भारतीय राजनीति में जाति एवं धर्म की भूमिका का वर्णन कीजिए

 भारतीय राजनीति में जातिवाद की भूमिका

भारतीय राजनीति में जातिवाद की भूमिका का मूल्यांकन करने से पूर्व जातिवाद क्या है, को जानना आवश्यक है। जब व्यक्ति, वर्ग, सरकार या राजनीतिक दल द्वारा राजनीति में लाभ के लिए जाति का प्रयोग किया जाता है तो वह जातिवाद है। जातीय आधार पर लाभ पाने या लाभ प्रदान करने को भी जातिवाद कहा जाता है, साथ ही साथ जब कोई अपनी जाति को उच्च समझता है और दूसरे की जाति को निम्न समझकर उससे घृणा करता है तो वह भी जातिवाद है।

भारतीय राजनीति में जातिवाद एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है जिस पर अनेक शोध हुए हैं। भारत की राजनीतिक प्रक्रिया में जाति की भूमिका को लेकर विद्वानों के बीच मतभेद रहे हैं। विदेशी विद्वानों ने तो कहा है कि भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका स्पष्ट एवं व्यापक है। ऐसा कहने वाले विदेशी विद्वानों में हार्डमेव, हैरिसन और रुडल्फ एण्ड रुडल्फ प्रमुख हैं। दूसरी ओर, भारतीय विद्वानों और शोधकर्ताओं ने भारतीय राजनीति में जातिवाद की भूमिका को महत्वपूर्ण नहीं माना है।

अब प्रश्न उठता है कि भारतीय राजनीति में जातिवाद की भूमिका को लेकर किससे सहमत हुआ जाए, विदेशी विद्वान या भारतीय विद्वान से इस प्रश्न के उत्तर को जानने के लिए निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत जाति की भूमिका को देखना होगा-

1. राजनीतिक दलों का निर्माण और जातिवाद

भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों के निर्माण शुरूआती राजनीतिक प्रक्रिया मानी जाती है। भारत में राजनीतिक दलों के निर्माण में जाति की भूमिका कमोबेश देखने को मिलती रही है, चाहे दक्षिण भारत की राजनीति हो या उत्तरी भारत की। तमिलनाडु में अगर देखें तो डी.एम.के. (D.M.K.) और ए.आई.डी.एम.के. (A.I.D.M.K.) जैसे राजनीतिक दलों के निर्माण के पीछे गैर-बाह्मण जाति की राजनीति रही है। इसके सिद्धान्त स्पष्ट रूप से ब्राह्मण जाति के खिलाफ रहे हैं। उत्तरी भारत की राजनीति में राजनीतिक दलों के निर्माण को देखें तो राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन, समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, बिहार पीपुल्स पार्टी जैसे राजनीतिक दलों के निर्माण के पीछे भी जातीय भावना ही रही है। कहना न होगा कि कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ तथाकथित मार्क्सवादी सिद्धान्तों को स्वीकार करने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और माकपा जैसे राजनीतिक दल भी जातीय लाभ प्राप्त करने से चूकते नहीं हैं। 1999 के चुनाव से पूर्व भारतीय जनता पार्टी मुख्यतः वैश्य या रोजगार करने वाली जातियों की पार्टी के रूप में जानी जाती रही है, भले ही 1999 के बाद इससे सवर्ण जाति ने भी अपने आपको जोड़ लिया। जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है तो इसके निर्माण में तो नहीं लेकिन कार्य में जातिवादी तत्वों को ढूँढ़ा जा सकता है। कांग्रेस पर बाह्मणवादी व्यवस्था के समर्थक होने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन, 2009 के चुनावों में इसका कम प्रभाव देखा गया है।

2. चुनाव में प्रत्याशियों का चयन और जातिवाद 

भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में चुनाव का होना काफी महत्व रखता है लेकिन इसमें भी जाति की भूमिका देखने को मिलती है। चुनाव हेतु प्रत्याशियों का चयन एक महत्वपूर्ण विषय है जिसमें भी जातिवाद दृष्टिगोचर होता है। प्रायः यह देखा जाता है कि भारत के तमाम राजनीतिक दल चुनाव क्षेत्र में जातीय बहुलता को देखते हुए अपने प्रत्याशी खड़े करते हैं। जिस क्षेत्र में जिस जाति की बहुलता होती है, प्रायः सभी राजनीतिक दल उसी जाति का अपना उम्मीदवार बनाते हैं। यह बात शत-प्रतिशत सत्य है और कोई भी राजनीतिक दल इस बात को मानने से इन्कार नहीं कर सकता।

3. मत व्यवहार और जातिवाद 

भारतीय राजनीति में मत व्यवहार में भी स्पष्टतः जाति की भूमिका परिलक्षित होती है। हैरिसन जैसे विदेशी विद्वानों का मानना है कि भारत में मत व्यवहार में जाति का प्रभाव बहुत ज्यादा रहा है। अब तक के मत व्यवहार में यद्यपि पूर्ण रूप से हैरिसन के मत की पुष्टि नहीं हो पाती है कि जातिवाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व मत व्यवहार में रहा है परन्तु इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि मत व्यवहार में जाति ने बहुत प्रभाव नहीं डाला है। प्रत्याशी की चाहे दल या विचारधारा कोई भी हो, उसकी जाति के लोगों का समर्थन प्रायः उसे मिलता ही है। राजनीतिक दल द्वारा भी जातीय भावना को उभारकर मत व्यवहार को प्रभावित किया जाता रहा है।

4. मन्त्रिमण्डल का गठन और जातिवाद

मन्त्रिमण्डल के गठन में भी जातिवाद की भूमिका देखने को मिलती रही है। स्वतन्त्र भारत के शुरूआती दिनों के मन्त्रिमण्डल के गठन से लेकर आज तक मन्त्रिमण्डल के गठन में जातीयता को आधार पर बनाया जाता रहा है। चुनाव पश्चात् मन्त्रिमण्डल का गठन होता है और सरकार का यह ध्यान रहता है कि मन्त्रिमण्डल में सभी जातियों को प्रतिनिधित्व दिया जाये चाहे उनकी योग्यता एवं क्षमता मन्त्री पद के लिए कम क्यों नहीं साबित हो। अभी पिछले दिनों वाजपेयी मन्त्रिमण्डल में बिहार के कुछ सांसदों ने जातीय आधार पर मन्त्री पद की माँग की और मजे की बात है कि वाजपेयी सरकार ने जातीयता से प्रभावित होकर उन्हें मन्त्री पद प्रदान भी किया। वाजपेयी सरकार ही नहीं, अन्य सरकारें भी इस प्रकार के कार्यों का सम्पादन करती आयी है।

5. सरकार का निर्णय और जातिवाद 

सरकारी निर्णयों में भी जातिवाद का प्रभाव देखने को मिलता रहा है। सरकार के द्वारा हमेशा इस बात को ध्यान में रखा जाता है कि उसका कोई ऐसा निर्णय न हो कि कोई जाति विशेष उससे नाराज हो। कुछ परिस्थितियों में सरकार कुछ जाति विशेष के खिलाफ भी नीति का निर्माण करती है। जब उसे अन्य जातियों से ज्यादा लाभ की प्राप्ति नजर आती है तो उसके द्वारा जातीय आधार पर नीति-निर्माण भी किया जाता है। 1990 में पी. वी. नरसिंह सरकार द्वारा जातीय लाभ के लिए 'मण्डल कमीशन' की घोषणा की गयी। अभी हाल में वाजपेयी मन्त्रिमण्डल द्वारा आदिवासी जातियों के ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक लाभ उठाने के लिए अलग राज्य तक का निर्माण सम्बन्धी निर्णय लिया गया। स्पष्टतः यह कहा जा सकता है कि सरकारी नीति-निर्माण में भी जातिवाद की भूमिका दृष्टिगोचर होती रही है।

6. राजनीतिक पुरस्कारों का वितरण और जातिवाद 

राजनीतिक पुरस्कारों के वितरण में भी जातिवादी तत्वों की भूमिका दृष्टिगोचर होती रही है। प्रायः यह देखा जाता है कि सत्तारूढ़ दल के महत्वपूर्ण लोग अपनी ही जाति विशेष के लोगों को विभाग और बोर्ड के प्रमुख पद पर बैठाते हैं। जातिवाद का प्रभाव राजनीतिक क्षेत्र तक सीमित न रहकर प्रशासकीय क्षेत्र में भी दिखाई पड़ता है। सरकारी पदाधिकारियों द्वारा विभिन्न व्यक्तियों के बीच जाति के आधार पर भेदभाव किये जाने की घटनाएँ सामने आती रही हैं।

7. जातिवाद और राज्यों की राजनीति

जातीय राजनीति हर राज्य में अलग-अलग रही है और समीकरण बदलते रहे हैं। पहले, तमिलनाडु में A.I.D.M.K. और D.M.K. के उदय एवं विकास के चलते ब्राह्मण जाति पराजित हो चुकी है। दूसरे, महाराष्ट्र की राजनीति में राजनीति संघर्ष मराठों और ब्राह्मणों के बीच रही है। तीसरे, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में कुछ मध्यम वर्गीय जातियाँ राजनीतिक संघर्ष में सक्रिय हैं।

अन्त में, बिहार की स्थिति उपरोक्त राज्यों से भिन्न है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद एक लम्बे समय तक राजनीतिक नेतृत्व उच्च जातियों के हाथ में रहा। इसलिए यह स्वाभाविक है कि उस समय राजनीतिक संघर्ष इन्हीं जातियों के बीच चला। कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमन्त्रित्वकाल में जातिवाद राजनीति में परिवर्तन आया और मध्य जातियाँ बिहार की राजनीति में सक्रिय हुईं। 1990 में मण्डल कमीशन के लागू होने के चलते उच्च जातियों ने विरोध किया और उच्च जाति बनाम अन्य जातियों की राजनीति शुरू हुई। 1994 के बाद लालू प्रसाद यादव द्वारा माई (My) का नारा (मुस्लिम और यादव) बनाम अन्य की राजनीति चल रही है। आज स्थिति यह है कि उच्च जाति के साथ बनिया, कोरी, कुर्मी, कोहरी के साथ अन्य मध्य जाति के लोग मिल गये हैं और खासकर 'यादव' जाति का विरोध और राजनीतिक पतन का प्रयास कर रहे हैं तथापि बिहार विधानसभा में यादव जाति के उम्मीदवारों की संख्या देखकर इसके प्रभाव का अन्दाजा लगाया जा सकता है। इस प्रकार बिहार की जातीय राजनीति का स्वरूप कुछ ज्यादा ही परिवर्तित हुआ है।

भारतीय राजनीति में अब तक जाति के प्रभाव की चर्चा से स्पष्ट है कि जाति ने भारतीय राजनीति को सामान्य तौर पर और राज्यों की राजनीति को विशेष रूप से प्रभावित किया है परन्तु भारतीय राजनीति को केवल जातिवाद को ध्यान में रखकर ही समझने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। यह तो सर्वविदित है कि भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका महत्वपूर्ण है और जब तक भारतीय समाज का आधुनिकीकरण नहीं हो जाता है, तब तक यह प्रभाव बना रहेगा परन्तु साथ ही साथ यह बात ध्यान देने योग्य है कि भारत में शहरीकरण, औद्योगीकरण तथा आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के बढ़ने के साथ-साथ जाति की राजनीति पर प्रभाव के कम होने की सम्भावना बढ़ी है और सच पूछा जाय तो कुछ क्षेत्रों में इसका प्रभाव निश्चित रूप से कम हुआ है। उदाहरण के तौर पर, भारतीय मतदाताओं का मतदान व्यवहार वर्तमान समय से जातिगत विचारों से पहले की भाँति प्रभावित नहीं होता है। 1971, 77, 80 और 1984 के संसदीय निर्वाचन में मतदान व्यवहार से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ज्यों-ज्यों भारत में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी, राजनीति में जाति का प्रभाव आवश्यक रूप से कम होगा।

भारतीय राजनीति में धर्म

भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका को स्पष्ट करने से पूर्व धर्म को परिभाषित करना आवश्यक है। जब राजनीति में धर्म का गलत प्रयोग होने लगता है या धर्म अथवा भाषा के आधार पर किसी समूह विशेष के हितों पर बल दिया जाए और उन हितों को राष्ट्रीय हितों से ऊपर रखा जाता है या जब कोई धर्म के आधार पर लाभ लेने या लाभ प्रदान करने जैसे कार्यों को करने लगता है तो इन सभी बातों को साम्प्रदायवाद के अन्तर्गत रख दिया जाता है। साथ ही अगर कोई अपने धर्म से विशेष लगाव रखता है और गैर-धर्म से घृणा नहीं करता तो उसे सम्प्रदायवाद नहीं कह सकते हैं यानि मन्दिर में रात-दिन पूजा करना और सर्वधर्म समभाव की बात करना तथा मस्जिद में पाँच वक्त नमाज अदा करना और सभी कौम की तरक्की हेतु परवरदिगार से दुआ माँगना साम्प्रदायिकता नहीं है। धर्म अथवा सम्प्रदायवाद राष्ट्र निर्माण के मार्ग में महत्वपूर्ण बाधा है। जब तक भारत जैसे देश में लोग धार्मिक तत्वों से प्रभावित होते रहेंगे, तब तक भारतीय राजनीति की दिशा न तो आधुनिकीकरण की ओर मुड़ सकती है और न ही धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का निर्माण हो सकता है।

जहाँ तक भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका का सवाल है तो इसके सम्बन्ध में भी विद्वानों के बीच मतभेद हैं। विदेशी विद्वानों का वर्ग जिनमें हैरीसन, हार्डमेव, रुडल्फ प्रमुख हैं, का विचार है कि धर्म की भारतीय राजनीति में व्यापक भूमिका रही है। ठीक इनके विपरीन देशी विद्वानों नों ने ने भारतीय राजनीति में में धर्म की भूमिका को महत्वपूर्ण मानने से इन्कार कर दिया है। इनका मानना है कि भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका है ही नहीं क्योंकि भारत तो एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। वास्तव में, भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका कहाँ तक दृष्टिगोचर हुई है, यह विवेचना का महत्वपूर्ण विषय है जिन्हें निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है-

1. राजनीतिक दलों के निर्माण और कार्यकरण में धर्म की भूमिका 

भारत में राजनीतिक दलों के निर्माण और कार्यकरण में धर्म की भूमिका कमोबेश देखने को मिलती रही है। स्वतन्त्र भारत के शुरूआती दिनों में महत्वपूर्ण हिन्दूवादी राजनीतिक दल 'जनसंघ' की स्थापना धर्म विशेष के उद्देश्यों को लेकर ही हुई थी जिसे 1980 के बाद से भारतीय जनता पार्टी के नाम से जाना जा रहा है। मुस्लिम लीग की स्थापना भी मजहब या धर्म विशेष के हितों को लेकर हुई है। इस प्रकार स्पष्ट हो रहा है कि भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों का निर्माण कम ही सहीं किन्तु धार्मिक भावना से प्रभावित होकर की गयी है। जहाँ तक राजनीतिक दलों के कार्यकरण का सवाल है तो इससे कोई भी राजनीतिक दल अपने आपको अछूता नहीं रख सकता है। शुरू से और खासकर इन्दिरा गाँधी के युग से लेकर 1990 तक कांग्रेस की नीति मुस्लिम समाज के बोट बैंक को हथियाने की रही है और इसके लिए उसके द्वारा तुष्टिकरण को बढ़ावा दिया जाता रहा है। भाजपा तो धार्मिक आधार पर व्यापक वोट बैंक को सुरक्षित करने के लिए शुरू से ही बदनाम रही है। हद तो उस समय हो गयी जब भाजपा समर्थकों द्वारा दिसम्बर 1992 में अयोध्या में स्थित बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया। राजद जैसे कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों पर भी दृष्टिकोण सम्बन्धी सिद्धान्तों पर चलने के आरोप लगते रहे हैं।

2. भारतीय राजनीति में दबाव समूहों के निर्माण में धर्म की भूमिका 

भारतीय राजनीति में दबाव समूह की भूमिका बहुत पहले से स्वीकार की जाती रही है और इसने भारतीय राजनीति को बहुत हद तक प्रभावित भी किया है। ऐसी स्थिति में यह अनिवार्य हो जाता है कि हम दबाव समूह के निर्माण के पीछे धर्म की भूमिका या प्रभाव का विवेचन करें।

भारतीय राजनीति में बहुत-से दबाव समूह धर्म के आधार पर निर्मित हुए हैं जिनमें R.S.S., जमायते उलमा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और हाल में चर्चा में रहीं 'सिमी' हैं।.

3. प्रत्याशियों के चयन में धर्म की भूमिका

भारतीय राजनीति में प्रत्याशियों के चयन में भी धर्म की भूमिका देखने को मिल रही है। प्रायः यह देखा जाता है कि राजनीतिक दलों द्वारा क्षेत्र-विशेष में उम्मीदवारों का चयन उस क्षेत्र के धर्म-विशेष की जनसंख्या के आधार पर किया जाता है यानि जिस क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय की बहुलता होती है, वहाँ प्रायः सभी राजनीतिक दल मुस्लिम समुदाय के लोगों को ही अपना प्रत्याशी बनाते हैं। उदाहरण के तौर पर, बिहार के किशनगंज संसदीय क्षेत्र को रखा जा सकता है जहाँ भाजपा जैसी धर्म विशेष की बात करने वाली पार्टी भी मुस्लिम समुदाय से अपना प्रत्याशी खड़ा करती है। अन्य राजनीतिक दल भी इस मामले में समान ही हैं।

4. मत-व्यवहार में धर्म की भूमिका 

भारतीय राजनीति में मत-व्यवहार को अति महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया माना जाता है जिसे लोकतान्त्रिक व्यवस्था का महापर्व कहा जाता है क्योंकि इसकी निष्पक्षता पर ही लोकतन्त्र के आदर्श को प्राप्त किया जा सकता है लेकिन भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश की राजनीतिक प्रक्रिया और उसकी विशेषता से मत व्यवहार में धर्म और नकारात्मक परम्परागत तत्वों की भूमिका दृष्टिगोचर होती रहती है जिसने राजनीतिक व्यवस्था को राजनीतिक आधुनिकीकरण और राजनीतिक विकास से कोसों दूर खड़ा कर दिया है। प्रायः यह देखा जाता है कि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी महापर्व में धार्मिक भावना को उभारकर लाभ हासिल करने का सफल कुप्रयास किया जा रहा है। इस बात का अपवाद भारत की कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं है।

'भाजपा' और 'मुस्लिम लीग' का तो धार्मिक रिकार्ड बदनाम रहा ही है, भारत की जनता भी राजनीतिक दलों के बहकावे में आकर धर्म पर आधारित मत-व्यवहार करती रही है। प्रायः यह देखा जाता रहा है कि मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग हिन्दू सम्प्रदाय के लोगों के विपरीत मतों का व्यवहार करते रहे हैं। हिन्दू सम्प्रदाय के लोग भी अधिकांशतः मुस्लिम सम्प्रदाय के खिलाफ अपने धर्म के प्रत्याशियों को ही मत देते हैं जिसे भी कदापि सही नहीं कहा जा सकता ।

5. मन्त्रिमण्डल के गठन में धर्म की भूमिका 

मन्त्रिमण्डल के गठन में भी धर्म की भूमिका देखी जाती रही है। प्रायः अब तक की सभी सरकारों ने इस बात का ध्यान रखा है कि उसके मन्त्रिमण्डल में सभी समुदायों के लोगों का प्रतिनिधित्व रहना चाहिए, इसलिए नहीं कि वे 'सर्वधर्म समभाव' वाली अवधारणा को लेकर चलते हैं बल्कि इसलिए कि उनकी धार्मिक वोट बैंक बनी रहे। वर्तमान भाजपा गठबन्धन सरकार द्वारा अगर कुछ नये सांसदों को मन्त्री पद प्रदान किया गया है तो उसका कारण धार्मिक आधार ही है। दूसरे शब्दों में, अब तक चाहे किसी की भी सरकार रही हो, वह मन्त्रिमण्डल के गठन में योग्यता व अयोग्यता जैसे महत्वपूर्ण पहलू को नजरअंदाज करते हुए धर्म जैसे गैर-राजनीतिक पहलू को महत्व प्रदान करती रही है। इसके अपवाद में भी भारत के लगभग किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को नहीं रखा जा सकता है।

6. सरकारी नीति निर्धारण में धर्म की भूमिका 

सरकार की नीति-निर्धारण की प्रक्रिया में भी धर्म की भूमिका का कमोबेश अवलोकन किया ही जा सकता है। स्वतन्त्र भारत के पहले भी भारतीय राजनीति में धर्म ने सफल कुप्रभावी भूमिका निभायी है और स्वतन्त्र भारत के शुरूआती लोकतान्त्रिक व्यवस्था में भी इसका प्रभाव रहा है। प्रायः यह देखा जाता रहा है कि सरकार व्यापक राष्ट्रहित में भी कुछ ऐसा निर्णय नहीं ले पाती है जिससे उसका वोट बैंक बिगड़ता हो। इस सम्बन्ध में परिवार नियोजन कार्यक्रम की भयंकर समस्या और सरकार की धार्मिक भावना से प्रभावित होकर उदासीनता की स्थिति को देखा जा सकता है। अब तक की कोई भी सरकार इस दिशा में कठोर कदम नहीं उठाना चाहती क्योंकि उसे डर है कि उसका मुस्लिम वोट बैंक बिगड़ सकता है, जबकि ऐसा करना व्यापक राष्ट्रहित में है। ऐसे इस समस्या के निदान में 1975 के आवश्यक आस-पास इन्दिरा गाँधी की भूमिका सकारात्मक रही लेकिन उनकी तकनीक एवं पद्धति अलोकतान्त्रिक थी।

7. राजनीतिक पुरस्कारों के वितरण में धर्म की भूमिका

जिस प्रकार भारतीय राजनीति में राजनीतिक पुरस्कारों के वितरण को जातिवाद, भाषावाद और क्षेत्रवाद जैसे राष्ट्र निर्माण के बाधक तत्वों ने कुप्रभावित किया है, उसी प्रकार धर्म ने भी इस प्रक्रिया को कुप्रभावित किया है। अक्सर यह देखा गया है कि सत्तारूढ़ दल अपने सम्प्रदाय विशेष के लोगों को ही महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर बैठाते रहे हैं। बहुत से राजनीतिक दलों का चुनाव के पहले ही राजनीतिक पुरस्कारों के वितरण में धार्मिक तालमेल बन जाता है। अब तो साहित्य, सामाजिक और विज्ञान के क्षेत्रों में भी पुरस्कारों के वितरण में धर्म कभी-कभी अपना प्रभाव दिखाता है जिसे पूर्णतः अनुचित और अलोकतान्त्रिक कहा जायेगा। जो भी हो, भारतीय राजनीति में राजनीतिक पुरस्कारों के वितरण में धर्म की भूमिका देखी जाती रही है और इस दोष से किसी भी राजनीतिक दल को अलग नहीं किया जा सकता।

अब तक के विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका रही है परन्तु फिर भी हम विदेशी विद्वानों के इस विचार से सहमत नहीं हो सकते हैं कि भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका व्यापक और स्थायी है। दूसरी ओर, भारतीय विद्वानों की इस बात से भी सहमत नहीं हुआ जा सकता है कि भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका नाममात्र की रही है। इसलिए हम मध्यम मार्ग को अपनाते हुए इस बात को ही उचित मानते हैं कि भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका रही है परन्तु व्यापक नहीं। साथ ही साथ यह भी आशा की जा सकती है कि भारत में जैसे-जैसे राजनीतिक आधुनिकीकरण होगा, शिक्षा का विकास और ज्ञान का प्रसार होगा। राजनीति में अन्य परम्परागत तत्वों की भूमिका में कमी आयेगी तो स्वतः ही भारतीय राजनीति से धर्म का स्थान गौण या लोप हो जायेगा।

Post a Comment

Previous Post Next Post