शैशवावस्था क्या है?

     शैशवावस्था : जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण काल

    शैशवावस्था, बालक का निर्माण काल है। यह अवस्था जन्म से पाँच वर्ष तक मानी जाती है। पहले तीन वर्ष पूर्व शैशवावस्था और तीन से पाँच वर्ष की आयु उत्तर शैशवावस्था कहलाती है।  

    न्यूमैन के शब्दों में- “पाँच वर्ष तक की अवस्था शरीर तथा मस्तिष्क के लिये बड़ी ग्रहणशील होती है।" 

    फ्रायड के शब्दों में- "मनुष्य को जो कुछ भी बनना होता है, वह चार पाँच वर्षों में बन जाता है।"

    बालक के जन्म लेने के उपरान्त की अवस्था को शैशवावस्था कहते हैं। यह अवस्था पाँच वर्ष तक मानी जाती है। नवजात शिशुओं का आकार 19.5 इंच, भार 7.5 पौंड होता है। वह माँ के दूध पर निर्भर करता है। धीरे-धीरे वह आँखें खोलता है। उसका सिर धड़ से जुड़ा रहता है। बाल मुलायम एवं माँसपेशियाँ छोटी एवं कोमल होती है। जन्म के 15 दिन बाद त्वचा का रंग स्थायी होने लगता है।

    शैशवावस्था क्या है?

    नवजात शिशु क्रन्दन करता है। इससे फेफड़ों में हवा भर जाती है और उसकी श्वसन क्रिया आरम्भ हो जाती है। स्तनपान के कारण उसमें चूसने की सहज क्रिया प्रकट होती है, वह भूख के समय रोता है। वह 15-20 घंटे सोता है। धीरे-धीरे उसमें ये परिवर्तन स्थायी होने लगते हैं।

    आधुनिक शताब्दी को 'बालक की शताब्दी' कहे जाने का कारण यह है कि इस शताब्दी में मनोवैज्ञानिकों ने बालक और उसके विकास की अवस्थाओं के सम्बन्ध में अनेक गम्भीर और विस्तृत अध्ययन किये है। इनके फलस्वरूप, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि सब अवस्थाओं में शैशवावस्था सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। उनका कहना है कि यह अवस्था ही वह आधार है, जिस पर बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। इस अवस्था में उसका जितना ही अधिक निरीक्षण और निर्देशन किया जाता है, उतना ही अधिक उत्तम उसका विकास और जीवन होता है।

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    क्रो व क्रो के अनुसार- "बीसवीं शताब्दी को 'बालक की शताब्दी' कहा जाता है।"

    शैशवावस्था के महत्व के सम्बन्ध में हम कुछ विद्वानों के विचारों को उद्धृत कर रहे हैं, यथा-

    ऐडलर के अनुसार - "बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में उसका क्या स्थान है।"

    स्ट्रंग के अनुसार- "जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भावी जीवन का शिलान्यास करता है। यद्यपि किसी भी आयु में उसमें परिवर्तन हो सकता है, पर प्रारम्भिक प्रवृत्तियाँ और प्रतिमान सदैव बने रहते हैं।"

    गुडएनफ के अनुसार-  “व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।"

    शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएँ

    शैशवावस्था, मानव विकास की दूसरी अवस्था है। पहली अवस्था गर्भकाल है जिसमे शरीर पूर्णतः बनता है और शैशवावस्था में उसका विकास होता है। शैशवावस्था की विशेषतायें इस प्रकार है- 

    1. शारीरिक विकास में तीव्रता 

    शैशवावस्था के प्रथम तीन वर्षों में शिशु का शारीरिक विकास अति तीव्र गति से होता है। उसके भार और लम्बाई में वृद्धि होती है। तीन वर्ष के बाद विकास की गति धीमी हो जाती है। उसकी इन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, आन्तरिक अंगों माँसपेशियों आदि का क्रमिक विकास होता है।

    2. मानसिक क्रियाओं की तीव्रता 

    शिशु की मानसिक क्रियाओं, जैसे- ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना और प्रत्यक्षीकरण (Sensation and Perception) आदि के विकास में पर्याप्त तीव्रता होती है। तीन वर्ष की आयु तक शिशु की लगभग सब मानसिक शक्तियों कार्य करने लगती है।

    3. सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता 

    शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्रता होती है और वह अनेक आवश्यक बातों को सीख लेता है। गेसल (Gesell) का कथन है- "बालक प्रथम 6 वर्षों में बाद के 12 वर्षों से दूना सीख लेता है।" 

    4. कल्पना की सजीवता 

    कुप्पूस्वामी (Kuppuswamy) के शब्दों में- "चार वर्ष के बालक के सम्बन्ध में एक अति महत्वपूर्ण बात है, उसकी कल्पना की सजीवता। यह सत्य और असत्य में अन्तर नहीं कर पाता है। फलस्वरूप, वह असत्यभाषी जान पड़ता है।"

    5. दूसरों पर निर्भरता 

    जन्म के बाद शिशु कुछ समय तक बहुत असहाय स्थिति में रहता है। उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के अलावा प्रेम और सहानुभूति पाने के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। वह मुख्यतः अपने माता-पिता और विशेष रूप से अपनी माता पर निर्भर रहता है।

    6. आत्म प्रेम की भावना 

    शिशु में आत्म-प्रेम की भावना बहुत प्रबल होती है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहन आदि का प्रेम प्राप्त करना चाहता है। पर साथ ही वह यह भी चाहता है कि प्रेम उसके अलावा और किसी को न मिले। यदि और किसी के प्रति प्रेम व्यक्त किया जाता है तो उसे उससे ईर्ष्या हो जाती है। 

    7. नैतिकता का अभाव 

    शिशु में अच्छी और बुरी उचित और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह उन्हीं कार्यों को करना चाहता है, जिनमें उसको आनन्द आता है, भले ही वे अवांछनीय हो। इस प्रकार उसमें नैतिकता का पूर्ण अभाव होता है।

    8. मूलप्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार

    शिशु के अधिकांश व्यवहार का आधार उसकी मूलप्रवृत्तियाँ होती हैं। यदि उसको किसी बात पर क्रोध आ जाता है, तो वह उसको अपनी वाणी या क्रिया द्वारा व्यक्त करता है। यदि उसे भूख लगती है, तो उसे जो भी वस्तु मिलती है. उसी को अपने मुँह में रख लेता है। 

    9. सामाजिक भावना का विकास 

    इस अवस्था के अन्तिम वर्षों में शिशु में सामाजिक भावना का विकास हो जाता है। वैलेनटीन (Valentine) का मत है- "चार या पाँच वर्ष के बालक में अपने छोटे भाइयों, बहिनों या साथियों की रक्षा करने की प्रवृत्ति होती है। वह 2 से 5 वर्ष तक के बच्चों के साथ खेलना पसन्द करता है। वह अपनी वस्तुओं में दूसरों को साझीदार बनाता है। वह दूसरे बच्चों के अधिकारों की रक्षा करता है और दुःख में उनको सांत्वना देने का प्रयास करता है।"

    10. दूसरे बालकों में रुचि या अरुचि  

    शिशु में दूसरे बालकों के प्रति रुचि या अरुचि उत्पन्न हो जाती है। इस सम्बन्ध में स्किनर (Skinner) ने लिखा है- "बालक एक वर्ष का होने से पूर्व ही अपने साथियों में रुचि व्यक्त करने लगता है। आरम्भ में इस रुचि का स्वरूप अनिश्चित होता है, पर शीघ्र ही यह अधिक निश्चित रूप धारण कर लेती है और रुचि एवं अरुचि के रूप में प्रकट होने लगती है।"

    11. संवेगों का प्रदर्शन

    शिशु में जन्म के समय उत्तेजना' के अलावा और कोई संवेग नहीं होता है। ब्रिजेज (Bridges) ने 1932 में अपने अध्ययनों के आधार पर घोषित किया कि दो वर्ष की आयु तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हो जाता है। बाल मनोवैज्ञानिकों ने शिशु में मुख्य रूप से चार संवेग माने हैं- भय, क्रोध, प्रेम और पीड़ा।

    12. काम प्रवृत्ति  

    बाल-मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि शिशु में काम-प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है, पर वयस्कों के समान वह उसको व्यक्त नहीं कर पाता है। अपनी माता का स्तनपान करना और यौनांगों पर हाथ रखना बालक की काम प्रवृत्ति के सूचक हैं। 

    13. दोहराने की प्रवृत्ति

    शिशु में दोहराने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। उसमें शब्दों और गतियों को दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पाई जाती है। ऐसा करने में वह विशेष आनन्द का अनुभव करता है।

    14. जिज्ञासा की प्रवृत्ति 

    शिशु में जिज्ञासा (Curiosity) की प्रवृत्ति का बाहुल्य होता है। वह अपने खिलौने का विभिन्न प्रकार से प्रयोग करता है। वह उसको फर्श पर फेंक सकता है। वह उसके भागों को अलग-अलग कर सकता है। वह बहुधा अपने खिलौनों को विभिन्न विधियों से रखने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार की क्रियाओं द्वारा वह अपनी जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने की चेष्टा करता है। इसके अतिरिक्त, वह विभिन्न बातो और वस्तुओं के बारे में क्यों और कैसे' के प्रश्न पूछता है।

    15. अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति 

    शिशु में अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति होती है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहिन आदि के कार्यों और व्यवहार का अनुकरण करता है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता है, तो रोकर या चिल्लाकर अपनी असमर्थता प्रकट करता है। अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति उसे अपना विकास करने में सहायता देती है।

    16. अकेले व साथ खेलने की प्रवृत्ति 

    शिशु में पहले अकेले और फिर दूसरों के साथ खेलने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति में होने वाले परिवर्तन का वर्णन करते हुए क्रो एवं क्रो (Crow and Crow) ने लिखा है- "बहुत ही छोटा शिशु अकेला खेलता है। धीरे-धीरे वह दूसरे बालकों के समीप खेलने की अवस्था में से गुजरता है। अन्त में, वह अपनी आयु के बालकों के साथ खेलने में महान् आनन्द का अनुभव करता है।"

    शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप

    वैलेन्टाइन ने शैशवावस्था को 'सीखने का आदर्श काल' ("Ideal period for learning") माना है। वाटसन ने कहा है- "शैशवावस्था में सीखने की सीमा और तीव्रता, विकास की और किसी अवस्था की तुलना में बहुत अधिक होती है।"

    इस कथन को ध्यान में रखकर शैशवावस्था में शिक्षा का आयोजन निम्नांकित प्रकार से किया जाना चाहिए-

    1. उचित वातावरण 

    शिशु अपने विकास के लिए शान्त, स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण चाहता है। अतः घर और विद्यालय में उसे इस प्रकार का वातावरण प्रदान किया जाना चाहिए।

    2. उचित व्यवहार 

    शिशु अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। उसके माता-पिता और शिक्षक को उसकी इस असहाय स्थिति से लाभ नहीं उठाना चाहिए। अतः उन्हें उसे डांटना या पीटना नहीं चाहिए और न उसे भय या क्रोध दिखाना चाहिए। इसके विपरीत उन्हें उसके प्रति सदैव प्रेम शिष्टता और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। 

    3. जिज्ञासा की सन्तुष्टि

    क्रो एवं क्रो (Crow and Crow)  के अनुसार- "शिशु शीघ्र ही अपनी आस-पास की वस्तुओं के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा व्यक्त करने लगता है।" वह उनके विषय में अनेक प्रकार के प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शान्त करना चाहता है। उसके माता-पिता और शिक्षक को उसके प्रश्नों के उत्तर देकर उसकी जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए। 

    4. वास्तविकता का ज्ञान

    शिशु-कल्पना के जगत् में विचरण करता है और उसी को वास्तविक संसार समझता है। अतः उसे ऐसे विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए, जो उसे वास्तविकता के निकट लाये। मॉण्टेसरी पद्धति में परियों की कहानियों को इसलिए स्थान नहीं दिया गया है, क्योंकि वे बालक को वास्तविकता से दूर ले जाती है।

    5. आत्म-निर्भरता का विकास 

    आत्म-निर्भरता से शिशु को स्वयं सीखने, काम करने और विकास करने की प्रेरणा मिलती है। अतः उसको स्वतन्त्रता प्रदान करके, आत्म-निर्भर बनने का अवसर दिया जाना चाहिए। 

    6. निहित गुणों का विकास 

    शिशु में अनेक निहित गुण होते हैं। अत उसे इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे उसमें इन गुणों का विकास हो। यही कारण है कि आधुनिक युग में शिशु शिक्षा के प्रति विशेष ध्यान दिया जा रहा है।

    7. सामाजिक भावना का विकास

    शैशवावस्था के अन्तिम भाग में शिशु दूसरे बालकों के साथ मिलना-जुलना और खेलना पसन्द करता है। उसे इन बातों का अवसर दिया जाना चाहिए ताकि उसमें सामाजिक भावना का विकास हो । 

    8. आत्म-प्रदर्शन का अवसर 

    शिशु में आत्म-प्रदर्शन, की भावना होती है। अत उसे ऐसे कार्य करने के अवसर दिये जाने चाहिए. जिनके द्वारा वह अपनी इस भावना को व्यक्त कर सके।

    9. मानसिक क्रियाओं का अवसर

    शिशु में मानसिक क्रियाओं की तीव्रता होती है। अतः उसे सोचने-विचारने के अधिक-से-अधिक अवसर दिये जाने चाहिए। 

    10. अच्छी आदतों का निर्माण 

    ड्राइडेन (Dryden) का कथन है-"पहले हम अपनी आदतों का निर्माण करते हैं और फिर हमारी आदतें हमारा निर्माण करती है।" शिशु के माता-पिता और शिक्षक को इस सारगर्भित वाक्य को सदैव स्मरण रखना चाहिए। अतः उन्हें उसमें सत्य बोलने, बड़ों का आदर करने, समय पर काम करने और इसी प्रकार की अन्य अच्छी आदत का निर्माण करना चाहिए।

    11. मूलप्रवृत्तियों को प्रोत्साहन

    शिशु के व्यवहार का आधार उसकी मूलप्रवृत्तियों होती है। अतः उनका दमन न करके सभी सम्भव विधियों से प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि दमन करने से शिशु का विकास अवरुद्ध हो जाता है।

    12. क्रिया द्वारा शिक्षा

    बालक कुछ प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है, जो उसे कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। अतः उसे उनके अनुसार कार्य करके शिक्षा प्राप्त करने की (Learning by doing) स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए।

    13. खेल द्वारा शिक्षा

    शिशु को खेल द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए। इसका कारण बताते हुए स्ट्रेंग (Strang) ने लिखा है- "शिशु अपने और अपने संसार के बारे में अधिकांश बातें खेल द्वारा सीखता है।" 

    14. चित्रों व कहानियों द्वारा शिक्षा

    शिशु की शिक्षा में कहानियों और सचित्र पुस्तकों का विशिष्ट स्थान होना चाहिए। इसके कारण पर प्रकाश डालते हुए क्रो एवं क्रो (Crow and Crow)  ने लिखा है- "पाँच वर्ष का शिशु कहानी सुनते समय उससे सम्बन्धित चित्रों को पुस्तक में देखना पसन्द करता है।"

    15. विभिन्न अंगों की शिक्षा 

    शिशु की ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसका समर्थन करते हुए रूसो ने लिखा है- "बालक के हाथ, पैर और नेत्र उसके प्रारम्भिक शिक्षक हैं। इन्हीं के द्वारा वह पाँच वर्ष में ही पहचान सकता है, सोच सकता है और याद कर सकता है।"

    उपसंहार

    शैशवावस्था की विशेषताओं को ध्यान में रखकर हमने शिशु-शिक्षा के जिस स्वरूप की रूपरेखा प्रस्तुत की है, उसके बहुत-कुछ अनुरूप सभी प्रगतिशील देशों ने अपने शिशुओं की शिक्षा की सुव्यवस्था कर दी है। कदाचित् भारत अपने को प्रगतिशील न मानने के कारण शिक्षा के इस क्षेत्र में बहुत पिछड़ा हुआ है। इसीलिए 'शिक्षा आयोग ने शिशु-शिक्षा या पूर्व प्राथमिक शिक्षा के विस्तार की सिफारिश करते हुए लिखा है-"तीन और दस के बीच के वर्ष बालक के शारीरिक, संवेगात्मक और मानसिक विकास के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। अतः हम पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के अधिक-से-अधिक सम्भव विस्तार की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं।"

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