खेल के सिद्धान्त, मूलप्रवृत्ति का सिद्धान्त, महत्व, शिक्षा में खेल प्रणाली, शिक्षण पद्धतियाँ एवं गुण दोष

     खेल के सिद्धान्त

    बालक में खेलने की प्रवृत्ति क्यों पाई जाती है ? वह क्यों खेलता है और क्यों खेलना चाहता है ? इन प्रश्नों पर विद्वानों और मनोवैज्ञानिकों ने विचार करके कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है. जिनमें से मुख्य निम्नांकित है -

    अतिरिक्त शक्ति का सिद्धान्त

    यह सिद्धान्त सम्भवतः सबसे प्राचीन है। इसके प्रतिपादक, जर्मन कवि शीलर (Schiller) और अंग्रेज दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर (Herber Spencer) माने जाते हैं। इसलिए, एक सिद्धान्त को शिलर व स्पेंसर का सिद्धान्त (Schiller-Spencer- Theory) भी कहा जाता है। बालक को निरंतर और निरुद्देश्य खेलते देखकर इन विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला कि वह कार्य से बची हुई अपनी शक्ति का खेल में प्रयोग करता है। इसकी पुष्टि करते हुए नन (Nunn) ने लिखा है-"खेल साधारणतः अतिरिक्त शक्ति का प्रदर्शन माना जाता है।"

    आधुनिक युग में इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया जाता है। स्किनर एवं हेरीमन (Skinner and Harriman) के अनुसार, इसके तीन कारण हैं- 

    (1) बीमार बालक में अतिरिक्त शक्ति नहीं होती है, फिर भी वह खेलता है, 

    (2) बहुत-से खेल अतिरिक्त शक्ति चाहने के बजाय शक्ति प्रदान करते हैं, 

    (3) विकास की विभिन्न अवस्थाओं में बालक की खेल-सम्बन्धी रुचियां बदल जाती है।

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    पूर्व-अभिनय का सिद्धान्त 

    इस सिद्धान्त का प्रतिपादक मालस (Malebranche) और मुख्य समर्थक, स्विट्जरलैंड का मनोवैज्ञानिक कार्ल ग्रूस (Karl Groos) है। प्रूस के अनुसार, बच्चे में भावी वयस्क जीवन की तैयारी करने की आन्तरिक प्रवृत्ति होती है। गुडिया से खेलने वाली बालिका अज्ञात रूप से बच्चे की देखभाल करने का प्रशिक्षण प्राप्त करती है।

    आधुनिक मनोवैज्ञानिक यह तो मानते हैं कि बालक में खेलने की आन्तरिक प्रवृत्ति होती है, पर वे यह नहीं मानते हैं कि वह खेल द्वारा ज्ञात या अज्ञात रूप में वयस्क जीवन की तैयारी करता है। स्किनर एवं हैरीमन (Skinner & Harriman) के अनुसार उनका तर्क यह है-"बालक खेल के द्वारा अनेक बातें सीखता है, पर वह ज्ञात या अज्ञात रूप से सीखने के लिए नहीं खेलता है।"

    पुनरावृत्ति का सिद्धान्त

    इस सिद्धान्त का प्रतिपादक जी. स्टेनले हॉल (G. Stanley Hall) है। उसके अनुसार, बालक अपने खेलों में प्रजातीय अनुभवों की पुनरावृत्ति करता है। दूसरे शब्दों में, वह अपने खेलों द्वारा अपने पूर्वजों के उन सभी कार्यों को दोहराता है, जो वे आदि काल से करते चले आ रहे हैं। इस प्रकार के कुछ कार्य हैं- दौड़ना, लड़ना, पत्थर फेंकना, वृक्षों पर चढ़ना आदि।

    इस सिद्धान्त को कुछ समय तक स्वीकार किया गया, पर अब त्याग दिया गया है। इसका कारण बताते हुए क्रो व क्रो (Crow and Crow) ने लिखा है- "अब यह विश्वास नहीं किया जाता है कि बालक अर्जित लक्षणों और विशेषताओं को वंशानुक्रम से प्राप्त करते हैं।"

    मूलप्रवृत्ति का सिद्धान्त

    इस सिद्धान्त का प्रतिपादक, मैक्डूगल (McDougall) है। उसके अनुसार, खेल का कारण मूलप्रवृत्तियों की परिपक्वता है। ("Play is determined by the premature ripening of instincts.") दूसरे शब्दों में, जब मूलप्रवृत्तियाँ अपने समय से पहले परिपक्व हो जाती है, तब उनकी अभिव्यक्ति खेल द्वारा होती है। मैक्डूगल के मूलप्रवृत्तियों के सिद्धान्त की मान्यता कम होने के कारण इस सिद्धान्त की मान्यता भी कम हो गई है।

    पुनः प्राप्ति का सिद्धान्त

    इस सिद्धान्त का प्रतिपादक, बर्लिन-निवासी लाजारस (Lazarus) और समर्थक जी. टी. डब्ल्यू. पैट्रिक (G. T. W. Patrick) हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार, खेल द्वारा शक्ति की पुनः प्राप्ति होती है। (Play recreated energy) | खेल इसलिए खेला जाता है, जिससे कि व्यक्ति उस शक्ति को फिर प्राप्त कर ले, जो उसने अपने कार्य करते समय थकने के कारण नष्ट कर दी है। इसलिए बालक, कार्य करने के बाद खेलना चाहता है। इस सिद्धान्त को अस्वीकार करने का कारण बताते हुए बी. एन. झा (B. N. Jha)  ने लिखा है- ''बालक केवल खेल के लिए अनेक प्रकार के खेल खेलते हैं। यह सिद्धान्त हमे इसका कोई कारण नहीं बताता है।" खेल कार्य से विश्राम देता है। इसलिए जो सिद्धान्त को 'विश्राम-सिद्धान्त' (Relaxation Theory) भी कहते हैं।

    परिष्कार का सिद्धान्त 

    Catharsis शब्द यूनानी दार्शनिक अरस्तू की एक पुस्तक से लिया गया है। इसका अर्थ है परिष्कार या शुद्धि बालक वंशानुक्रम के द्वारा अपने जंगली पूर्वजों की प्रवृत्तियाँ प्राप्त करता है। खेल इनको बाहर निकालने या बालक का परिष्कार करने का एक साधन है। रॉस (Ross) का कथन है-"खेल की क्रिया परिष्कार करती है। यह कुछ अवरुद्ध प्रवृत्तियों और संवेगों को बाहर निकालने का मार्ग प्रदान करती है, जिनको बाल्यकाल या वयस्क जीवन में पर्याप्त प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं मिल सकती है।"

    हमने खेल के जिन सिद्धान्तों की चर्चा की है, वे खेल की व्याख्या अवश्य करते हैं, पर यह व्याख्या अपूर्ण और एकांगी है। इसलिए आधुनिक युग में इनमें से किसी को भी स्वीकार न किया जाकर जॉन डयूवी  (John Dewey) के सिद्धान्त को साधारणतः स्वीकार किया जाता है। उसने खेल को जीवन मानकर (Play is Life) जीवन की क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Theory of Life Activity) प्रतिपादित किया है। क्रो व क्रो के अनुसार, उसका विश्वास है-"क्रियाशीलता जीवन का सार है। व्यक्ति की क्रिया अनेक रूपों में व्यक्त की जा सकती है। बालक के जीवन का मुख्य कार्य-खेल है।" इस प्रकार ड्यूबी ने खेल की व्याख्या-जीवन की क्रियाशीलता के आधार पर की है।

    बालक के लिए खेल का महत्व

    बालक के लिए खेल का क्या महत्व है. इस सम्बन्ध में क्रो व क्रो ने लिखा है-"स्वतन्त्र क्रिया, जो तुलनात्मक रूप में निरुद्देश्य जान पड़ती है, बालक के व्यक्तित्व के प्रत्येक अंग को प्रभावित करती है।" खेल' बालक के प्रत्येक अंग को किस प्रकार प्रभावित करता है, इसका संक्षिप्त वर्णन दृष्टव्य है- 

    शारीरिक महत्व

    खेल से बालक को होने वाले शारीरिक लाभ इस प्रकार है-

     (1) भौतिक वातावरण का ज्ञान, 

    (2) रक्त का स्वतन्त्र संचार, 

    (3) शारीरिक बल और स्वास्थ्य की प्राप्ति, 

    (4) शारीरिक अंगों और माँसपेशियों की सुडौलता, 

    (5) रोगों से बचने की क्षमता। 

    मानसिक महत्व

    खेल से बालक को होने वाले मानसिक लाभ इस प्रकार है- 

    (1) भाषा का विकास, 

    (2) मानसिक थकान का अन्त.

    (3) मानसिक सन्तुलन की क्षमता, 

    (4) नये विचारों और परिस्थितियों का ज्ञान 

    (5) तर्क, स्मृति, कल्पना, चिन्तन आदि शक्तियों का विकास।

    सामाजिक महत्त्व 

    खेल से बालक को होने वाले सामाजिक लाभ इस प्रकार है- 

    (1) सामाजिक व्यवहार का ज्ञान 

    (2) दूसरों की इच्छा का सम्मान 

    (3) सामाजिक सम्पर्क की इच्छा की पूर्ति 

    (4) आत्म हित से समूह-हित की श्रेष्ठता, 

    (5) सहयोग, सामजस्य, सहिष्णुता, नेतृत्व, आज्ञाकारिता, उत्तरदायित्व, निःस्वार्थता आदि गुणों का विकास।

    संवेगात्मक महत्व 

    खेल से बालक को होने वाले संवेगात्मक लाभ इस प्रकार है- 

    (1) दिवास्वप्न देखने की आदत का अन्त 

    (2) संवेगों का नियन्त्रण करने की क्षमता 

    (3) लज्जा, कायरता, बचपन, चिडचिडापन आदि दोषों का निवारण, 

    (4) स्किनर एवं हरीमन (Skinner and Harriman)के अनुसार- "खेल, संवेगों को स्थिरता प्रदान करने में सहायता देता है।" ("Play helps to stabilize the emotions ")

    वैयक्तिक महत्त्व 

    खेल से बालक को होने वाले वैयक्तिक लाभ इस प्रकार है- 

    (1) प्रकृतिदत्त योग्यता का विकास 

    (2) पुस्तकीय ज्ञान के साथ व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति 

    (3) शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक विकास के कारण व्यक्तित्व का चतुर्मुखी विकास ।

    नैतिक महत्त्व 

    खेल से बालक को होने वाले नैतिक लाभ इस प्रकार हैं- 

    (1) उचित-अनुचित का ज्ञान, 

    (2) समूह के नैतिक स्तरों को मान्यता, 

    (3) ईमानदारी, सत्यता और आत्म-नियन्त्रण का प्रशिक्षण,

    (4) सुख और दुःख मे समान भाव का प्रशिक्षण 

    (5) विचारों, इच्छाओं और कार्यों पर नियन्त्रण का प्रशिक्षण

    (6) हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, बालक के नैतिक प्रशिक्षण में खेल सबसे अधिक महत्वपूर्ण साधन है।"

    शैक्षिक महत्त्व 

    खेल से बालक को होने वाले शैक्षिक लाभ इस प्रकार है- 

    (1) विभिन्न प्रकार की वस्तुओं से खेलने के कारण उनके आकार, रंग, बनावट, उपयोगिता आदि का ज्ञान 

    (2) खोज और संचय द्वारा ज्ञान की वृद्धि 

    (3) रेडियो, चलचित्र, संग्रहालय द्वारा सूचनाओं की प्राप्ति 

    (4) आत्म- अभिव्यक्ति का अवसर ।

    बाल -अध्ययन में सहायता 

    खेल, बाल-अध्ययन में अग्रलिखित प्रकार से सहायता करते हैं-

    (1) बालक के खेलों को देखकर उसके सामाजिक सम्बन्धों का ज्ञान 

    (2) बालक की अपने सम्बन्ध में धारणा कि वह क्या चाहता है. 

    (3) बालक की रुचि और विशेष योग्यता का ज्ञान। 

    खेल द्वारा चिकित्सा 

    खेल द्वारा अग्रलिखित प्रकार की चिकित्सा होती है- 

    (1) मानसिक और संवेगात्मक संतुलन खोने वाले बालक की खेल द्वारा चिकित्सा, 

    (2) बालक को भय, क्रोध, निराशा, मानसिक द्वन्द्व आदि से मुक्त करने के लिए स्वतन्त्र खेलों का प्रयोग, 

    (3) चिकित्सालयों में मानसिक रोगियों की मनोरंजन द्वारा चिकित्सा (Recreational Therapy), 

    (4) क्रो व क्रो (Crow and Crow) के अनुसार- "मानसिक तनाव को दूर करने के लिए खेल का महत्व, खेल द्वारा चिकित्सा के प्रयोग से सिद्ध हो जाता है।"

    शिक्षा में खेल प्रणाली

    यद्यपि 'खेल प्रणाली' का जन्मदाता Froebel माना जाता है. पर आधुनिक युग में हेनरी काल्डवैल कूक (Henry Caldwell Cook) सम्भवत: पहला व्यक्ति था, जिसने बालक को शिक्षा देने के लिए इस प्रणाली का प्रबल समर्थन किया। इस प्रणाली में अपना दृढ विश्वास प्रकट करते हुए काल्डवेल ने कहा- "मेरा दृढ विश्वास है कि केवल वही कार्य करने के योग्य है, जो वास्तव में खेल है, क्योंकि खेल से मेरा अभिप्राय किसी कार्य को पूर्ण हृदय से करना है।"

    काल्डवेल ने बताया कि बालक, कार्य को पूर्ण हृदय से तभी करता है, जब वह खेल में होता है। अतः उसमें प्रत्येक कार्य के लिए खेल की विधि को अपनाना अनिवार्य है। खेल द्वारा किये जाने वाले कार्य से बालक की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक शक्तियों क्रियाशील होती है। उसके कार्य और विचार में सामंजस्य स्थापित होता है और वह प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है। इस प्रकार काल्डवेल ने शिक्षण की एक नई विधि आरम्भ की जिसे खेल प्रणाली कहा जाता है। इस विधि का अर्थ स्पष्ट करते हुए ह्यूजेज व ह्यूजेज ने लिखा है- "वह विधि, जो बालकों को उसी उत्साह से सीखने की क्षमता देती है, जो उनके स्वाभाविक खेल में पाई जाती है, प्राय: खेल विधि कहलाती है।" 

    खेल-विधि पर आधारित शिक्षण पद्धतियाँ

    हम खेल विधि पर आधारित मुख्य शिक्षण विधियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, यथा- 

    किंडरगार्टन पद्धति (Kindergarten Method) 

    यह पद्धति फ्रोबेल (Freobel) द्वारा प्रतिपादित की गई है। इस पद्धति में बालक को खेल-गीतों और उपहारों (Play-Songs and Gifts) द्वारा शिक्षा दी जाती है। इन गीतों के आधार शिशु-खेल और शिशु-कार्य है। उपहारों में नाना प्रकार की वस्तुएँ हैं.. जैसे ऊन की गेंदें, लकड़ी का गोला, तिकोनी तख्तियाँ, चतुर्भुज आदि।

    मॉण्टेसरी पद्धति (Montessori Method)

    यह पद्धति मारिया मान्टेसरी  (Maria Montessori) द्वारा प्रतिपादित की गई है। इस पद्धति में बालक विभिन्न प्रकार के उपकरणों से खेलकर अक्षरों, अंकगणित, रेखागणित आदि का ज्ञान प्राप्त करता है। खेल ही उसकी विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित करता है।

    ह्यूरिस्टिक पद्धति (Heuristic Method) 

    यह पद्धति आर्मस्ट्रांग (Armstrong) द्वारा प्रतिपादित की गई है। इस पद्धति में बालक-शिक्षक, यन्त्रों और पुस्तकों की सहायता से स्वयं ज्ञान का अर्जन करता है। नन (Nunn) का कथन है- "क्योंकि ह्यूरिस्टिक पद्धति का उद्देश्य बालक को मौलिक अन्वेषक की स्थिति में रखना है, इसलिए यह स्पष्ट रूप से खेल-विधि है।" 

    प्रोजेक्ट पद्धति (Project Method) 

    यह पद्धति किलपैट्रिक (Kilpatrick) द्वारा प्रतिपादित की गई है। इस पद्धति में बालक किसी योजना को व्यक्तिगत या सामूहिक रूप में पूर्ण करता है; जैसे- मॉडल बनाना, अभिनय करना, कहानी पढ़ना या सुनना आदि।

    डाल्टन पद्धति (Dalton Method) 

    यह पद्धति मिस हेलेन पार्कहर्स्ट (Miss Helen Parkhurst) द्वारा प्रतिपादित की गई है। इस पद्धति के अनुसार कार्य करते समय बालक के ऊपर समय-सारणी, कक्षा-नियमों, वार्षिक और अर्द्ध-वार्षिक परीक्षाओं एवं विभिन्न विषयों के निर्दिष्ट घण्टों का कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाता है। 

    अन्य शिक्षण-पद्धतियों (Other Teaching Methods) 

    खेल पर आधारित अन्य शिक्षण-पद्धतियाँ हैं- बेसिक शिक्षा, गैरी-योजना (Gary System) और विनेटका योजना (Vinnetka Plan)। 

    खेल प्रणाली के गुण

    खेलों द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास सहज रूप से किया जाता है। खेल शिशु शिक्षा की महत्त्वपूर्ण विधि है। खेल प्रणाली के गुण इस प्रकार है-

    1. खेल बालक का शारीरिक विकास करते हैं। 

    2. खेलों द्वारा ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण होता है।

    3. खेल बालक का सामाजिक तथा मानसिक विकास करते हैं। 

    4. खेलों के द्वारा मूलप्रवृत्तियों का मार्गान्तरीकरण होता है।

    5. खेल व्यक्तित्व का विकास करते हैं।

    6. खेल स्वयं शिक्षा, स्थायी ज्ञान तथा चरित्र के विकास के सशक्त साधन है।

    खेल प्रणाली के दोष

    खेल प्रणाली सम्पूर्ण शैक्षिक प्रणाली नहीं है। इसमें ये दोष पाये जाते हैं-

    1. व्यवहार में कठिनाई ।

    2. सभी स्तरों पर सभी विषयों के शिक्षण के उपयुक्त नहीं है।

    3. खेल में गंभीरता का अभाव होता है।

    4. स्वतंत्रता का दुरुपयोग होने की संभावना होती है। 

    5. खेल में समय अधिक लगने से समय का दुरुपयोग होता है।

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