मुद्रास्फीति का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं मुद्रास्फीति के कारण

मुद्रास्फीति का अर्थ 

मुद्रा के विकास के साथ-साथ ही मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन की समस्या उत्पन्न हुई है। मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन से आशय मुद्रा-स्फीति एवं मुद्रा संकुचन की स्थिति का पैदा होना है। इस प्रकार मुद्रा-स्फीति से आशय मुद्रा के मूल्य में कमी का होना तथा मुद्रा संकुचन का अर्थ मुद्रा के मूल्य में वृद्धि का होना है। संक्षेप में, मुद्रा प्रसार या मुद्रा-स्फीति एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें जहाँ वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य में वृद्धि होती है, वहीं दूसरी ओर मुद्रा का मूल्य बढ़ता है।

    मुद्रास्फीति की परिभाषाएँ 

    विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने मुद्रा-स्फीति को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है- 

    प्रो. कैमरर के अनुसार- "मुद्रा-स्फीति उस स्थिति को कहते हैं, जिसमें व्यवसाय की भौतिक मात्रा की तुलना में मुद्रा की मात्रा अधिक होती है।" 

    प्रो. पीगू के अनुसार- "मुद्रा-स्फीति वह दशा है, जब मौद्रिक आय उत्पादन के अनुपात की तुलना में तेजी से बढ़ती है।''

    प्रो. काउबर के शब्दों में- "मुद्रा-स्फीति से आशय उस स्थिति से है, जिसमें मुद्रा का मूल्य गिरता है या कीमतों में वृद्धि होती है। " 

    हाट्रे के शब्दों में- "वह परिस्थिति जिसमें मुद्रा का अत्यधिक निर्गमन हो, मुद्रा-स्फीति कहलाती है।"

    फ्रीडमैन के अनुसार- "कीमतों में सुस्थिर एवं अविरत होने वाली वृद्धि ही मुद्रा-स्फीति होती है।

    उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि मुद्रा-स्फीति के अन्तर्गत वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य में तीव्र वृद्धि होती है। मूल्यों में यह वृद्धि मुख्यतः मुद्रा की मात्रा में अत्यधिक वृद्धि का परिणाम है या मुद्रा की मात्रा की तुलना में उत्पादन एवं व्यवसाय की मात्रा कम होने से होती है। संक्षेप में, मुद्रा-स्फीति वह दशा है, जिसमें मुद्रा की प्रचलित मुद्रा की मात्रा की कुल माँग से अधिक हो। मुद्रा की माँग से अभिप्राय कुल उत्पादन एवं व्यवसाय के लिये मुद्रा की माँगी गयी मात्रा से है।

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    मुद्रा-स्फीति के प्रकार

    मुद्रा-स्फीति हमेशा एक जैसी नहीं होती है। जिन कारणों से मुद्रा-स्फीति का जन्म होता है, उससे उसका स्वरूप निर्धारित होता है। अत: मुद्रा-स्फीति अनेक प्रकार की होती है। इसके प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं- 

    (1) उत्पादन पर आधारित स्फीति

    जब उत्पादन में कमी के कारण मूल्यों में वृद्धि होती है, तब उसे उत्पादन पर आधारित स्फीति कहा जाता है। ऐसा उस स्थिति में होता है, जब अकाल या अतिवृष्टि के कारण खाद्यान्नों में कमी हो जाये या तालाबन्दी और हड़ताल आदि के कारण औद्योगिक उत्पादन में कमी हो जाये। इस स्थिति में माँग की तुलना में उत्पादन कम होता है, जिससे मूल्य वृद्धि प्रारम्भ हो जाती है।

    (2) चलन स्फीति 

    जब मुद्रा की मात्रा या परिणाम में तीव्र वृद्धि के परिणामस्वरूप वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य में वृद्धि होती है, तब उसे चलन स्फीति कहते हैं। चलन स्फीति सदैव देश के केन्द्रीय बैंक द्वारा युद्ध, प्राकृतिक संकट एवं आर्थिक विकास आदि से निपटने के लिए अत्यधिक मात्रा में कागजी मुद्रा का निर्गमन करने से उत्पन्न होती है।

    (3) शान्तिकालीन स्फीति

    प्रायः शान्तिकालीन स्फीति आर्थिक विकास की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के क्रियान्वयन से उत्पन्न होती है। आर्थिक विकास के उद्देश्य से बड़ी मात्रा में विनियोग किया जाता है, जिससे मूल्यों में वृद्धि होती है। इसे ही शान्तिकालीन स्फीति कहा जाता है।

    (4) खुली स्फीति एवं दबी स्फीति 

    अब मुद्रा-स्फीति को नियन्त्रित करने की दिशा में सरकार कोई भी प्रयत्न नहीं करती, तब उस स्थिति को खुली स्फीति जाता है। जबकि इसके विपरीत, जब सरकार मूल्यों में हुई वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए आय ,उपभोग, लाभ एवं मजदूरी आदि पर नियन्त्रण करती है, तब उसे दबी हुई स्फीति कहा जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सरकार के नियन्त्रणों से भी कभी-कभी स्फीति कम नहीं होती वरन् उसकी गति बढ़ जाती है।

    (5) अति विनियोग स्फीति  

    जब उद्यमियों द्वारा एक साथ बड़ी मात्रा में पूँजी का विनियोग किया जाता है तो कच्चे माल एवं उत्पत्ति के साधनों के मूल्यों में तेजी से वृद्धि होती है। इससे बनने वाली वस्तुओं के मूल्य भी बढ़ने लगते हैं। इस स्थिति को अति विनियोग स्फीति कहा जाता है। 

    (6) आयातित स्फीति 

    जय घरेलू अर्थव्यवस्था में मूल्य वृद्धि की प्रवृत्ति विदेशी व्यापार के माध्यम से स्थानान्तरित होती है तो उसे आयातित स्फीति कहा जाता है।

    (7) व्यापक स्फीति एवं छुट-पुट स्फीति 

    व्यापक स्फीति से आशय उस स्थिति से है जब अर्थव्यवस्था में सभी वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य एक साथ बढ़ें। जबकि इसके विपरीत, छुट-पुट स्फीति उस दशा में होती है, जब क्षेत्र विशेष या कुछ गिनी-चुनी वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होती है। प्रायः फसलों के नष्ट हो जाने पर या अकाल पड़ जाने के कारण खाद्यान्न वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती है। इसे छूट-पुट स्फीति कहा जाता है परन्तु जब इस प्रकार की स्फीति में विस्तार होने लगता है और सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में यह फैल जाती है, तब इसे व्यापक स्फीति कहा जाता है।

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    (8) लाभ-स्फीति 

    युद्धकाल एवं देश की राजनैतिक अस्थिरता के समय कभी-कभी निर्मित वस्तुओं के मूल्यों में तो बहुत वृद्धि होती है, जबकि कच्चे माल तथा उत्पादन के अन्य साधनों की कीमतों में वृद्धि नहीं होती है। ऐसी स्थिति में उद्यमियों के लाभ में बढ़ोत्तरी हो जाती है। उद्यमी वर्ग लाभ का विनियोग नहीं करते तथा अपना उपभोग बढ़ा देते हैं। इससे पुनः निर्मित वस्तुओं की माँग एवं मूल्य में वृद्धि का क्रम चालू हो जाता है और स्फीतिक की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसे लाभ स्फीति कहते हैं।

    (9) लागत प्रोत्साहित स्फीति 

    जब मूल्य वृद्धि का कारण उत्पादन लागत में वृद्धि का होना है, तब इसे लागत प्रोत्साहित मुद्रास्फीति कहते हैं। कई बार देश में अनेक कारणों, जैसे-श्रमिकों को मजदूरी या कच्चे माल के मूल्य में वृद्धि आदि से वस्तुओं के उत्पादन लागत में वृद्धि हो जाती है। इससे वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि का क्रम प्रारम्भ हो जाता है और अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति होने लगती है। 

    (10) साख स्फीति 

    चलन मुद्रा के समान साख के विस्तार से भी मुद्रा-स्फीति उत्पन्न हो जाती है। जब देश के व्यापारिक बैंकों के द्वारा अत्यधिक मात्रा में साख का निर्माण किया जाता है, तब जनसाधारण के पास अधिक क्रय शक्ति में तेजी से वृद्धि होने लगती है। इसे साख स्फीति कहा जाता है।

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    मुद्रा स्फीति की तीव्रता

    मुद्रास्फीति की तीव्रता सदैव एक समान नहीं रहती है। प्रायः यह देखा जाता है कि कभी-कभी मुद्रा-स्फीति बहुत धीमी गति से अर्थव्यवस्था में विद्यमान रहती है, जबकि कभी-कभी इसकी तीव्रता असहनीय हो जाती है। तीव्रता या गति के आधार पर भी मुद्रा-स्फीति को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जाता है- 

    (1) रेंगती स्फीति 

    रेंगती स्फीति से आशय धीमी गति से मूल्य वृद्धि होने से है। जब अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा में दो से पाँच प्रतिशत वार्षिक वृद्धि होती है, तो उसे रंगली स्फीति कहा जाता है। मुद्रा की मात्रा में यह वृद्धि अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक नहीं होती है वरन् इससे विनियोगकर्ताओं को प्रोत्साहन मिलता है। यह अर्थव्यवस्था के लिए एक स्वास्थ्यवर्द्धक का कार्य करती है किन्तु कुछ विद्वान इसे हानिकारक मानते हैं। 

    (2) चलती स्फीति 

    इस प्रकार की स्फीति में मुद्रा को पूर्ति में वृद्धि के परिणामस्वरूप मूल्यों में 5 या 10 प्रतिशत वार्षिक दर से वृद्धि  होती है। मूल्यों में इस वृद्धि से सामान्य परिणाम पर जनता को कष्ट होने लगता है परन्तु विनियोगकर्ताओं को अधिक लाभ प्राप्त होता है और अधिकाधिक विनियोग करने की प्रेरणा मिलती है।

    (3) दौड़ती स्फीति 

    इस प्रकार की स्फीति में मूल्य तेजी से बढ़ते हैं। सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है। मूल्यों में तेजी से वृद्धि होने के कारण श्रमिक या न्यून वर्ग एवं मध्यम वर्ग के लोगों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। सामान्य रूप से इस प्रकार की स्फीति में मूल्य वृद्धि की दर 10 प्रतिशत से अधिक रहती है।

    (4) उछलती या सरपट दौड़ती स्फीति 

    इस प्रकार प्रकार की स्फीति में मूल्य वृद्धि की कोई सीमा नहीं होती है। इसके फलस्वरूप मुद्रा की क्रय शक्ति में तेजी से गिरावट आ जाती है और सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था जटिल आर्थिक संकट से घिर जाती है। यह स्फीति की सबसे भयावह एवं खतरनाक स्थिति है। मुद्रा-स्फीति की इन विभिन्न दशाओं को रेखाचित्र से समझाया जा सकता है।

    मुद्रा स्फीति की तीव्रता

    उपर्युक्त रेखाचित्र से यह स्पष्ट होता है कि OX अक्ष पर वर्ष या अवधि तथा OY अक्ष पर मूल्य वृद्धि की दर को दर्शाया गया है। रेखाएँ OA, OB, OC तथा OD तीव्रता के आधार पर मुद्रा-स्फीति के विभिन्न स्वरूपों को दर्शाती हैं। OA रेखा रेंगती स्फीति की दर को दर्शाती है। OB रेखा चलती स्फीति को स्पष्ट करती है। इसी प्रकार OC रेखा दौड़ती स्फीति एवं OD रेखा सरपट दौड़ती मुद्रा-स्फीति को दर्शाती है।

    मुद्रास्फीति के कारण

    मुद्रास्फीति का मूल कारण उत्पन्न वस्तुओं की तुलना में क्रय शक्ति का अधिक होना है। यह स्थिति तभी उत्पन्न होती है, जब अर्थव्यवस्था में मुद्रा एवं साख की मात्रा आवश्यकता से अधिक हो। सामान्यतः मुद्रा-स्फीति के कारणों को दो भागों में विभाजित किया गया है-

    (1) माँग में वृद्धि के कारण 

    मांग में वृद्धि से तात्पर्य वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग में वृद्धि से है। यह वृद्धि मुख्यतः जनसाधारण की क्रय शक्ति या आय में वृद्धि होने से होती है। इस वृद्धि के प्रमुख कारण निम्नलिखित है-

    (i) सार्वजनिक व्यय में वृद्धि 

    जब अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक व्यय में तीव्र वृद्धि होती है, तब वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हो जाती है। इस स्थिति में वस्तुओं की माँग पूर्ति से अधिक होती है और इसके परिणामस्वरूप मूल्यों में वृद्धि होना आवश्यक हो जाता है। प्रायः अर्द्ध-विकसित देशों में तीव्र आर्थिक विकास के उद्देश्य से सार्वजनिक व्यय बड़ी मात्रा में किया जाता है। इसके लिए देश आन्तरिक एवं बाह्य वित्तीय स्रोतों के साथ-साथ घाटे की वित्त व्यवस्था भी अपनाता है। इससे मुद्रा की मात्रा में वृद्धि हो जाती है और इसके परिणामस्वरूप मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

    (ii) काले धन की मात्रा 

    जब अकुशल प्रशासन के कारण करों की राशि वसूल नहीं हो पाती हो पाती है तो इस प्रकार छिपाई गयी राशि को काला धन कहते हैं। जब काले धन की मात्रा में बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है, तब काले धन की एक समानान्तर अर्थव्यवस्था चलने लगती है। इससे वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती है और मूल्यों में वृद्धि होती है।

    (iii) करों में छूट 

    यदि सरकार करों में भारी छूट देती है तो इससे जनता की क्रम शक्ति में वृद्धि हो जाती है अर्थात् वस्तुओं की माँग में वृद्धि हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य बढ़ने लगते हैं और स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। 

    (iv) सार्वजनिक ऋणों का भुगतान 

    जब सरकार अपने पुराने ऋण को लौटाती है, तब जनसाधारण की क्रय शक्ति में वृद्धि होती है और वे उपभोग हेतु अधिकाधिक मात्रा में वस्तुओं तथा सेवाओं को ख़रीदना प्रारम्भ कर देते हैं। इससे अर्थव्यवस्था की कुल माँग में स्वाभाविक वृद्धि होती है तथा मुद्रास्फीति की स्थिति पैदा हो जाती है।

    (v) चलन एवं साख मुद्दा में वृद्धि

    जब केन्द्रीय बैंक घाटे के बजट की पूर्ति अतिरिक्त मुद्रा के चलन में लाकर करती है, तब जनसाधारण के क्रय शक्ति में तेजी से वृद्धि होती है। इसी तरह जब व्यापारिक बैंकों के द्वारा साख का निर्माण तेजी से किया जाता है, तब जनसाधारण की आय या क्रय शक्ति तेजी से बढ़ती है। ऐसी स्थिति में मूल्यों का बढ़ना स्वाभाविक हो जाता है।

    (vi) निर्यात व्यापार में वृद्धि 

    जब किसी देश की निर्यात वस्तुओं की विदेशों में माँग बढ़ जाती है या अधिक मात्रा में निर्यात कर दिया जाता है तो वहाँ घरेलू उपभोग हेतु उपलब्ध वस्तुओं का स्टॉक कम हो जाता है। ऐसी स्थिति में देश में मूल्यों में वृद्धि होने लगती है।

    (vii) जनसंख्या में वृद्धि 

    जनसंख्या में वृद्धि होने से वस्तुओं और सेवाओं की माँग में वृद्धि होती है। यदि उत्पादन में वृद्धि, जनसंख्या में वृद्धि दर से कम हो तो मूल्यों में वृद्धि होती है। प्रायः अर्द्ध-विकसित देशों में जनसंख्या तेजी से बढ़ती है, जिससे वस्तु की माँग में स्वतः वृद्धि हो जाती है। अतः जनसंख्या वृद्धि भारत में मूल्य वृद्धि का एक प्रमुख कारण है।

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    (2) पूर्ति में कमी के कारण 

    पूर्ति में कमी से आशय वस्तुओं एवं सेवाओं को उपलब्धता के कम होने से है। इस कमी के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

    (i) उत्पत्ति के साधनों का अभाव 

    उचित उत्पादन लागत पर पर्याप्त मात्रा में उत्पत्ति करने के लिए यह भी आवश्यक है कि उत्पत्ति के सभी साधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों, किन्तु कभी-कभी देश की अर्थव्यवस्था में उत्पत्ति के किसी साधन जैसे-श्रम, कच्चा माल, विद्युत एवं पूँजीगत सामान आदि का अभाव हो जाता है। इससे जहाँ वस्तुओं एवं सेवाओं की पूर्ति में कमी आ जाती है, वहीं उनके मूल्य बढ़ने लगते हैं।

    (ii) प्रौद्योगिकी परिवर्तन 

    जब देश में तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी परिवर्तनों का दौर चलता है तो अल्पकाल में उत्पादन कार्य करने से पूर्ति कम हो जाती है, जिसके कारण मुद्रा-स्फीति की स्थिति पैदा हो जाती है।

    (iii) अन्तर्राष्ट्रीय कारण 

    एक देश में मुद्रास्फीति होने से इसके प्रभाव अन्य देशों में भी होने लगते हैं। धीरे-धीरे ये प्रभाव अन्तर्राष्ट्रीय हो जाते हैं। वस्तुओं की कमी पैदा हो जाती है, जिससे मूल्यों में वृद्धि हो जाती है। 

    (iv) व्यापार नीति 

    जब सरकार आयातित वस्तुओं पर प्रतिबन्ध लगाती है तो देश में वस्तुओं की कुल माँग की तुलना में पूर्ति कम हो जाती है और परिणामस्वरूप मूल्य में वृद्धि होने लगती है। इसी प्रकार यदि उद्योगों को लम्बे समय तक संरक्षण दिया जाता है तो इनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं की लागत अधिक रहने के कारण मूल्य भी अधिक रहते हैं। ऐसी स्थिति में मुद्रा-स्फीति की दशा पैदा होने लगती है।

    (v) प्राकृतिक संकट

    प्राकृतिक संकट, जैसे- बाढ़, अकाल एवं सूखा के कारण वस्तुओं की पूर्ति में बहुत अधिक कमी हो जाती है और इसके परिणामस्वरूप मूल्यों में वृद्धि होती है। प्राकृतिक संकट का प्रभाव कृषि उत्पादन पर सबसे अधिक होता है और मूल्य बढ़ने से अन्य वस्तुओं के मूल्यों में भी वृद्धि होने लगती है। फलत: मुद्रा-स्फीति की स्थिति पैदा हो जाती है।

    (vi) वस्तुओं का संचय 

    वस्तुओं के संचय से भी उनकी पूर्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह संचय व्यापारियों, उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं के द्वारा किया जाता है। प्रायः बढ़ी हुई कीमतों एवं अभाव के समय उत्पादक एवं व्यापारी वर्ग अनुचित लाभ कमाने हेतु आवश्यक वस्तुओं का संचय कर लेते हैं। इससे बाजार में वस्तुओं का अभाव हो जाता है और इसके परिणामस्वरूप मूल्य तेजी से बढ़ने लगते हैं।

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