अमेरिकी संविधान की मुख्य विशेषताएं क्या हैं?

 अमेरिकी संविधान की मुख्य विशेषताएं

जैसा कि हमने देखा है कि 1787 में  अमेरिकी संविधान लिखा गया जो दो वर्ष बाद लागू हुआ। साथ ही, समय-समय पर किए गए संशोधनों, कांग्रेस द्वारा निर्मित प्रमुख कानूनों, राष्ट्रपति के महत्वपूर्ण आदेशों, न्यायालयों के अग्रणी निर्णयों तथा धीरे-धीरे विकसित होने वाली परिपाटियों ने उसे एक सजीव यन्त्र बना दिया। यदि ब्रिटिश संविधान निर्माण नहीं वरन् विकास है तो अमरीकी संविधान निर्माण व विकास दोनों है। अतः उसकी अनिवार्य विशेषताओं का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। जो इस प्रकार से है-

1. निर्मित व लिखित संविधान

यह संविधान 1787 मे फिलाडेल्फिया की संविधान सभा ने बनाया जिसे उन सभी राज्यों द्वारा पुष्ट किया गया जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र का निर्माण किया। यह 1789 में लागू हो गया। इस संविधान में सात अनुच्छेद हैं लेकिन कुछ अनुच्छेद इतने लम्बे हैं कि उनके भीतर धाराएँ रखी हुई हैं। इन्ही प्रावधानों के अनुसार, राष्ट्रपति, कांग्रेस व सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है तथा सभी की शक्तियों व कार्यों को स्पष्ट कर दिया गया है ताकि विवाद की कोई गुंजाइश न रहे। केन्द्र की शक्तियाँ लिख दी गई हैं तथा अवशिष्ट शक्तियाँ राज्यों को दी गई हैं। संविधान में से में संशोधन प्रक्रिया भी दी गई है ताकि यथा आवश्यकता इसमें संशोधन किया जा सके। इसमें अभी तक 27 संशोधन किये जा चुके हैं। समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय ने व्याख्याएँ दी हैं जिन्हें ध्यान में रखकर यह कहा जाता है कि मूल संविधान तो 5 पृष्ठों का है किन्तु न्यायिक व्याख्याएँ 5,000 पृष्ठों में आयेंगी।

2. कठोर संविधान

संविधान की संशोधन प्रक्रिया उसकी प्रकृति का निर्धारण करती है। यदि यह प्रक्रिया सरल है तो संविधान लचीला होता है जैसा हम ब्रिटिश संविधान के बारे में देख सकते हैं। यहाँ संवैधानिक विधि व साधारण विधि में अन्तर नहीं होता क्योंकि दोनों को संसद अपने साधारण बहुमत से पास करती है। इसके विपरीत, कठोर संविधान वह है जिसकी संशोधन विधि बहुत कठिन होती है। संवैधानिक विधि तथा साधारण विधि में अन्तर होता है, संवैधानिक विधि को उच्चतर विधि माना जाता है। इसलिए उसमें संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत (जैसे 2/3 या 3/4) से बिल पास किया जाता है और बाद में उसे प्रान्तों या लोक निर्णय द्वारा पुष्ट किया जाता है। अमरीकी संविधान कठोर संविधान का प्रमुख उदाहरण है।

संविधान के पाँचवें अनुच्छेद में संशोधन प्रक्रिया का उल्लेख है जिसके अनुसार संशोधन के दो तरीके निश्चित किए गए हैं-

  • संशोधन का प्रस्ताव कांग्रेस के दोनों सदनों से 2/3 बहुमत से पास होना चाहिए। फिर उसे राज्यों को समर्थन के लिए भेजा जाएगा। हर राज्य की कांग्रेस उसे 2/3 बहुमत से पास करेगी। यदि कुल 3/4 राज्यों का समर्थन मिल जाता है तो वह संशोधन अधिनियम बन जाएगा।
  • यदि 2/3 राज्यों की ओर से ऐसी माँग की जाए तो कांग्रेस एक संविधान सभा बुलाएगी। यहाँ वह बिल 2/3 बहुमत से पास होना चाहिए। फिर उस संशोधन बिल को राज्यों के समर्थन हेतु भेजा जाएगा। अब हर राज्य में संविधान सभा का आयोजन किया जाएगा जहाँ 2/3 बहुमत से वह बिल पास होना चाहिए। यदि 3/4 राज्यों की संविधान सभाओं ने उसे अपना समर्थन दे दिया तो वह बिल पास माना जाएगा। यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि जब कोई संशोधन बिल राज्यों की पुष्टि को भेजा जाएगा तो वे इसे अपनी कांग्रेस द्वारा पुष्ट कुरा सकते हैं या संविधान सभा बुला सकते हैं। उदाहरण के लिए, संशोधन का एक बिल कांग्रेस से पास होकर राज्यों की संविधान सभाओं द्वारा पुष्ट किया गया जो 1951 का 22वाँ संशोधन बना।

इस दिशा में कुछ अग्रलिखित महत्वपूर्ण बिन्दुओं का उल्लेख किया जाना जरूरी है जैसे-

  • संशोधन का कार्य कांग्रेस ही शुरू करेगी। या तो वह बिल कांग्रेस से पास होकर राज्यों के समर्थन को जायेगा या कम से कम 2/3 राज्यों की याचिका पर काँग्रेस द्वारा आयोजित संविधान सभा उसे पास करेगी फिर वह राज्यों के समर्थन हेतु भेजा जायेगा। अभी तक इसका प्रयोग नहीं हुआ है।
  • काँग्रेस से पास होने पर बिल राज्यों के समर्थन को जायेगा तो काँग्रेस ही यह निश्चित करेगी कि उसे वहाँ की काँग्रेस पास करे या वहाँ संविधान सभाएँ बुलाई जाएँ।
  • 2/3 बहुमत का अर्थ उपस्थित व मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से है।
  • किसी राज्य की काँग्रेस अपना निर्णय हाँ या ना में दे सकती है, वह अपनी ना को आगे चलकर हाँ में बदल सकती है किन्तु हाँ की जगह ना नहीं हो सकती।
  • जब 3/4 राज्यों (38 राज्यों) का समर्थन मिल जाता है, तभी संशोधन कार्य पूर्ण हो जाता है चाहे कुछ राज्यों ने उस पर अपना निर्णय न दिया हो।
  • काँग्रेस समय सीमा निश्चित कर सकती है जिसके भीतर राज्यों को अपना निर्णय लेना चाहिए।
  • संविधान में संशोधन बिल राष्ट्रपति की वीटो शक्ति के अधीन नहीं है।

निस्सन्देह, यह संशोधन प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है यही कारण है कि संशोधन करने में बहुत समय लगता है। एक  अमेरिकी लेखक यह टिप्पणी करता है कि एक पीढ़ी के लोगों ने आने वाली पीढ़ियों की प्रभुसत्ता पर सदैव के लिए प्रतिबन्ध लगा दिया है मानो कब्रिस्तान द्वारा शासन की स्थापना की गई है।

3. शक्तियों का पृथक्करण तथा निरोध व सन्तुलन

इंग्लैण्ड के जान लाक ने संकेत दिया था जिसके आधार पर फ्रांस के मांटेस्क्यू ने शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। उसके अनुसार, यदि कार्यपालिका, व्यवस्थापिका व न्यायपालिका की शक्तियों का संकेन्द्रण किया जाए तो व्यक्ति की स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है। अमेरिका के संविधान-निर्माताओं ने इस सूत्र को ग्रहण किया। मेडीसन ने कहा कि शक्तियों का संग्रहण व सकेन्द्रण, चाहे एक के हाथ में हो या कुछ के हाथों में हो या बहुतों के हाथों में हो वे चाहे पैत्रिक हो या मानोनीत या निर्वाचित, वह अत्याचरतन्त्र का ही रूप होगा।

अतः उन्होंने शक्तियों के पृथक्करण के सूत्र के आधार पर अपना शासन तन्त्र स्थापित किया। कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति को दी गई, काँग्रेस को विधायन का कार्य सौंपा गया तथा न्यायिक कार्य सर्वोच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ संधीय न्यायालयों को दिया गया। सरकार के तीनों अंगों के अधिकारियों को अलग कर दिया गया अर्थात् राष्ट्रपति का काम प्रशासन तक सीमित है, काँग्रेस का सरोकार विधायन से है तथा न्यायिक कार्य सर्वोच्च न्यायालय तथा अन्य संधीय न्यायालयों के पास है। संविधान निर्मातागण यह चाहते थे कि उनके देश में जार्ज तृतीय जैसा निरंकुश शासक न हो जैसा उस समय इंग्लैण्ड में था। उन्होंने इस सूत्र को भी अपने ध्यान में रखा कि शक्ति मनुष्य को दूषित करती है तथा शक्ति का काट शक्ति है। इसीलिए माण्टेस्क्यू को  अमेरिकी संविधान का बौद्धिक पिता कहा जाता है।

लेकिन अमेरिका के संविधान-निर्मातागण वैज्ञानिक भी थे। उन्होंने प्रकृति से यह सीखा कि सूर्य, चन्द्रमा व पृथ्वी एक-दूसरे से अलग हैं लेकिन तीनों एक दूसरे को खीचते हैं जिससे सन्तुलन बना हुआ है। अतः उन्होंने शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त को निरोध व सन्तुलन के सूत्र से जोड़ दिया। सरकार के तीनों अंगों को एक-दूसरे से इस प्रकार जोड़ा कि प्रत्येक का प्रत्येक पर नियन्त्रण बना रहे और जिससे ऐसा सन्तुलन बरकरार रहे कि कोई अधिकारी जार्ज तृतीय जैसा निरंकुश शासक न हो तथा व्यक्ति की स्वतन्त्रता बनी रहे। इस व्यवस्था को हम इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं-

  • कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति के पास है। वह अनेक नियुक्तियाँ तथा विदेश सन्धियों करता है। यह आवश्यक है कि उसकी सभी नियुक्तियाँ व विदेश सन्धियाँ सीनेट द्वारा पुष्ट की जायें। यदि राष्ट्रपति संविधान का उल्लंघन करता है तो काँग्रेस उसे महाभियोग की प्रक्रिया से हटा सकती है। इसके अतिरिक्त, यदि वह अपनी सीमाओं का उल्लंघन करे तो सर्वोच्च न्यायालय उसके कृत्य को असंवैधानिक कहकर रद्द कर सकता है।
  • विधायन का कार्य काँग्रेस को दिया गया है। इसलिए वह बिल पास करती है जो राष्ट्रपति की वीटो शक्ति के अधीन है। यदि राष्ट्रपति किसी बिल को अस्वीकार करता है किन्तु काँग्रेस उसे पुनः पारित करती है तो फिर उस पर राष्ट्रपति की वीटो शक्ति लागू नहीं होती। यदि काँग्रेस बिल पास करती है और वह राष्ट्रपति की अनुमति पाकर कानून बन जाता है तो सर्वोच्च न्यायालय उसे रद्द कर सकता है यदि वह संविधान या विधि की उचित प्रक्रिया का उल्लंघन करे।
  • न्याय की शक्तियाँ सर्वोच्च न्यायालय के पास है। काँग्रेस कानून बनाकर जजों की संख्या बढ़ा सकती है। राष्ट्रपति जजों की नियुक्तियाँ करते हैं लेकिन उनकी सीनेट द्वारा पुष्टि होनी चाहिए। यदि किसी जज के खिलाफ गम्भीर आरोप लगता है तो कांग्रेस उसे महाभियोग की प्रक्रिया से हटा सकती है।

लेकिन समय के साथ स्थिति काफी बदल चुकी है। प्रशासन के क्षेत्र में राष्ट्रपति ने अपनी शक्तियों को बहुत बढ़ा लिया है। सीनेट उच्च सदन होते हुए शक्तिशाली निकाय बन गई है किन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी सर्वोच्चता स्थापित कर ली है। इंग्लैण्ड में संसदीय प्रभुसत्ता कोई तथ्य हो या न हो, अमेरिका में न्यायिक सर्वोच्चता एक अकाट्य यथार्थ बन चुका है। अतः शक्तियों के पृथक्करण का सूत्र काफी हद तक ह्रासग्रस्त हो चुका है।

4. संघीय व्यवस्था

ब्रिटेन में एकात्मक व्यवस्था है, जबकि  अमेरिका के संविधान निर्माताओं ने अपने राज्य को संघात्मक बनाया है। संविधान देश की सर्वोच्च व लिखित विधि है, उसकी संशोधन प्रक्रिया कठोर है क्योंकि संशोधन का बिल 2/3 बहुमत से पास होना चाहिए तथा इस बारे में केन्द्र व राज्यों की भागीदारी सुनिश्चित की गई है। संघीय व्यवस्था का मूल लक्षण है केन्द्र है केन्द्र व इकाइयों के बीच शक्तियों का विभाजन। अतः केन्द्र की 18 शक्तियाँ लिखी गई हैं, जबकि अवशिष्ट शक्तियाँ राज्यों के पास हैं। अन्त में, एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई है जो समय-समय पर यथाआवश्यकता संविधान की धाराओं की व्याख्या करता है तथा केन्द्र व राज्यों के बीच संवैधानिक विवादों को निपटाता है। इसका निर्णय अन्तिम है।

संविधान के प्रथम अनुच्छेद की धारा 8 के अनुसार काँग्रेस को निम्न 18 विषयों पर विधायन की शक्ति प्राप्त है-

  • करों का लगाना व उनकी वसूली करना, ऋणों का भुगतान तथा देश की सांझी सुरक्षा व उसके कल्याण की व्यवस्था करना,
  • संयुक्त राष्ट्र की साख पर धन उधार लेना,
  • विदेशी राष्ट्रों तथा अमरीकी प्रान्तों (राज्यों) के बीच वाणिज्य को व्यवस्थित करना,
  • प्राकृतीकरण तथा सारे देश में दिवालियापन के बारे में समान नियम लागू करना,
  • मुद्रा का प्रचलन करना तथा नाप व तौल के मानदण्ड निर्धारित करना,
  • नकली मुद्रा या प्रत्याभूतियों के बनाने वालों को दण्डित करना,
  • डाकखानों व डाक रिकार्ड की स्थापना करना,
  • विज्ञान व उपयोगी कलाओं के विकास को प्रोत्साहित करना,
  • सुप्रीम कोर्ट व अधीनस्थ संघीय न्यायाधिकरणों की स्थापना करना,
  • समुद्रों में होने वाली चोरियों व डकैतियों तथा राष्ट्रों की विधि के विरुद्ध अपराधों की परिभाषा करना तथा दोषी लोगों को दण्ड देना,
  • युद्ध की घोषणा करना तथा जल व थल पर पकड़े गये लोगों व माल के बारे में नियम बनाना,
  • सेनाओं का गठन व उनका रख रखाव करना किन्तु हर दो वर्ष बाद उसका नवीकरण होना,
  • जल सेना बनाये रखना,
  • जल सेना व थल. सेना के व्यवस्थापन व प्रशासन के लिए नियम बनाना,
  • सेना को आदेश देना कि वह संघ के कानूनों को लागू करे, विप्लवों का दमन करे तथा आक्रमणों को रोकना,
  • सेना के गठन, शस्त्रीकरण तथा अनुशासन की व्यवस्था करना,
  • उन सभी अर्जित जिलों या किसी राज्य की सहमति से किलाबन्दी, शस्त्रागार या भवन निर्माण या किसी अन्य आवश्यकता हेतु खरीदे गये क्षेत्रों पर विधायन के एकान्तिक अधिकार का प्रयोग करना तथा
  • उपर्युक्त शक्तियों के अनिवार्य व उचित क्रियान्वयन के लिए कानून बनाना।

किन्तु  अमेरिकी संघीय व्यवस्था के अध्ययन में निम्न बिन्दुओं को भी ध्यान में रखना चाहिए। प्रथम, चूँकि 13 राज्यों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र की रचना की, अतः उन्होंने इसे परिसंघ (Confederation) कहा और हर इकाई को शक्तियाँ दी गई हैं। (State) राज्य का नाम दिया गया। तीसरे, राज्यों की दूसरे, हर राज्य को स्वायत्तता प्राप्त है, उन्हें अवशिष्ट शक्तियाँ अपारिभाषित हैं किन्तु असीमित नहीं हैं। चौथा, सीनेट में सभी राज्यों को दो स्थान दिये गये हैं चाहे उनका भौगोलिक या जनसांख्यिक आकार कुछ भी हो। अन्तिम, कुछ समवर्ती क्षेत्र भी हैं जिन पर दोनों सरकारों का अधिकार है, जैसे- चार्टर्ड बैंक व निगम, न्यायालयों की स्थापना, जन हित में निजी सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण आदि ।

यद्यपि संविधान में अमेरिका को परिसंघ कहा गया है, वास्तव में वह परिसंघ नहीं है। उस समय की जरूरत को देखते हुए ऐसा लिखा गया क्योंकि घटक राज्य अपनी स्वायत्तता छोड़ना नहीं चाहते थे तथा वे केन्द्रीय सरकार की शक्तियों के प्रति शंकालु थे। परिसंघ में एककों को यह अधिकार होता है कि वे अपनी मुद्रा व सेना रखें और जब चाहे तब परिसंघ छोड़ दें। इसीलिए परिसंघ को शिथिल संघ कहा जाता है लेकिन जब राष्ट्रपति लिंकन ने 1865 में दासता का अन्त किया और दक्षिण के राज्यों की उद्दण्डता से निपटने के लिए सैनिक बल का प्रयोग करने की धमकी दी तो यह स्पष्ट हो गया कि अमेरिका परिसंघ नहीं, वास्तव में "अनाशमान राज्यों का अनाशमान संघ है।" इसके अतिरिक्त, केन्द्रीय सरकार का पलड़ा बहुत भारी हो चुका है। केन्द्रवाद (Centralism) का लक्षण सभी संघीय व्यवस्थाओं में अपनी जगह बना चुका है, अमेरिका उसका अपवाद नहीं हो सकता। अब राज्यों की स्थिति उस ध्रुव की भाँति नहीं है जिसके चारों ओर समस्त अमेरिकन राजनीतिक व्यवस्था घूमती है।

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5. न्यायिक सर्वोच्चता

जिस प्रकार संसद की प्रभुसत्ता ब्रिटिश संविधान का प्रधान लक्षण माना जाता है, उसी प्रकार न्यायिक सर्वोच्चता  अमेरिकी संविधान का प्रमुख लक्षण है। आश्चर्य की बात यह है कि जब यह संविधान शक्तियों के पृथक्करण तथा निरोध व सन्तुलन के सूत्र पर बना है तो न्यायपालिका ने अपनी सर्वोच्चता कैसे स्थापित कर ली। इसके निम्न कारण बताये जा सकते हैं-

  •  अमेरिकी संविधान ने संघीय व्यवस्था स्थापित की है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को यह शक्ति प्रदान की गई है कि वह आवश्यकता पड़ने पर संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करे तथा केन्द्र व राज्यों के बीच संवैधानिक विवादों का निपटारा करे। तथा इसका निर्णय अन्तिम है।
  • सवर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की शक्ति का आविष्कार किया है। वह काँग्रेस के के किसी कानून या राष्ट्रपति के किसी आदेश को असंवैधानिक कहकर उसे निष्प्रभावी कर सकती है। इतना ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों के कानूनों व प्रशासकीय आदेशों को अपनी इस शक्ति के नीचे कर लिया है। फल यह हुआ है कि जैसा न्यायमूर्ति हुयेज (Hughes) ने कहा, "संविधान वही है जो जज कहे कि यही है।"
  • सर्वोच्च न्यायालय ने विधि की उचित प्रक्रिया का यन्त्र विकसित कर लिया है। अतः वही मान्य है जो उसकी दृष्टि में विधि की उचित प्रक्रिया के अनुकूल है। ब्रिटेन में संसद विधि की प्रक्रिया निश्चित करती है जिसका न्यायालयों को पालन करना पड़ता है लेकिन अमेरिका में न्यायालय देखता है कि विधि की उचित प्रक्रिया का पालन हुआ है या नहीं और वही इसका अर्थ निश्चित करता है। लास्की के अनुसार, इस यन्त्र ने द्वार नहीं बल्कि मार्ग खोल दिया है और इसी ने ऐसी बाधा खड़ी की है जिससे अमेरिका के राजनीतिक लोकतन्त्र को सामाजिक लोकतन्त्र में नहीं बदला जा सकता।
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6. अध्यक्षीय शासन प्रणाली

ब्रिटेन में संसदीय शासन प्रणाली है जो सुस्थापित रीति-रिवाजों पर आधारित है, अमेरिका में अध्यक्षीय शासन प्रणाली है जो संविधान के लिखित प्रावधानों पर टिकी है किन्तु समय के साथ कुछ परम्पराएँ भी विकसित हुई हैं जिन्होंने उसके संचालन को रूप प्रदान किया है। राष्ट्रपति कार्यपालिका का वास्तविक अध्यक्ष है जो चार वर्षों के लिए चुना जाता है। वह अपने मन्त्रियों को नियुक्त करता है, उनके विभाग बाँटता है, उनके विभागों को बदल सकता है। वह किसी मन्त्री से त्यागपत्र माँग सकता है। वह कैबनिट की बैठक की अध्यक्षता करता है तथा उसी की इच्छानुसार निर्णय लिये जाते हैं। वह व उसके मन्त्रीगण काँग्रेस के सदस्य नहीं हो सकते। वह समय-समय पर काँग्रेस को अपना सन्देश भेज सकता है या वहाँ जाकर बोल सकता है लेकिन वोट नहीं दे सकता।

अध्यक्षीय व्यवस्था में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका से पृथक् रखा जाता है तथा पूर्वोक्त को उत्तरोक्त के प्रति उत्तरदायी नहीं बनाया जाता। इसीलिए अमरीकी काँग्रेस सरकार के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास नहीं कर सकती। यदि कोई राष्ट्रपति किसी गम्भीर काण्ड में फँस जाता है तथा इस कारण आलोचना का शिकार हो जाता है तो कॉग्रेस उसे महाभियोग की प्रक्रिया से हटा सकती है। चूँकि यह प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है, इसीलिए अभी तक किसी राष्ट्रपति को हटाया नहीं जा सका। एन्ड्रयु जानसन, निक्सन व क्लिण्टन के मामले इसके उदाहरण हैं। इन सभी विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण यह दर्शाता है कि लोक प्रभुसत्ता अमरीकी राजनीतिक व्यवस्था का आधारभूत तत्व है। इसके चार लक्षण बताए जा सकते हैं- 

  • एक सन्तोषजनक सूत्र निर्धारित किया जा सकता है कि कौन लोग प्रभुसत्ता का प्रयोग करेंगे। 
  • लोग उस काम के करने में सक्षम व इच्छुक हैं जो एक सर्वोच्च शासक को करना अपेक्षित है। 
  • यह निश्चित करने हेतु प्रभावी तरीके ढूँढ़े जा सकते हैं कि लोग क्या चाहते हैं। 
  • ऐसा संविधान बनाया जा सकता है तथा ऐसा शासन स्थापित किया जा सकता है जो लोगों की इच्छा की सत्यनिष्ठापूर्वक तथा प्रभावशाली ढंग से व्याख्या व उसका क्रियान्वयन करेगा।

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