बारहवीं शताब्दी(12वीं शताब्दी) की राजनीतिक स्थिति क्या थी ?

बारहवीं शताब्दी की राजनीतिक स्थिति 

बारहवीं शताब्दी में उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। शक्तिशाली गुप्त-वंशीय शासकों के द्वारा स्थापित की गई भारत की राजनीतिक एकता हर्ष की मृत्यु के पश्चात् समाप्त हो गई थी। सम्पूर्ण उत्तरी भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया था जिनमें पारस्परिक वैमनस्य के कारण सदैव युद्ध होते रहते थे, जो भारत की शक्ति में निरन्तर ह्रास कर रहे थे। भारत की इस स्थिति का मुसलमान आक्रमणकारियों ने लाभ उठाया और सम्पूर्ण भारत पर शनैः शनैः अपना आधिपत्य स्थापित करने में सफल हो गये। 711-712 ई. में मुहम्मद बिन कासिम (Mohd. Ibn Qasim) ने भारत पर आक्रमण किया था। यद्यपि यह तिथि भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण मानी जाती है, किन्तु बिन कासिम के आक्रमण से मुसलमानों के राज्य की भारत में स्थापना अथवा किसी शक्तिशाली भारतीय शक्ति का पतन नहीं हुआ था। बिन कासिम के आक्रमण के तीन शताब्दियों के पश्चात् महमूद गजनवी का आक्रमण भारत पर हुआ। महमूद गजनवी के अभियान के साथ ही भारत पर संकट के बादल मंडराने लगे थे। बारहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में मुहम्मद गोरी के आक्रमण के साथ ही संकट के ये बादल घने होते चले गये और बारहवीं शताब्दी के अन्त तक भारत के बड़े भू-भाग पर मुसलमानों का अधिकार हो चुका था। इस प्रकार सम्पूर्ण भारत पर अधिकार करने में मुसलमानों को लगभग छह शताब्दियों का समय लगा।

बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गोरी के भारतीय अभियान के समय सम्पूर्ण भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था जिनमें से तीन राज्यों (सिन्ध, मुल्तान, पंजाब) पर तब तक मुसलमानों का अधिकार हो चुका था तथा शेष भारत पर हिन्दू शासक राज्य कर रहे थे। मुहम्मद गोरी के आक्रमण के समय उत्तरी भारत में निम्नलिखित राज्य थे-

सिन्ध- 

सिन्ध प्रदेश पर महमूद गजनवी ने अपना आधिपत्य स्थापित किया था। महमूद गजनवी की मृत्यु के उपरान्त शिया सम्प्रदाय के सुम्र-वंशीय मुसलमानों ने सिन्ध पर अधिकार कर लिया था।

मुल्तान- 

सिन्ध के उत्तर में पश्चिमी पंजाब में स्थित मुल्तान में बारहवीं शताब्दी में करमार्थियन सम्प्रदाय के मुसलमान शासन करते थे। करमार्थियन सम्प्रदाय के मुसलमान भी शिया थे।

पंजाब- 

पंजाब पर महमूद गजनवी ने अधिकार किया था, तथा 1186 ई. तक पंजाब निरन्तर गजनवी वंश के साम्राज्य का अभिन्न अंग बना रहा। पंजाब राज्य की सीमाएँ उत्तर-पूरव में जम्मू तक, दक्षिण एवं दक्षिण-पश्चिम में उसकी सीमाएँ घटती-बढ़ती रहती थीं, उत्तर में पेशावर व सियालकोट तक विस्तृत र्थी। 1186 ई. में मुहम्मद गोरी ने पंजाब की राजधानी लाहौर पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। पंजाब के तत्कालीन शासन मलिक खुसरव को उसकी मृत्यु के समय (1192 ई.) तक केद करके रखा गया।

काश्मीर

1003 ई. में रानी दिद्दा की मृत्यु के बाद काश्मीर में लोहर-वंश की स्थापना हुई। इस वंश का संस्थापक संग्रामराज था। लोहर-वंश के शासनकाल में हर्ष नामक एक शासक हुआ जिसने अपनी निर्दयता एवं विलासिता के कारण जनता को अपने विरुद्ध कर लिया। प्रजा ने शीघ्र ही हर्ष के विरुद्ध विद्रोह कर दिया एवं उसके पुत्र की हत्या कर दी। लोहर-वंश में हर्ष के पश्चात् उच्छल, पद्ध, सुस्सल, भिक्षाचार, जयसिंह आदि शासक बने। जयसिंह ने 27 वर्ष तक शासन किया। जयसिंह के पश्चात् उसके पुत्र परमानुक एवं वन्तिदेव ने 1172 ई. तक राज्य किया।

वन्तिदेव लोहर वंश का अन्तिम शासक था। लोहर-वंश के पतन के पश्चात् काश्मीर में अनेक अयोग्य शासक हुये। अन्त में, शाहमीर नामक एक मुसलमान ने 1339 ई. में अन्तिम हिन्दू शासिका रानी कोटा को हटाकर, काश्मीर पर अधिकार कर लिया तथा स्वयं 'शमशुद्दीन' के नाम से राजगद्दी पर बैठा। इस प्रकार काश्मीर में मुसलमान शासकों का आधिपत्य स्थापित हो गया।

कामरूप (आसाम)- 

1000 ई. तक प्रालम्भ के वंशज शासन करते थे। कामरूप की राजधानी ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर हारूपेश्वर नामक नगर था। प्रालम्भ वंश के अन्तिम शासक त्यागसिंह की मृत्यु के उपरान्त ब्रह्मपाल नामक व्यक्ति को जनता ने शासक चुना। ब्रह्मपाल के पुत्र रत्नपाल ने सम्भवतः 1068 ई. में चालुक्य शासक विक्रमादित्य को परास्त किया था। बंगाल के पाल-वंशीय शासक रामपाल द्वारा ब्रह्मपाल के वंश का अन्त हुआ तथा उसने तिंग्यदेव को अपने अधीन क़ामरूप का शासक बनाया। कुमारपाल के शासनकाल में तिंग्यदेव द्वारा विद्रोह किया गया जिसे दबाने के लिए कुमारपाल ने अपने मन्त्री वैद्यदेव को कामरूप भेजा था किन्तु वैद्यदेव कुछ समय पश्चात् स्वयं ही कामरूप का शासक बन बैठा।

नेपाल- 

नेपाल में ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक सामन्त अत्यन्त शक्तिशाली हो चुके थे। नेपाल में दो तीन शक्तिशाली सामन्त पाठन, भटगांव तथा काठमाण्डू को राजधानी बनाकर राज्य करते थे। ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त में तिरहुत के शासक नान्यदेव ने सम्पूर्ण नेपाल पर अधिकार कर लिया। नान्यदेव की मृत्यु के उपरान्त नेपाल के पुराने राजवंश के शासकों ने तिरहुत के राजाओं की अधीनता में राज्य किया। तत्पश्चात् नेपाल में मल्लवंशीय शासकों द्वारा राज्य किया गया। मल्लवंश का संस्थापक अरिमल्लदेव था।

कन्नौज- 

कन्नौज में राजपूतों की शाखा गहड़वालों का शासन था। प्रारम्भ में गहड़वालों का राज्य बनारस, अवध, इलाहाबाद व दिल्ली तक विस्तृत था। गहड़वाल-वंश के शक्तिशाली राजाओं की विजयों के परिणामस्वरूप गहड़वाल साम्राज्य की सीमाएँ दूर-दूर तक विस्तृत हो गई व उसकी गणना उत्तर भारत के शक्तिशाली राज्यों में होने लगी। गहड़वाल वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक गोविन्दचन्द्र हुआ जिसने तुर्क आक्रमणकारियों को भी परास्त करने का गौरव प्राप्त किया था। गोविन्दचन्द्र का पौत्र जयचन्द्र था। जयचन्द्र को समकालीन मुसलमान लेखकों ने भारत का सबसे बड़ा सम्राट बताया है। मुहम्मद गोरी के आक्रमण के समय जयचन्द्र ही कन्नौज का शासक था।

चेदि- 

चेदि साम्राज्य में कलचुरि शासन कर रहे थे। कलचुरियों की राजधानी त्रिपुरी थी जो आधुनिक जबलपुर के निकट थी। इस वंश का संस्थापक वामराजदेव था। इस वंश के प्रतापी शासकों में गांगेयदेव एवं लक्ष्मीकर्ण के नाम उल्लेखनीय हैं। गांगेयदेव ने अपने साम्राज्य को न केवल शक्तिशाली बनाया वरन् उसका विस्तार भी किया। गांगेयदेव ने प्रयाग तथा बनारस पर अधिकार किया तथा उड़ीसा पर भी विजय प्राप्त की। रंवा अभिलेख के अनुसार, "उसके सैनिकों द्वारा मारे गये हाथियों के रुधिर से समुद्री किनारों का समस्त क्षेत्र कीचड़मय हो गया।" 1401 ई. में गांगेयदेव की मृत्यु के पश्चात् लक्ष्मीकर्ण शासक बना जिसने 1072 ई, तक शासन किया। लक्ष्मीकर्ण अपने पिता से भी अधिक पराक्रमी शासक प्रमाणित हुआ तथा विभिन्न विजयों को प्राप्त करके तत्कालीन उत्तर भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक़ बन गया। मुहम्मद गोरी के आक्रमण के समय कलचुरि वंश का शासक विजयसिंह था।

जैजाकभुक्ति- 

जैजाकभुक्ति साम्राज्य में, चन्देल वंशीय शासक शासन कर रहे थे। चन्देल-साम्राज्य में बुन्देलखण्ड, कालिंजर, झांसी, आदि सम्मिलित थे। इस वंश के प्रमुख शासकों में यशोवर्मा (930-950-ई.), धंग (950-1002 ई.), विद्याधर (1018-1029 ई.), एवं मदनवर्मा (1129-1163 ई.) के नाम उल्लेखनीय हैं।

यशोवर्मा ने कलचुरियों से युद्ध लड़ा तथा कालिंजर उनसे छीन लिया। यशोवर्मा के पश्चात् धंग ने पंजाब के राजा जयपाल को सुबुक्तगीन के विरुद्ध सहायता दी थी। धंग के पुत्र गंड ने पंजाब के राजा आनन्दपाल को महमूद गजनवी के आक्रमणों के विरुद्ध सहायता दी थी। गण्ड के । पश्चात् विद्याधर चन्देल साम्राज्य का शासक बना। विद्याधर अत्यन्त शक्तिशाली शासक था तथा उसका साम्राज्य चम्बल से नर्मदा तक विस्तृत था। विद्याधर के शासनकाल में महमूद गजनवी का आक्रमण हुआ। डॉ. मजूमदार के अनुसार, "विद्याधर ही एकमात्र ऐसा शासक था जिसके विरुद्ध महमूद को सफलता प्राप्त नहीं हुई थी।" और उसने विवश होकर विद्याधर से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया। विद्याधर के पश्चात् विजयपाल, कीर्तिवर्मा, मदन-वर्मा, आदि राजाओं ने शासन किया। मदनवर्मा के पश्चात् परमर्दिदेव (1165-1202) शासक बना। परमर्दिदेव के शासनकाल में ही मुहम्मद गोरी का आक्रमण भारत पर हुआ था।

मालवा- 

प्रतिहारों के पतन के पश्चात् मालवा पर परमार वंशीय शासकों ने अधिकार कर लिया। इस वंश के प्रमुख शासक वाक्पति द्वितीय एवं भोजराज थे। वाक्पति द्वितीय (973-996 ई.) के शासनकाल में मालवा की सैनिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में अपार उन्नति हुई। उसने अपने साम्राज्य की सीमाएँ दूर-दूर तक विस्तृत कर दी थीं। वाक्पति द्वितीय के पश्चात् कुछ समय तक सिन्धुराज ने शासन किया तत्पश्चात् परमार वंश का सबसे प्रतापी शासक भोज परमार साम्राज्य की राजगद्दी पर आसीन हुआ। भोज ने 1010 ई. से 1055 ई. तक शासन किया तथा चेदि, कर्णाट, लाट, तुरुष्क, आदि प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। भोज ने अपने जीवन के अन्तिम समय तक युद्धों में भाग लिया तथा महमूद के विरुद्ध भी सम्भवतः उसने युद्ध लड़ा। भोज के पश्चात् यद्यपि मालवा में अनेक परमार शासकों ने राज्य किया किन्तु वे निर्बल प्रमाणित हुए। 1135 ई. में मालवा पर चालुक्य शायक जयसिंह सिद्धराज ने अधिकार कर लिया। लगभग 20 वर्ष तक मालवा पर चालुक्यों का ही अधिकार रहा किन्तु परमार शासक विन्ध्यवर्मन ने चालुक्य नरेश मूलराज द्वितीय को परास्त कर पुनः मालवा पर परमारों का आधिपत्य स्थापत किये। विन्ध्यवर्मन की मृत्यु 1193 ई. में हुई।

अन्हिलवाड़- 

पश्चिम भारत के शक्तिशाली राज्यों में अन्हिलवाड़ के चालुक्यों का साम्राज्य प्रमुख था। चालुक्यों के राज्य के उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों, जिन पर विदेशियों का राज्य था, से मिले होने के कारण इस राज्य का विशेष महत्व था। इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक जयसिंह सिद्धराज था। जयसिंह सिद्धराज ने अपने शासनकाल (1094-1142 ई.) में अपने साम्राज्य का विस्तार किया। 1143 ई. में कुमारपाल शासक बना, उसने कोंकण के राजा मल्लिकार्जुन को परास्त किया। इसके अतिरिक्त, उसने अजमेर के शासक अर्णोराज व सौराष्ट्र के शासक पर विजय प्राप्त की। कुमारपाल ने 1172 ई. तक शासन किया। कुमारपाल के पश्चात् अजयपाल ने 1173 ई. से 1176 ई. तक शासन किया। अजयपाल की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र मूलराज द्वितीय शासक बना। मूलराज के शासनकाल की प्रमुख घटना मुहम्मद गोरी का आक्रमण है। इस युद्ध में मूलराज की सेना ने मुहम्मद गोरी को परास्त किया। 1178 ई. में मूलराज की मृत्यु के पश्चात् भीय द्वितीय (1178-1241 ई.) शासक बना। भीम ने कुतुबुद्दीन के आक्रमण का वीरता से सामना करके उसे परास्त किया।

बंगाल-

गुप्त-काल में बंगाल, मगध साम्राज्य का ही एक अंग था, किन्तु गुप्त-वंश के पतन के पश्चात् बंगाल छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। हर्ष का समकालीन बंगाल का शासक शशांक था। सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बंगाल में व्याप्त अराजकता को समाप्त करने के उद्देश्य से जनता ने गोपाल नामक व्यक्ति को बंगाल का शासक बनाया। इस प्रकार बंगाल में पाल-वंश की स्थापना हुई।

पाल-वंश के प्रमुख शासक धर्मपाल, देवपाल व महीपाल थे। इन शासकों के शासनकाल में पाल-साम्राज्य उन्नति की चरम सीमा तक पहुँच गया था तथा सम्पूर्ण बंगाल व बिहार पाल-साम्राज्य के अन्तर्गत था। किन्तु बारहवीं शताब्दी में पाल-साम्राज्य का तीव्रता से पतन हुआ। रामपाल की मृत्यु के पश्चात् पाल शासक आमोद-प्रमोद में लग्न रहे। शीघ्र ही ब्रह्मपुत्र की घाटी स्वतन्त्र हो गई तथा दक्षिण बंगाल भी पालों के हाथों से निकल गया। अनेक छोटे-छोटे सामन्त स्वतन्त्र शासक बन गये। पाल साम्राज्य मात्र उत्तरी बंगाल तक ही सीमित रह गया। अन्त में सेन शासकों ने पाल साम्राज्य का अन्त कर दिया।

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