वित्तीय प्रणाली का अर्थ, परिभाषा एवं घटक

वित्तीय प्रणाली का अर्थ एवं परिभाषाएँ

वित्तीय प्रणाली को निम्न शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है- "देश के विभिन्न संस्थानों एवं उनकी प्रक्रियाओं को वित्तीय प्रणाली में सम्मिलित किया जाता है, जो समाज में होने वाली बचतों पर अपना प्रभाव डालती है और उन्हें बचत के प्रति प्रोत्साहित भी करती है।"

वित्तीय प्रणाली की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

वी. सी. सिन्हा के अनुसार-"वित्तीय प्रणाली वित्तीय संस्थाओं, बाजारों, उपकरणों, सेवाओं, कार्य-विधि एवं व्यवहार का एक जटिल एवं अन्तर्सम्बन्धित समूह है।"

वी. ए. अवधानी के अनुसार-"वित्तीय प्रणाली मौद्रिक रूप से सेवाओं को प्रावधानों की गतिविधियों को बताती है तथा वास्तविक प्रणाली में गतिविधियों को सुविधाजनक बनाती है।"

वित्तीय प्रणाली के घटक

वित्तीय प्रणाली के घटकों के अन्तर्गत वित्तीय संस्थाओं, मुद्रा बाजारं, वित्तीय उपकरण और उपलब्ध वित्तीय सेवाओं को सम्मिलित किया जाता है। वित्तीय प्रणाली के घटकों की व्याख्या अग्र वर्गीकरण के आधार पर की जा सकती है-

(1) वित्तीय संस्थाएँ- 

वित्तीय संस्थाओं का आशय ऐसे संगठनों से है जो जनता से विभिन्न रूपों में बचत को जमा करके, उनसे समाज को वित्तीय सेवाएँ प्रदान करती है। वित्तीय संस्थाएँ, गैर-वित्तीय संस्थाओं से भिन्न होती हैं, क्योंकि वित्तीय संस्थाओं के समस्त लेनदेन/व्यापार वित्तीय सम्पत्तियों (जमाओं, ऋणों, प्रतिभूतियों आदि) में किये जाते हैं, जबकि गैर-वित्तीय संस्थाएँ अपने व्यवहार वास्तविक सम्पत्तियों (भूमि व भवन, मशीनरी, प्लाण्ट, कच्ची सामग्री आदि) में करती हैं।

वित्तीय संस्थाएँ वित्तीय व्यवहारों के रूप में जनता से बचत को जमाएँ प्राप्त करके औद्योगिक, व्यापारिक एवं सरकारी संस्थाओं की वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति करती हैं। अर्थात् वित्तीय संस्थाएँ मध्यस्थ के रूप में कार्य करती हैं।

वित्तीय संस्थाएँ निम्न प्रकार की होती हैं-

(अ) वित्तीय मध्यस्थता (Financial Intermediaries)- वित्तीय मध्यस्थता में उन वित्तीय संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है जो अन्तिम ऋणदाता और अन्तिम ऋणी के बीच मध्यस्थता करती हैं। ये वित्तीय मध्यस्थता भी दो प्रकार की होती है-

  • बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थता (Banking Financial Intermediaries)- ये संस्थाएँ देश की बचत को गतिमान करने तथा उनका विनियोजन करने में देश की वित्तीय प्रणाली की सहायता करती हैं। अर्थात् ये बैंकिंग का कार्य करती हैं; जैसे-वाणिज्यिक बैंक, विनियोग विकास बैंक, सार्वभौम बैंक, सहकारी बैंक आदि।
  • गैर-बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थता- गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएँ भी मध्यस्थता का कार्य करती हैं और इसके अन्तर्गत जीवन बीमा निगम, पारस्परिक कोष, यू. टी. आई. को सम्मिलित किया जाता है। गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएँ वित्तीय बाजार में अपना कार्य करती हैं, जिनके कार्य का मुख्य उद्देश्य जोखिमों के विरुद्ध दावे स्वीकार करना तथा दीर्घकालीन व्यवस्था हेतु ऋण प्रदान करना है।

(ब) नियामक संस्थाएँ (Regulatory Institution)- नियामक संस्थाओं में केन्द्रीय बैंक को सम्मिलित किया जाता है जो वित्त प्रणाली की सर्वोच्च मौद्रिक एवं बैंकिंग संस्था है। बैंकिंग की वित्तीय प्रणाली को नियन्त्रित करने का उत्तरदायित्व इसी बैंक का है। इसे विभिन्न देशों में (जैसे- भारत में R.B.I., अमेरिका में यूनियन बैंक ऑफ अमेरिका आदि) अलग-अलग नाम से जाना जाता है।

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(2) वित्तीय बाजार (Financial Market)- 

वित्तीय बाजार संगठित एवं असंगठित दो प्रकार का हो सकता है। वित्तीय बाजार ऐसे स्थानों पर स्थापित किये जाते हैं, जहाँ वित्तीय पारिसम्पत्तियों का क्रय-विक्रय किया जाता है जिससे कि इनके कारोबार को सुविधाजनक बनाया जा सके। वित्तीय बाजारों को निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है-

  • गैर-संगठित वित्तीय बाजार (Unorganised Financial Market)- इसे अनौपचारिक बाजार की भी संज्ञा दी जा सकती है परन्तु इस वित्तीय बाजार की एक गम्भीर समस्या यह है कि यह अव्यवस्थित होते हैं और इनके कार्य एवं व्यवहार में विभिन्न प्रकार के मतभेद भी पाये जाते हैं। इस बाजार क्षेत्र में देशी बैंकर, साहूकार तथा महाजन को सम्मिलित किया जाता है, जो वित्तीय सम्पत्तियों एवं ऋणों पर एक समान दर से ब्याज की नीति का पालन नहीं करते हैं और वित्तीय बाजार के इस भाग पर कोई नियम एवं नियन्त्रण नहीं है। वर्तमान में इनका महत्व लगभग समाप्त है।
  • संगठित वित्तीय बाजार (Organised Financial Market)- संगठित वित्तीय बाजार में उन वित्तीय संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है, जिनकी नीतियों में समानता रहती है और आपसी लेन-देन बहुत अधिक होता है। इन संस्थाओं के द्वारा आधुनिकतम एवं यूरोपीय तकनीक में कार्य किया जाता है। ये संस्थाएँ प्रायः केन्द्रीय संस्थाओं से सम्बन्धित होती हैं तथा मौद्रिक अधिकारियों का नियन्त्रण भी रहता है। इन्हें समय-समय पर आर्थिक सहयोग मिलता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि एक संगठित बाजार में आर्थिक व्यवहारों के प्रति नीतियों के समानता एवं सहयोग रहता है और इसके अभाव में वित्तीय बाजार को असंगठित माना जाता है।

संगठित वित्तीय बाजार के निम्न रूप होते हैं-

(i) मुदा बाजार (Money Market)- मुद्रा बाजार एक वर्ष से कम अवधि के लेनदेनों का व्यवहार करता है। मुद्रा बाजार के माध्यम से बैंकों, वित्तीय संस्थाओं एवं निगमों (R.B.I.), सभी अनुसूचित बैंक, सहकारी बैंक, L.I.C., G.I.C. और U.T.I. आदि) की एक वर्ष से कम अवधि (अल्पकालीन) की वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति करता है।

एक संगठित एवं विकसित मुद्रा बाजार में सरकार की वित्तीय आवश्यकताओं की भी पूर्ति की जाती है क्योंकि सरकार आवश्यक मात्रा में कोषागार विपत्रों को व्यापारिक - बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं को बेचकर, धन प्राप्त कर सकती है। ये विपत्र अल्पकालीन अवधि के होने के कारण अत्यधिक तरल होते हैं और पर्याप्त आय भी प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध होते हैं। मुद्रा बाजार के निम्न घटक भी होते हैं; जैसे-

  • अल्पसूचना साख बाजार (Call Money Market),
  • बिल बाजार (Bill Market),
  • ट्रेजरी बिल बाजार (Treasury Bill Market) ।

(ii) पूँजी बाजार (Capital Market)- पूँजी बाजार से सम्बन्धित वित्तीय संस्थाओं द्वारा जनता की विभिन्न बचतों को जमा कर देश में पूँजी निर्माण तथा आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करती है और इनके प्रति दीर्घकालीन ऋण (5 वर्ष से अधिक अवधि) प्रदान करती है। भारत में पूँजी बाजार से सम्बन्धित संस्थाओं में भारतीय औद्योगिक वित्त निगम, भारतीय औद्योगिक साख एवं निवेश (लि.), भारतीय औद्योगिक विकास बैंक, जीवन बीमा निगम, सामान्य बीमा निगम, भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक, राज्य औद्योगिक विकास निगम, वाणिज्यिक बैंक, लीजिंग व पट्टाधारी कम्पनियाँ, पारस्परिक कोष, आवासीय वित्त बैंक आदि को सम्मिलित किया जाता है।

पूँजी बाजार के दो सोपान होते हैं-

  • प्राथमिक पूँजी बाजार (Primary Capital Market)
  • द्वितीयक पूँजी बाजार (Secondary Capital Market)

प्राथमिक पूँजी बाजार में निजी तथा सरकारी क्षेत्र की प्रतिभूतियों; जैसे-बैंकिंग प्रतिभूतियों, अंश, ऋणपत्र, बॉण्ड का कारोबार होता है तथा द्वितीयक पूँजी बाजार के अन्तर्गत प्राथमिक प्रतिभूतियों के अतिरिक्त अन्य प्रकार की प्रतिभूतियों; जैसे- V.T.I. की इकाई आदि के कारोबार को सम्मिलित किया जाता है।

(3) वित्तीय साधन (Financial Instruments)- 

वित्तीय साधन में उन दस्तावेजों तथा प्रलेखों को सम्मिलित किया जाता है जो सम्पत्तियों के वित्तीय दावों से सम्बन्धित होते हैं। वित्तीय सम्पत्तियों में कागजी विनियोग; जैसे- अंश, ऋणपत्र, सरकारी, अर्द्धसरकारी तथा अन्य गैर-सरकारी प्रतिभूतियों, विनिमय विपत्र, प्रतिज्ञा पत्र आदि को सम्मिलित किया जाता है जिनसे भविष्य में लाभांश या ब्याज के रूप में नियमित आय प्राप्त होती है।

(4) अन्य वित्तीय सेवाएँ (Other Financial Services)- 

उपर्युक्त क्रमशः 1, 2 व 3 के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार की संस्थाओं को वित्तीय प्रणाली में सम्मिलित किया जाता है, जिनका मुख्य उद्देश्य वित्तीय सेवाएँ प्रदान कर वित्तीय प्रणाली को सरल व सुविधाजनक बनाना है। इसके अन्तर्गत अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा कोष प्रवाह के माध्यम से अनेकों सेवाएँ प्रदान करती हैं।

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