चोल प्रशासन का विस्तार से वर्णन कीजिए : Chol Prashasan Ka Vistar Se Varnan Kijiye

दक्षिण भारतीय इतिहास में चोल वंश का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यद्यपि चोल वंश अति प्राचीन वंश था किन्तु उसका यश करिकाल के शासनकाल से बढ़ना प्रारम्भ हुआ जो ग्यारहवीं शताब्दी तक चरम सीमा तक पहुँच गया। चोलों द्वारा प्राप्त यश का कारण मात्र उनके द्वारा बड़ी-बड़ी विजयें प्राप्त करना ही नहीं वरन् उनका शासन प्रबन्ध भी था। सम्भवतः चोलों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली पक्ष चोलों की शासन व्यवस्था ही थी। चोलों के शासन-प्रबन्ध के विषय में चोलों के अनेक अभिलेख प्रकाश डालते हैं जिनसे इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। 

(i) केन्द्रीय शासन व शासक

संगम युग के समान चोल शासनकाल में भी शासन का स्वरूप राजतन्त्री था। चोलयुगीन व संगमकाल में अन्तर यह था कि चोलों के समय छोटे-छोटे राज्य न थे। चोल शासकों ने एक विशाल साम्राज्य पर शासन किया था। चोल-साम्राज्य सम्पूर्ण दक्षिण भारत पर विस्तृत था। चोल-साम्राज्य के अत्यन्त विस्तृत होने के कारण चोल-शासक का अत्यधिक प्रभुत्व एवं सम्मान था, तथा अपने सम्मान को बढ़ाने के लिए राजा निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। चोल शासकों की एक से अधिक राजधानियाँ होती थीं तथा ये शासक अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि के लिए दान-दक्षिणा के रूप में विपुल सम्पत्ति वितरित किया करते थे। इसी कारण अनेक मन्दिरों के नाम भी सम्बन्धित शासक के नाम पर रखे गये तथा राजाओं की मूर्तियाँ मन्दिरों में स्थापित की गईं। उदाहरण के लिए, राजराजेश्वर मन्दिर का उल्लेख किया जा सकता है।

चोल साम्राज्य में राजा अपने शासनकाल में ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देते थे। यह प्रथा अत्यन्त महत्वपूर्ण थी। इससे एक ओर जहाँ उत्तराधिकार के लिए युद्ध की आशंका समाप्त हो जाती थी, दूसरी ओर घोषित अधिकारी, जिसे युवराज कहा जाता था, को शासक से बनने से पूर्व ही प्रशासन व राज्य-कार्य का पर्याप्त अनुभव हो जाता था क्योंकि युवराज बनते ही उसे प्रशासनिक कार्यों में तत्कालीन राजा का हाथ बंटाना होता था। यद्यपि चोल शासक प्रशासन व राज्य का सर्वोच्च अधिकारी होता था तथा उसे समस्त अधिकार प्राप्त थे किन्तु राजा कानून का निर्माता नहीं अपितु सामाजिक व्यवस्था और नियमों का अविभावक होता था। सार्वजनिक प्रशासन में राजा की भूमिका मौखिक आदेशों के रूप में थी। राजा ऐसे आदेश उस समय देता था जब अधिकारी उसका ध्यान ऐसे मामलों की ओर दिलाते थे जिन पर उसके आदेशों की आवश्यकता होती थी। राजा के सचिव राजा के आदेशों को नोट करके केन्द्रीय अथवा प्रान्तीय अधिकारियों, जिनसे भी आदेश सम्बन्धित होते थे, को भेज देते थे। 

चोलों की प्रशासन व्यवस्था की उल्लेखनीय बात केन्द्र में किसी भी मन्त्रिपरिषद का न होना था। राजा की सहायता के लिए तथा मन्त्रिपरिषद के अभाव को दूर करने के लिए कर्मचारियों की एक बहुत बड़ी जमात थी राजा इन कर्मचारियों की सहायता से शासन करता था तथा तत्कालीन व्यवस्था का नियमन करता था। इस कर्मचारी जमात के प्रमुख सदस्य राजा के निकट सम्बन्ध में रहते थे तथा राजा को समय-समय पर परामर्श देते थे। चोल राजा इस बात का भी ध्यान रखते थे कि नौकरशाही स्थानीय संस्थाओं के कार्यकलाप में हस्तक्षेप न कर सके, किन्तु इन संस्थाओं के कारोबार की जाँच के द्वारा ये उन पर अत्यन्त कुशलता से नियन्त्रण रखते थे तथा उन्हें अपने निर्धारित मार्ग से विचलित होने से रोकते थे। 

डॉ. शास्त्री ने लिखा है, "तत्कालीन अभिलेखों का जितना अध्ययन किया जाये, हमें बराबर यही मिलता है कि उस काल में केन्द्रीय नियन्त्रण और स्थानीय संगठनों की पहल शक्ति के बीच बड़ा अच्छा सन्तुलन रखा गया था। राज्य और इन संस्थाओं के कार्यों की विभाजक रेखा सुस्पष्ट थी। इस व्यवस्था में व्यक्ति का कोई स्थान न था। उस समाज में जिसे हम 'समूहों का संघ' कहते हैं व्यक्ति और राज्य के बीच विवाद की कोई समस्या न थी।"

चोल शासक शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए नियमित रूप से राज्य का दौरा करते थे। चोल अभिलेखों से ज्ञात होता है कि 'चोल शासन में सिविल सर्विस का सुव्यवस्थित संगठन था. तथा इस विभाग के अध्यक्ष को 'ओ लै-नायक' कहा जाता था। राजकीय अधिकारियों को पारिश्रमिक के रूप में कुछ जमीन दे दी जाती थी। उस काल में राजकोष से नकद वेतन देने की प्रथा प्रचलित न थी।..

(ii) थल सेना व नौ सेना

राजा स्थल व थल सेना का प्रधान होता था। चोल अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चोल सेना विभिन्न दलों (Regiments) में बंटी हुई थी। ऐसे दलों की संख्या सम्भवतः 70 थी व इनके विभिन्न नाम, जैसे- पार्थिवशेखर, समरकेसरि, विक्रमसिंह, दानतोंग, तायतोंग, आदि होते थे जो सम्भवतः राजाओं के उपनामों पर आधारित थे। इन दलों के नामों से ऐसा प्रतीत होता है कि चोल- साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ चोल सेना को भी विस्तार होती चला गया। चोल अभिलेखों से ही ज्ञात होता है कि प्रत्येक दल (Regiment) का सामूहिक जीवन होता था। सैनिक जीवन के कार्यों में भी भाग लेते थे तथा मन्दिरों, आदि को भी दान देते थे। चोल सेना के प्रमुख तीन अंग हाथियों के कोर (कुंजिमल्लर), घुड़सवार (कुडिरैच्चेवगर) तथा पैदल सेना होते थे। इसके अतिरिक्त, धनुर्धरों (विल्लिगल) व असिघरों (वालपेर्रकेक्कोलूर) की भी रेजीमेण्ट होती थी। चोल-सेना समूचे राज्य में छोटी-छोटी छावनियों, जिन्हें 'कडगम' कहते थे, में रहती थी।

सेना में भर्ती के तरीकों और स्थाई सेना की संख्या के विषय में कोई निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है। चोल सेना की उल्लेखनीय बात ब्राह्मणों का भी सेनापति के पद पर होना था। सेना को समय-समय पर युद्ध का अभ्यास कराया जाता था तथा उन पर अनुशासन रखा जाता था। सेनापतियों व सैनिक अधिकारियों को सेनापति, नायक, महादण्डनायक आदि उपाधियाँ प्रदान की जाती थीं। युद्ध में चोल सेना के द्वारा धर्मयुद्ध के नियमों का प्रायः पालन नहीं किया जाता था। साधारण जनता, स्त्रियों व बच्चों को भी चोटें पहुँचाई जाती थीं। स्त्रियों को अपमानित किया जाता था तथा उनके अंग-भंग भी किये जाते थे। मन्दिरों को भी अनेक बार लूट के लालच में तोड़ा जाता था।

चोल शासकों के असंख्य जहाजों ने समुद्र को पार करके कडारम् तथा लंका पर विजय प्राप्त की थी, जिससे प्रमाणित होता है कि चोलों की सुसंगठित नौ सेना थी। चोलों की नौ-सेना में बहुत बड़ी संख्या में जहाज व नौकाएं थीं, जिसके द्वारा चोलों ने बंगाल की खाड़ी को 'चोलों की झील' के रूप में परिणित कर दिया था।

(iii) आय के साधन

प्राचीनकाल के अन्य राज्यों के समान ही चोल-साम्राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भूमि कर (Land Revenue) था। भूमि कर, उपज का एक तिहाई  होता था जिसे ग्राम सभाएं एकत्र करती थीं। भूमि कर किसान नकद अथवा उपज किसी भी रूप में अपनी इच्छानुसार दे सकते थे। भूमि का समय-समय पर सर्वेक्षण (Land Survey) कराया जाता था। अकाल, बाढ़ अथवा किसी अन्य आकस्मिक आपत्ति आने पर कर में छूट प्रदान की जाती थी। भूमिकर के अतिरिक्त राज्य की आय के अन्य स्रोत भी थे। व्यापारियों, सुनारों व बुनकरों पर विभिन्न कर लगाये जाते थे। खानों व वनों से भी राज्य को धन प्राप्त होता था। नदियों, तालाबों व बाजारों पर भी लगे हुये करों से राज्य की पर्याप्त आय होती थी। चोल शासक करों के मामले में अत्यन्त उदार थे व जनता की स्थिति के अनुसार ही कर वसूल करते थे। कुलोत्तुंग प्रथम ने अनेक करों को समाप्त कर दिया था तथा 'सुगन्दवृत' (करों को हटाने वाला) की उपाधि धारण की थी।

चोल शासक अत्यन्त पराक्रमी थे, तथा उन्होंने अनेक विजयें प्राप्त की थीं। इन विजयों के परिणामस्वरूप भी व अन्य राज्यों से अपार धन-सम्पत्ति लूटकर लाते थे।

(iv) सार्वजनिक व्यय

चोल-साम्राज्य की कुछ आय का प्रमुख भाग सेना, नौ-सेना व सिविल सर्विस पर खर्च किया जाता था। चोल शासक सार्वजनिक हित के कार्यों पर भी अत्यधिक धन व्यय करते थे। चोल शासक सड़कों, पुलों व नावों की उचित व्यवस्था करते थे। चोल राजाओं ने सिंचाई का अच्छा प्रबन्ध करने के लिए बहुत बड़ी मात्रा में धन व्यय किया था। आयंगर ने लिखा है कि "चोल महान निर्माता थे। सिर्फ नगरों व मन्दिरों के ही नहीं वरन् लाभकारी व आवश्यक सिंचाई व्यवस्था के संस्थापक भी थे।" चोल राजाओं के द्वारा अनेक नहरें व तालाब बनवाये गये। बड़ी नहरों से खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए छोटी-छोटी नहरें बनवाईं। सिंचाई के लिए कुओं का भी प्रयोग किया जाता था, अतः स्थान-स्थान पर कुएं खुदवाये गये। चोल शासक मन्दिरों को भी अत्यधिक दान देते थे।

(v) प्रान्तीय शासन

चोल साम्राज्य की सीमाएं दूर-दूर तक विस्तृत थीं, अतः राजा के लिए यह सम्भव न था कि वह अकेला इतने बड़े साम्राज्य की व्यवस्था सुचारु रूप से चला पाता। अतः प्रशासन की सुविधा के लिए सम्पूर्ण साम्राज्य को अनेक प्रान्तों में विभाजित किया गया था जिन्हें 'मण्डप' (प्रान्त) कहा जाता था। राजराज प्रथम के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चोल साम्राज्य आठ मण्डलों में बंटा हुआ था। प्रत्येक मण्डल 'वलनाडु' (बड़े प्रदेश आधुनिक कमिश्नरी के समान) तथा 'नाडु' (आधुनिक जिले के समान) में बंटा हुआ था। 'कोट्टम' अथवा 'कुर्रम' (गाँव के समान) शासन की छोटी इकाइयाँ थीं। कई कोट्टम मिलकर एक नाडु व कई नाडु मिलकर एक 'वलनाडु' की रचना करते थे। प्रत्येक मण्डल में राजा द्वारा निपुल गवर्नर शासन करता था। यह प्रायः कोई राजकुमार, राजवंशीय व्यक्ति अथवा बड़ा सामन्त होता था। इसका केन्द्र से सीधा सम्पर्क रहता था। वह राजा के आदेशों का पालन करता था। उसके अधीन भी अनेक कर्मचारी होते थे जो उस मण्डल के प्रशासन में उसकी सहायता करते थे। 

(vi) स्वशासन-व्यवस्था

चोल शासन की सबसे उल्लेखनीय विशेषता स्वशासन की व्यवस्था थी। कोट्टम (गाँव) से लेकर मण्डप (प्रान्त) तक स्वशासन की संस्थाएँ होती थीं जो शासन का कार्य देखती थीं। वलनाडु (बड़े प्रदेश) की सभा को 'नगस्तार' कहते थे। नाडु (जिले) में कार्यरत सभा को 'नाट्र' कहा जाता था। इसके अतिरिक्त, कोट्टम (गाँव) में भी सभाएं होती थीं जिनके विषय में विस्तृत जानकारी चोल अभिलेखों से प्राप्त होती है। चोल साम्राज्य में गाँव (कोट्टम) दो प्रकार के होते थे। एक साधारण जिन्हें 'उर' (Ur) कहते थे व इनकी सभा को उदार कहते थे। कुछ ऐसे गाँव होते थे जो विद्वानों को दान में दे दिये जाते थे। ऐसे गाँवों को चतुर्वेदिमंगलम् कहा जाता था व इसमें कार्यरत संस्था को 'सभा' कहते थे।

इन ग्राम संस्थाओं (उरार व सभा) में जनतन्त्रात्मक कार्यप्रणाली प्रचलित थी। ये संस्थाएँ अपना कार्य अनेक समितियों के द्वारा करती थीं। इन समितियों को 'वेरियम' (Variyam) कहते थे। प्रत्येक समिति में निर्वाचित सदस्य होते थे। निर्वाचन के लिए गाँव को तीस भागों में विभाजित कर दिया जाता था तथा प्रत्येक भाग के निवासी कुछ व्यक्तियों को चुनते थे। चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवार के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ आवश्यक थीं-

  1. उम्मीदवार को वैदिक मन्त्रों व ब्राह्मण ग्रन्थों का ज्ञान हो तथा उम्मीदवार का अपना मकान हो।
  2. उम्मीदवार कम से कम 1/4 बेलि भूमि (डेढ़ एकड़) का स्वामी हो।
  3. उम्मीदवार की आयु 35 व 70 वर्ष के मध्य हो।

इसके अतिरिक्त, कुछ अयोग्यताएँ भी थीं जिनके आधार पर किसी भी उम्मीदवार को समिति की सदस्यता से वंचित किया जा सकता था। ये अयोग्यताएँ निम्नलिखित थीं-

  1. जो व्यक्ति शूद्रों के साथ सम्बन्ध रखते हों।
  2. चोरी के आरोप में अपराधी घोषित किये जा चुके हों।
  3. जिन पर व्यभिचार का आरोप हो।
  4. जो विगत 3 वर्षों से किसी समिति का सदस्य हो।
  5. जो समिति में रहा हो व अपने विभाग का आय-व्यय का विवरण स्पष्टतः न दे सका हो।

इस प्रकार निर्वाचित सदस्यों से गाँव की स्थाई समिति, न्याय समिति, कृषि समिति, उपवन समिति व अन्य समितियाँ बनाई जाती र्थी जो अपने-अपने विभाग का प्रशासन व कार्य सुचारु रूप से चलाती थीं।

ग्राम-सभा का कार्यक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत होता था। ग्राम सभा के प्रमुख कार्य निम्न थे-

  1. ग्रामीणों के स्वास्थ्य व शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था करना। इसके लिए चिकित्सालयों व मठों की व्यवस्था की जाती थी।
  2. भूमि कर को एकत्र कर राजकोष में जमा कराना।
  3. बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाना व सिंचाई की व्यवस्था करना।
  4. न्याय सम्बन्धी कार्य।
  5. सार्वजनिक संस्थाओं व मन्दिरों की देख-रेख करना।
  6. व्यापार की उन्नति व सुविधा के लिए राजपथों का निर्माण एवं देख-रेख। वस्तुओं के क्रय-विक्रय की देख-रेख करना।
  7. जिन व्यक्तियों पर व्यक्तिगत सम्पत्ति हो, यह सभा उन पर भी नियन्त्रण रख सकती थी।

ग्राम सभाओं को यद्यपि पूर्णरूप से स्वायत्त शासन के अधिकार प्राप्त थे तथा राज्य उनके मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता था तथापि सतर्कता हेतु ग्राम सभा के ऊपर उसकी सहायता हेतु राज्य कुछ अधिकारियों की नियुक्ति करता था। यदि इन अधिकारियों को ग्राम सभा की कार्यप्रणाली में किसी प्रकार की अनियमितता प्रतीत होती थी तो वे इसकी सूचना तत्काल राजा को देते थे। आवश्यकता पड़ने पर राजा इन ग्राम सभाओं के मामले में हस्तक्षेप करता था व उनको दण्डित भी करता था। जब कभी दो ग्राम सभाओं में परस्पर मतभेद अथवा विवाद हो जाता था तो भी राज्य हस्तक्षेप करता था। इन ग्राम सभाओं के अधिवेशन प्रायः मन्दिरों अथवा वृक्षों के नीचे होते थे। किसी व्यक्ति को मृत्युदण्ड, आदि देने से पूर्व ग्राम सभा को राजा की आज्ञा लेना आवश्यक था। 

(vii) न्याय-व्यवस्था

चोल साम्राज्य में न्याय की भी उच्च कोटि की व्यवस्था थी। मुकदमों का निर्णय करने का अधिकार स्थानीय संस्थाओं को था। वर्तमान जूरी प्रथा से मिलती हुई न्याय व्यवस्था उस समय भी विद्यमान थी। अन्तिम अपील राजा के पास की जा सकती थी। चोल अभिलेखों से ज्ञात होता है कि विभिन्न प्रकार की हत्याओं के अन्तर को समझा जाता था व उसी के अनुसार दण्ड की व्यवस्था की गई थी। चोलों की दण्ड-व्यवस्था उदार थी। चोल अभिलेखों से ज्ञात होता है कि व्यभिचार, चोरी, धोखेबाजी को गम्भीर अपराध माना जाता था। किसी व्यक्ति के द्वारा अपराध हुआ है अथवा नहीं उसका फैसला ग्राम संस्थाएं व अपराधियों को दण्ड राज्य कर्मचारी देते थे। मान्यताएं, दस्तावेज व गवाह मुकदमे के दौरान प्रमाण (evidence) माने जाते थे। जिस मुकदमे में कोई गवाह नहीं होता था उसमें न्याय दिव्य-प्रथा (Ordeal system) के द्वारा किया जाता था।

इस प्रकार स्पष्ट है कि चोलों की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यन्त उच्च कोटि की थी। चोलों की प्रशासन व्यवस्था की उल्लेखनीय विशेषताएं, राजा द्वारा अपने शासनकाल में ही अपने उत्तराधिकारी (युवराज) की घोषणा, मन्त्रिपरिषद का न होना व गाँवों में स्वायत्त शासन की प्रणाली (Local Self Government System) का प्रचलित होना था। प्रो. सैथियनथियर ने चोल प्रशासन की अत्यन्त प्रशंसा की है। डॉ. शास्त्री ने भी चोलों की प्रशासन के क्षेत्र में प्रशंसा करते हुए लिखा है, "योग्य नौकरशाही (Bureaucracy) और सक्रिय स्थानीय संभाओं, जो जनता में नागरिकता की सजीव भावना का संचार करती थीं, के बीच प्रशासनिक दक्षता और शुचिता (Purity) के क्षेत्र में एक उच्च मानदण्ड स्थापित किया गया था जो सम्भवतः समूचे हिन्दू-राज्य में सबसे ऊँचा था।"

Post a Comment

Previous Post Next Post