न है तो अंशधारियों को बोनस अंशों के निर्गमन की व्यवस्था करना भी इस क्षेत्र का ही उत्तरदायित्व है।

    (6) वित्तीय निष्पत्ति का मूल्यांकन- विगत वर्षों की प्रगति की तुलना में चालू वर्ष की कार्य-निष्पत्ति का समीक्षात्मक मूल्यांकन करना तथा इसके लिए वित्तीय विश्लेषण (Financial Analysis) की आधुनिक विधियों का उपयोग, जैसे- अनुपात विश्लेषण, प्रवृत्ति विश्लेषण, कोष प्रवाह विश्लेषण, लागत लाभ मात्रा विश्लेषण, विचरणांश विश्लेषण आदि। इसी प्रकार उस क्षेत्र में कार्यरत अन्य समान कम्पनियों की तुलना में प्रस्तुत कम्पनी की कार्य-निष्पत्ति का मूल्यांकन करना भी वित्तीय प्रबन्ध के दायरे में ही आता है।

    इसके लिए अन्तर-वर्ष तुलना (Inter-year Comparison) तथा अन्तर-फर्म तुलना (Inter-firm Comparison) की विधियों का प्रयोग किया जाता है। प्रथम विधि के अन्तर्गत, कम्पनी की चालू वर्ष की कार्य-निष्पत्ति की तुलना विगत वर्षों में उसके द्वारा की गयी कार्य-निष्पत्ति के स्तर से की जाती है। इसका प्रयोजन यह ज्ञात करना होता है कि पिछले वर्षों में कम्पनी की प्रगति कैसी रही है? द्वितीय विधि के अन्तर्गत कम्पनी की चालू वर्ष की कार्य-निष्पत्ति का तुलनात्मक मूल्यांकन उसी क्षेत्र अथवा उद्योग में कार्यरत कम्पनियों की उसी वर्ष की कार्य निष्पत्ति से किया जाता है।

    मूल्यांकन का यह कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि सही एवं निष्पक्ष मूल्यांकन के आधार पर ही प्रबन्धको के समक्ष कमियों एवं त्रुटियों को प्रस्तुत किया जा सकता है; ताकि अगले वर्ष के लिए नीतियों एवं कार्यविधियों में वांछित परिवर्तन किया जा सके।

    (7) विकास एवं विस्तार के लिए अतिरिक्त पूँजी की व्यवस्था- पूँजी की लागत (Cost of Capital), स्वामित्व, नियन्त्रण, जोखिम एवं आय पर पड़ने वाले प्रभावों के सन्दर्भ में अतिरिक्त वित्त-प्राप्ति के विभिन्न वैकल्पिक साधनों पर विचार-विमर्श करके उचित परामर्श देना। आवश्यकता पड़ने पर विकास, विस्तार, एकीकरण एवं संविलयन की योजनाओं के वित्तीय पहलुओं की जाँच करना तथा तत्सम्बन्धित प्रासंगिक कार्यों को सम्पन्न करना।

    (8) विविध (Miscellaneous)- वित्तीय प्रबन्ध के क्षेत्र में उपर्युक्त के अतिरिक्त और भी अनेक कार्य आते है, जैसे- प्रबन्धकों के लिए प्रतिवेदन (Reporting for Management) की उचित व्यवस्था, अल्पकालीन ऋणों की तथा अतिरिक्त धनराशियों के अल्पकालीन विनियोग की उचित व्यवस्था; ताकि रोकड़ आगमों (Cash Inflows) एवं रोकड़ निर्गमों (Cash Outflows) में निरन्तर तालमेल रखा जा सके। सम्पत्तियों के बीमे, भविष्य निधि एवं अनुग्रह-राशियों के भुगतान आदि की व्यवस्था तथा समय पर विविध करों (Taxes) के भुगतान की व्यवस्था आदि का दायित्व भी इस क्षेत्र को ही वहन करना होता है।

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