राजपूत काल में अस्पृश्यता (छुआ-छूत) की समस्या का वर्णन करें।

इस काल में शूद्रों की गुप्तकाल से भी अधिक अंश में उनके सामाजिक तथा धार्मिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। पाराशर (लगभग 600 ई. से 900 ई. तक) के अनुसार तेजस्वी पुरुष भी यदि शूद्र का भोजन कर ले, उसके साथ सम्पर्क रखे, उसी आसन पर बैठ जाये जिस पर शूद्र बैठा हो, शूद्र से शिक्षा प्राप्त करे तो वह पतित हो जाता है। एक दूसरे स्मृतिकार को मत है कि कलियुग में ब्राह्मण का शूद्र से भोजन बनवाना निषिद्ध है। तीसरे स्मृतिकार के अनुसार यदि उच्च वर्ग के किसी व्यक्ति को धर्म- क्रिया करते समय कोई शूद्र दिखाई दे जाये तो उसे वह धर्म-क्रिया तुरन्त बन्द कर देनी चाहिए। यदि उस समय उनका शरीर शूद्र के शरीर से छू जाये तो उसे तुरन्त स्नान करना चाहिए। गार्ग्य के अनुसार, "शूद्र का स्पर्श होने पर जाति के उच्च व्यक्ति को पवित्र होने के लिए जल का आचमन करना ही पर्याप्त है।"

गुप्तकाल में उच्च वर्ण के व्यक्ति अपने ग्वाले, किसान और परिवार के शूद्र मित्र का भोजन कर सकते थे। इस काल के स्मृतिकारों का मत था कि उच्च वर्ण के व्यक्ति आपत्ति के समय ही उन शूद्रों का भोजन कर सकते हैं जिनको गुप्तकाल में अपवाद के रूप में छोड़ दिया गया था।

इसके कुछ समय बाद इन शूद्रों का भोजन करना कलिवर्ज्य घोषित कर दिया गया। ब्राह्मणों के घरों में उनको भोजन बनाने के लिए रखना भी कलिवर्ज्य ठहराया गया। शूद्र का स्पर्श करने पर प्रायश्चित के रूप में व्रत रखने का विधान किया गया। इस प्रकार इस काल में शूद्रों को पूर्णतया अस्पृश्य मान लिया गया। हेमाद्रि (लगभग 1270 ई.) से हमें ज्ञात होता है कि ब्राह्मणों ने वैश्यों का भोजन भी छोड़ दिया क्योंकि उनका शूद्रों से घनिष्ठ सम्बन्ध था।

अनेक संकर जातियों की गणना इस काल में शूद्रों में कर ली गयी। बृहद्धमं पुराण में अंबष्ठ और करण जातियों के व्यक्तियों को शूद्र कहा गया है। वेद व्यास स्मृति में कायस्थों की गणना भी शूद्रों में की गई है। कुछ स्मृतिकारों का मत था कि अनुलोम विवाह से उत्पन्न सन्तान तो द्विज ही रहती है किन्तु प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न संतान की स्थिति शूद्रों के समान होती है। मेधातिथि ने सूत, मागध और आयोगव को अस्पृश्य माना है क्योंकि उनकी उत्पत्ति स्मृतिकारों के अनुसार प्रतिलोम विवाह से हुई थी। बृहद्धर्म पुराण में संकर जातियों की संख्या 41 दी है। उनमें से 36 की स्थिति शूद्रों के अनुरूप मानी गई है। इसका यह अर्थ है कि इन पुराणों के अनुसार इन छत्तीसों संकर जातियों के व्यक्ति अस्पृश्य थे। इस प्रकार इस काल के स्मृतिकारों ने हिन्दू समाज के बड़े भाग को अस्पृश्य घोषित कर दिया।

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इस काल में भी चांडाल बहुत निम्न स्तर का कार्य करते थे जैसे कि ऐसे व्यक्तियों के शवों को ले जाना जिनके कोई सम्बन्धी न हों या अपराधियों को फांसी देना। वे इस काल में भी अस्पृश्य समझे जाते थे। इस काल के कुछ स्मृतिकारों का मत था कि चांडाल के स्पर्श से दूषित व्यक्ति स्नान करके ही पवित्र नहीं होता। उसे यदि चांडाल के निकट से गुजर भी जाये तो भी प्रायश्चित करना चाहिए। ऐसा ही शूद्रों के दिख जाने और उनसे बात करने, उनके खेल-तमाशे देखने या उनकी परछाईं पार करने पर करना चाहिए। जिन व्यक्तियों की माता चांडाल होती थी उन्हें मेधातिथि ने सोपाक कहा है। अग्नि पुराण में सोपाक को भी अस्पृश्य माना है। तत्कालीन साहित्य में भी इस मत की पुष्टि होती है कि चांडाल शहर के बाहर रहते थे, नीच काम करते थे और उन्हें अस्पृश्य समझा जाता था। चांडाल की परछाईं के विषय में इस काल के स्मृतिकार एक मत नहीं हैं। अत्रि, अंगिरस, शतांतप और औशनस स्मृतियों के अनुसार यदि ब्राह्मण चांडाल की परछाई को पार कर ले तो उसे स्नान करना चाहिए। व्याघ्रपाद और बृहस्पति का मत है कि शूद्र को ब्राह्मण से निश्चित दूरी पर रहना चाहिए। किन्तु शिवधर्मोत्तर पुराण और मेधातिथि के अनुसार चांडाल की परछाईं से कोई व्यक्ति दूषित नहीं होता।

वैजयंती कोश (ग्यारहवीं शताब्दी ई.) में धोबियों, चमारों, वेण, बुरुल, मछेरों, मेड़ों और भीलों की गणना अंत्य जातियों में की है। इनमें वेण, बुरुल, मेड़ और भील तो आदिवासी थे ही शेष तीन धोबी, चमार और मछेरे इसलिए अस्पृश्य समझे गये कि वे नीच व्यवसाय करके आजीविका कमाते थे। पुलिंद, शबर, किरात आदि आदिम जातियाँ पहाड़ियों और जंगलों में रहती थीं। वे अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मनुष्यों का मांस अर्पित करती थीं। उनका मुख्य व्यवसाय शिकार करना था। वे मांस और सुरा का खूब प्रयोग करते थे। विवाह करने के लिए वे अन्य व्यक्तियों की स्त्रियों को उठा ले जाते थे। उनसे ऐसे घृणित कार्यों के कारण वे सभी अस्पृश्य समझे जाते थे।

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इस काल के स्मृतिकारों ने अन्य धर्मावलम्बियों को भी पतित माना है। उनके अनुसार बौद्ध, जैन, लोकायत, नास्तिक, कपिल के अनुयायी, शैव और वाम-मार्गी शाक्त सभी अस्पृश्य थे। ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार शैवों, पाशुपतों, लोकायतों आदि का स्पर्श करके प्रत्येक उच्च वर्ण के व्यक्ति को वस्त्रों सहित स्नान करना चाहिए। वृद्ध हारीत का मत था कि शैवों का स्पर्श होने पर या शैव या बौद्ध मन्दिर में प्रविष्ट होने के बाद प्रत्येक व्यक्ति को स्नान करके पवित्र होना चाहिए।

अस्पृश्यता के इस विवेचन का अंत हम पांडुरंग वामन काणे के निष्कर्ष से कर रहे हैं। उनका मत था कि प्राचीन धार्मिक साहित्य में चांडाल आदि की अस्पृश्यता के अतिरिक्त निम्नलिखित वर्गों के व्यक्ति अस्पृश्य समझे जाते थे-

  1. बड़ा पाप करने वाले व्यक्ति जो जाति से निकाल दिये जाते थे और अस्पृश्य समझे जाते थे। किन्तु ये व्यक्ति प्रायश्चित करने पर दोष से मुक्त हो जाते थे और फिर अस्पृश्य नहीं रहते थे।
  2. कुछ नास्तिक सम्प्रदायों के अनुयायी अस्पृश्य समझे जाते थे जैसे कि कौटिल्य ने लिखा है कि बौद्धों को श्राद्ध में आमंत्रित न किया जाये।
  3. वे व्यक्ति जो धन की प्राप्ति के लिए देवताओं की पूजा करने का ढोंग रचते थे।
  4. कुछ ऐसी वनस्पतियों को बेचने वाले व्यक्ति जो आर्य स्वयं भोजन में प्रयोग नहीं करते थे।
  5. रजस्वला स्त्री मासिक धर्म के दिनों में अस्पृश्य समझी जाती थी।
  6. शव ले जाने वाले व्यक्ति अस्थायी रूप से अस्पृश्य समझे जाते थे।
  7. कुछ विदेशों को अपवित्र समझा जाता था और वहाँ से आने वाले व्यक्तियों को अस्पृश्य माना जाता था।

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