राजपूतों के अन्तर्गत जाति व्यवस्था के विकास का वर्णन

इस काल में राजस्थान में भोनमाल धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व का नगर था। सम्भवतः इसी कारण 'श्रीमाल' ब्राह्मण अपने को अन्य ब्राह्मणों से श्रेष्ठ समझते थे। गुजरात में आनन्द नगर भी सम्भवतः सांस्कृतिक महत्व का स्थान था। इसीलिए 'नागर' ब्राह्मणों का उस प्रदेश में बहुत आदर था। मुसलमानों के आने से प्रान्तीयता पर आधारित इन संकीर्ण विचारों को प्रोत्साहन मिला। ब्राहाणों ने रक्त शुद्धि पर अत्यधिक बल दिया। उन्होंने रहन-सहन और खान-पान के विषय में अनेक प्रतिबन्ध लगाये जो 'कलिबर्ज्य' कहलाते हैं। अन्तरजातीय विवाहों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। 

अपरार्क के अनुसार, "ब्राह्मण को गायक, नट, वैद्य, सुनार, लुहार, शस्त्र बेचने वाले, दर्जी, धोबी, शराब बनाने व बेचने वाले, तेली, चारण, बढ़ई, ज्योतिषी, घंटा बजाने वाले, गाँव के अधिकारी, चमार, कुम्हार, पहलवान, बांस की वस्तुएँ बनाने वाले, आदिम जाति के साहूकार और ऐसे पुरोहित का जो पूरे गाँव में पुरोहित का कार्य करता हो भोजन उसके यंहा नहीं करना चाहिए।" 

इसका यह अर्थ है कि ब्राह्मण सभी शिल्पियों से घृणा करते थे। किन्तु इस काल में भी हरिचन्द्र प्रतिहार ने जो ब्राह्मण था एक क्षत्रियों से और राजशेखर ने जो स्वयं ब्राह्मण था एक चाहमान राजकुमारी से विवाह किया। इसका यह अर्थ है कि इस काल में भी कुछ अन्तरजातीय विवाह होते रहे।

जैन विद्वानों ने ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड और मिथ्या विश्वासों की 'धूर्ताख्यान' जैसे ग्रन्थों में हंसी उड़ाई है किन्तु धर्मशास्त्रकारों का मत था कि बड़ा से बड़ा अपराध करने पर भी ब्राह्मण को अधिक से अधिक देश निर्वासन का दण्ड दिया जाना चाहिए। जिन ब्राह्मणों ने हर्ष की हत्या करने का षड्यन्त्र रचा था उन्हें भी उसके देश निर्वासन का ही दण्ड दिया था। इस काल में भी समाज में ब्राह्मणों का बहुत आदर किया जाता था। क्षत्रिय राजा भी उन्हें पूज्य समझते थे। अनेक ब्राह्मण वेद पढ़ते थे और संस्कार कराते थे। अत्रि ने उन ब्राह्मणों की जो शस्त्र चलाकर आजीविका कमाते थे ब्रह्म-क्षत्री जो खेती और व्यापार में लगे थे उन्हें वैश्य-ब्राह्मण और जो लाख, नमक, दूध, घी, शहद, मांस और विशेष प्रकार का रंग बेचते थे उन्हें शूद्र ब्राह्मण कहा है। राजतरगिणी और चंदेल कलचुरि और चालुक्य अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कुछ ब्राह्मण अच्छे योद्धा थे। कुछ सरकारी नौकर थे, जैसे कि गर्ग नाम का ब्राह्मण और उसके वंशज धर्मपाल और देवपाल के मंत्री थे। कश्मीर में मित्र शर्मा ने ललितादित्य के, देवशर्मा और दामोदर गुप्त ने जयापीड के, भट्ट फाल्गुन ने क्षेत्रगुप्त और रानी दिद्दा के राज्यकाल में उच्च पदों पर कार्य किया। कुछ ब्राह्मण सेवकों से खेती कराते थे, वे स्वयं खेती नहीं करते थे। इस काल के स्मृतिकारों के अनुसार ब्राह्मणों को पशुपालन और साहूकार नहीं करना चाहिए। उनके लिए नमक, लाख, मांस, शहद और मद्य बेचना भी निषिद्ध था। इत्सिंग के अनुसार, "भारत के पाँचों भागों में ब्राह्मणों को देवताओं के समान पूज्य समझा जाता था।"

जन्म के सिद्धान्त पर अत्यधिक बल देने के कारण इस काल में ब्राह्मणों का दृष्टिकोण बहुत संकीर्ण हो गया था किन्तु उनके ज्ञान और विद्वत्ता के कारण उनका समाज में बहुत आदर था। 

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क्षत्रिय और राजपूत 

जैन लेखक सोमदेवसूरि (दसवीं शती ई. का उत्तरार्द्ध) ने क्षत्रिय के विशिष्ट कर्तव्य प्राणियों की रक्षा, शस्त्र द्वारा जीविकोपार्जन, सत्पुरुषों का आदर, दीन-दुखियों का उद्धार और युद्धभूमि से न भागना बताया है। इस काल में राजपूतों की क्षत्रियों में गणना कर ली गई है। उन सबकी उत्पत्ति क्षत्रियों से नहीं हुई थी। मंडोर का प्रतिहार हरिचंद ब्राह्मण पत्नी की संतान ब्राह्मण कहलाई और क्षत्रिय पत्नी की संतान क्षत्रिय कहलाई।

डॉ. दशरथ शर्मा का मत है कि अरबों के आक्रमण के कारण प्राचीन क्षत्रियों का महत्तत्। कम हो गया और उनके विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष में प्रतिहारों, चौहानों, परमारों और सोलंकियों का महत्व बढ़ गया। क्योंकि उन्होंने मातृभूमि की रक्षा में अपना रक्त बहाया। जिस समय वे अरबों से लोहा ले रहे थे उस समय भी उन्होंने देश की सांस्कृतिक प्रगति की उपेक्षा नहीं की।

इन राजपूतों में हूण आदि कुछ विदेशी जातियाँ भी मिल गई थीं किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सभी राजपूत विदेशी थे। सभी राजपूत सूर्यवंशी या चन्द्रवंशी क्षत्रियों की सन्तान भी नहीं थे। कई राजपूत वंशों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से हुई थी। समाज ने उन सभी व्यक्तियों को क्षत्रिय स्वीकार कर लिया जिन्होंने देश की रक्षा में योद्धा के रूप में भाग लिया और भारतीय संस्कृति की प्रगति में योगदान किया।

इब्न खुर्ददवा के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि क्षत्रियों में भी दो वर्ग थे। सम्भवतः प्राचीन राजवंशों की सन्तानों को उसने सत्क्षत्रिय कहा है और साधारण क्षत्रियों को क्षत्रिय। सम्भवतः समाज में प्रत्क्षत्रियों की ब्राह्मणों से भी अधिक प्रतिष्ठा थी। सम्भवतः क्षत्रियों में से कुछ ने व्यापार और कृषि करके जीविकोपार्जन प्रारम्भ कर दिया था। समाज में साधारण क्षत्रियों की अपेक्षा सत्क्षत्रियों की अधिक प्रतिष्ठा थी।

वैश्य

इस काल में स्मृतिकारों ने वैश्यों के कर्तव्य कृषि, पशुपालन, व्यापार और वाणिज्य और साहूकारा लिखे हैं। परन्तु युवान च्वांग ने वैश्यों का मुख्य व्यवसाय व्यापार लिखा है। माघ ने लिखा है कि राजा की सेना के साथ-साथ वैश्य आवश्यक वस्तुओं की बिक्री करने के लिए यात्रा करते थे। भविष्यत्कथा से वैश्यों के दूर-दूर तक व्यापार करने के लिए जाने का उल्लेख है। 'उपमिति-भव-प्रपंच कथा' में उन्हें देश में व्यापार करने के लिए जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था उनका उल्लेख है। कृषि कार्य अधिकतर शूद्रों के हाथ में चला गया क्योंकि इस काल में वैश्यों में अधिकतर जैन थे और वे कृषि कार्य करके जीव हिंसा करना नहीं चाहते थे। अलबरूनी ने लिखा है कि समाज में वैश्यों और शूद्रों की स्थिति प्रायः एक जैसी थी। वैश्यों को भी वेद सुनने का अधिकार न था। परन्तु इस काल के स्मृतिकारों से उक्त कथन की पुष्टि नहीं होती। वास्तुशास्त्र के ग्रन्थों में भी वैश्यों की समाज में स्थिति शूद्रों से अच्छी बतलाई गई है। लक्ष्मीधर (बारहवीं शती ई.) ने 'कृत्य कल्पतरू' में वैश्यों को वेद पढ़ने का अधिकार दिया है। वैश्यों को नमक, दूध, लाख, चमड़ा, मांस, नील, विष, अस्त्र-शस्त्र और मूर्तियाँ बेचने का अधिकार न था। इससे भी उनकी स्थिति शूद्रों से अच्छी प्रतीत होती है। किन्तु ब्राह्मणों ने इस काल में वैश्यों का भी भोजन करना छोड़ दिया क्योंकि वे शूद्रों से अधिक सम्पर्क रखते थे।

वैश्यों पर वर्ण सिद्धान्त का प्रभाव अधिक पड़ा। राजस्थान के वैश्यों में अग्रवाल, माहेश्वरी, जायसवाल, खण्डेलवाल और ओसवाल सभी अपनी उत्पत्ति क्षत्रियों से बतलाते हैं। इसका यह अर्थ है कि उनकी वैश्यों में गणना होने का आधार वर्ण था क्योंकि यह परिवर्तन उनके चरित्र, व्यवसाय, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के आधार पर हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि वे अहिंसा के सिद्धान्त के अनुयायी और शाकाहारी हो गये थे।

वैश्यों में भी अनेक उपजातियाँ न गई थीं जैसे कि घर्कट, प्रागवाट और श्रीमाल। भविष्यत कथा का लेखक धनमाल घर्कट जाति का था। प्रागवाटो के पूर्वज पश्चिमी राजस्थान में प्राक देश के निवासी थे। वैश्यों की धूसर उपजाति का उल्लेख नवीं शती ई. के एक अभिलेख में है।

इस काल में भी कुछ अन्तरजातीय विवाह होते थे जैसे कि हर्ष स्वयं वैश्य था किन्तु उसकी पुत्री का विवाह बलभी के क्षत्रिय शासक ध्रुवभट से हुआ था।

शूद्र

शूद्रों में भी वर्ण-सिद्धान्त का अधिक प्रभाव पड़ा। शूद्रों में अनेक संकर जातियों, किसानों, शिल्पयों की गणना की गई है। इस काल के अभिलेखों में कुम्हारों, मालियों, तमोलियों, संगतराशों, शराब बनाने वालों और तेलियों को शूद्र कहा गया है। इस काल के साहित्य में सुनारों, बढ़इयों, केसरों, नाइयों, गड़रियों, दर्जियों, कहारों और अहीरों को भी शूद्र कहा गया है। बंगाल में सत्यशूद्रों और असत्शूद्रों की सामाजिक स्थिति में बहुत अन्तर हो गया।

इस काल में भी शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार न था। ब्राह्मण अपने घनिष्ठ मित्र शूद्रों के यहाँ भी भोजन नहीं करते थे। शूद्रों को कुछ संस्कार बिना वेद मंत्रों के पाठ के कराने का अधिकार था। उन्हें जप और होम कराने का भी अधिकार न था। क्षत्रिय और वैश्य भी उनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखना चाहते थे। शूद्र उस आसन पर नहीं बैठ सकता था जिस पर कोई उच्च जाति का व्यक्ति बैठा हो। यदि कोई व्यक्ति शूद्र से शिक्षा प्राप्त करना तो वह अपवित्र हो जाता था। कुछ उच्च जाति के व्यक्ति यदि शूद्र की परछाईं पड़ जाये तो अपने को अपवित्र हुआ मानते थे।

स्कंद पुराण के छठे खण्ड में शूद्रों की निम्नलिखित 18 उपजातियों का उल्लेख है;

शिल्पी, नर्तक, बढ़ई, कुम्हार, वार्धिक, चित्रक, सूत्रक, धोबी, गच्छक, जुलाहा, तेली, चमार, शिकारी, बाजेवाला, कौल्हिक, मछुवा, औनाभिक और चांडाल। इस 18 उपजातियों में से 6 को इस पुराण ने उत्तम, पाँच को अधम और सात को अंत्यज कहा है। इन शूद्रों में कुछ की अपने श्रेणियाँ थीं। इस काल के अभिलेखों में तेलियों, मालियों, तमोलियों और संतराशों की श्रेणियों का उल्लेख मिलता है जो पूर्तधर्म का अनुसरण करके पुण्यलाभ करती थीं।

अंत्यज

इस काल के स्मृतिकारों ने धोबियों, चमारों, नर्तकों, वरुडों, मछुओं, मेड़ों और भीलों की गणना अंत्यजों में की है। कुवलयमाला में चांडालों, भीलों, डोमों, सूअर पालने वालों और मछुओं की गणना अंत्यजों में की गई है। इस ग्रन्थ में लेखक का मत है कि इन लोगों के जीवन में धर्म, अर्थ और काम का कोई महत्व नहीं है। इसका अर्थ है कि सांस्कृतिक दृष्टि से उनका स्तर बहुत नीचा था। समराइच्च कहा में धोवियों, चमारों और बहेलियों को भी अंत्यज कहा गया है।

अलबरूनी ने लिखा है कि धोबियों, चमारों, नटों, टोकरी और ढाल बनाने वालों मल्लाहों, मछुओं और शिकारियों की गणना अंत्यजों में की जाती है। ये सभी जातियाँ एक दूसरे से वैवाहिक सम्बन्ध करती हैं किन्तु धोबी, चमार और जुलाहे ऐसा नहीं करते। अंत्यज गाँवों या शहरों से बाहर रहते थे। उनकी अलग-अलग श्रेणियाँ थीं। सम्भवतः इसी कारण उनकी आर्थिक दशा अच्छी हो गई थी।

हाड़ी, होम, चांडाल और बधतौ की अपनी श्रेणियाँ नहीं थीं। ये गाँव में झाडू लगाते, चमड़ा कमाते, सांप पालते या दण्डित व्यक्तियों को मारते थे। इनकी दशा अन्य अंत्यजों से नीची थी। 'बधतौ' अपराधियों को प्राणदण्ड देते थे।

आर्यों की बस्तियों के पास रहने वाली शबर, भील, किरात और पुलिंद आदि आदिम जातियों के व्यक्तियों की गणना अंत्यजों में की जाती थी क्योंकि उनका सांस्कृतिक स्तर भी आर्यों के सांस्कृतिक स्तर से बहुत नीचा था।

डॉ. काणे का निष्कर्ष है कि इस काल में धोबी, नट, टोकरी और ढाल बनाने वाले, मल्लाह, मछुए, शिकारी, चिड़ीमार और जुलाहे अस्पृश्य नहीं समझे जाते थे। तेली और माली भी मन्दिरों को दान देते थे। उत्तर प्रदेश में माली और तमोली मन्दिरों को बिना मूल्य लिए देवपूजा के लिए फूल और पान देते थे। तेली दीपक जलाने के लिए मन्दिरों को तेल देते थे। कुछ बढ़इयों ने जमीन दान में दी, कुछ तेलियों ने मन्दिर भी बनवाये। इस प्रकार इन सभी नीच जातियों के व्यक्तियों को पूर्तधर्म का अनुसरण करके पुण्य कमाने का अवसर मिला। बंगाल में कुछओं, भालियों और कुम्हारों की स्थिति में भी इस काल में सुधार हुआ। उन्हें सत्शूद्र कहा गया है। मल्लाहों में कुछ विद्वान थे। धोबियों में भी कुछ विद्वान थे। धोयी भी जो राजकवि था धोबी था।

म्लेच्छ 

म्लेच्छों में शक, यूनानी और हूण आदि उन विदेशियों की गणना की जाती थी जो हिन्दू समाज का भाग नहीं बन सके थे। शबर, किरात, खस, ओडू, गोंड, पुलिंद और भील आदि भारत की आदिम जातियाँ भी म्लेच्छ समझी जाती थीं क्योंकि उन्होंने आर्य संस्कृति को नहीं अपनाया था। उद्योतन सूरी ने लिखा है कि वे अत्यन्त पापी, भयावह, कठोर और निर्दयी हैं। वे स्वप्न में भी धर्मपालन का विचार नहीं करते। वे शराब पीने, गाली देने, गोहत्या करने, स्त्रियों का अपहरण करने और ब्राह्मणों की हत्या करने में कोई पाप नहीं समझते थे।

चांडालों के साथ-साथ इन म्लेच्छ जातियों को भी अस्पृश्य समझा जाता था। शबर मोर पंख धारण करते, कानों में गुंजाफल पहनते और शराब पीकर वे अपनी पत्नियों को भी भूल जाते थे। शिकार करना उनका व्यवसाय था। जब कंगनी के धान पक जाते वे उत्सव मनाते थे। वे दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए नर-बलि देते थे। सपेरों का जीवन भी लगभग ऐसा ही था। इस काल में कुछ हूण भी लेखक बन गये थे।

कायस्थ 

चारों जातियों, अंत्यजों और म्लेच्छों के अतिरिक्त हिन्दू समाज में इस काल में कुछ अन्य जातियाँ भी विद्यमान थीं। गुप्तकाल तक कायस्थ लेखक थे। उनकी अलग जाति नहीं थी। नवीं तथा दसवीं शती ईसवी के अभिलेखों में कायस्थों की वल्लभ गौड़, माथुर, सक्सेना, वास्तव्य आदि उपजातियों का उल्लेख है। वल्लभी कायस्थ अपनी उत्पत्ति क्षत्रियों से बतलाते हैं। कल्हण के समय में कुछ कायस्थ जाति के ब्राह्मण थे। हलायुध ने कायस्थों की उत्पत्ति शूद्रों से बतलाई है। कायस्थ में कुछ उपजातियाँ प्रदेशों के आधार पर बनी थीं। दसवीं शती तक भी अधिकतर कायस्थ लेखक थे।

खत्री खत्रियों की उत्पत्ति सम्भवतः क्षत्रिय पिता और ब्राह्मणी माता से हुई थी किन्तु कुछ खत्री अपने को पूर्ण रूप से क्षत्रियों से उत्पन्न मानते हैं।

जाट

रोहतक जिले के जाट उत्पत्ति क्षत्रियों से मानते हैं किन्तु राजस्थान में अब भी जाटों की गणना शूद्रों में की जाती है।

संकीर्ण जातियाँ

स्मृतिकारों का मत था कि सभी संकीर्ण जातियों की उत्पत्ति अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों के फलस्वरूप हुई। परन्तु यह सिद्धान्त ठीक प्रतीत नहीं होता। मनु ने 'आंध्रों' को संकीर्ण जाति कहा है किन्तु हम भली-भाँति जानते हैं कि दक्षिणापथ के पूर्वी प्रदेश के निवासी आन्ध्र कहलाते थे। इसी प्रकार महाभारत के अनुसार 'अंबष्ठ' क्षत्रियों की एक उपजाति थी और अंबट्ट्ठ सुत के अनुसार वे ब्राह्मण थे। संकीर्ण जाति नहीं थे। 'आभीरों' की भी अपनी अलग जाति थी। 'पुलिंद' एक अनार्य जाति थी। इसी प्रकार 'खस' एक पहाड़ी जाति थी। 'उम्र' भी एक बहुत प्राचीन जाति थी जिसका बृहदारण्यक उपनिषद में उल्लेख है। 'मागध' शब्द भी सम्भवतः प्रारम्भ में मगध के निवासियों के लिए प्रयुक्त किया जाता था जो अच्छे चारण थे। 'निषाद' और किरात भी अनार्य-जातियाँ र्थी। बौद्ध साहित्य के अनुसार 'मल्ल' योद्धा थे। आयोनिया के निवासी 'यवन' कहलाते थे। उपर्युक्त सभी जातियों को स्मृतिकारों ने संकीर्ण जाति कहा है। वर्णों का उल्लेख है और स्मृतिकार सभी जातियों की उत्पत्ति उन चार वर्णों से सिद्ध करना चाहते थे। 

इसका यह अर्थ नहीं कि हिन्दू समाज में संकीर्ण जातियाँ बिल्कुल नहीं थीं। प्रारम्भ में अनुलोम विवाहों में संतान का वर्ण पिता का वर्ण माना जाता था। इस काल में हरिचन्द्र ब्राह्मण को क्षत्रिया पत्नी की सन्तान क्षत्रिय कहलाई। अलबरूनी के समय तक संतान का वर्ण माता का वर्ण हो यह सिद्धान्त पूर्ण रूप से माना जाने लगा था। उसी के वर्णन से यह भी स्पष्ट है कि इस काल में भी प्रतिलोम विवाह बुरा समझा जाता था।

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